एक उदास सायबर कैफे

एक उदास सायबर कैफे

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यह शहर के अनगिनत सायबर कैफों में से एक कैफे है। यूं तो इसकी कोई विशेषता नहीं है,क्योकि ऐसे कई और साइबर कैफे भी यहां वहां हर शहर में मिलते हैं। हाँ पर इसे एक ऐसे पिता पुत्र चलाते है जिनका आपसी सदभाव कई बार उलझन पैदा कर देता है मसलन पुत्र कभी न हसने वाली मुद्रा धारण किये ज्यादातर मौन रहता है और पिता के साथ उसका वार्तालाप

"हूंहूं"

अच्छा',

'ठीक',

आदि शब्दों में सिमटा है।

अक्सर जाने पर देखने में लगता है कि पिता अपने पुत्र के सामने हिचकिचा रहा है और पुत्र उसका चेहरा देखने से या उसके शब्द सुनने से बचना चाहता है। कुछ लोग इसे जेनरेशन गैप कहकर पीछा छुड़ा लेते है। ये भी हो सकता है कि पिता पुत्र के बीच ये कोई पारम्परिक जीन समस्या हो।

ऐसा नही कि कैफे में कोई सौंदर्यबोध न हो, बहुत से युवा लड़के लडकिया इत्र महकाते और एक ही पीसी पर बैठे फुसफुसाते,मुस्कुराते माहौल को सुंदर बना रहे हैं पर नौजवान जोड़ो की उड़ती खुशबु से महकता कैफे भी उनकी आपसी नीरसता को दूर न कर पाता। वो नीरसता जैसे अटूट है और इस कैफे का जरूरी हिस्सा भी। पर उसे हर कोई नही महसूसता। नौजवान दिलों को इससे क्या मतलब,उन्हें तो तीस रुपये घण्टा में जो अपने अकेलेपन का आनन्द सर्फिंग के बहाने उठाना है,उसमें वे ऐसी नीरस चीज को क्यो देखे।

वैसे मैंने कभी ये भी नहीं पूछा और पूछने का मुझे कोई अधिकार भी नही कि उन दोनों का आपसी रिश्ता असल मे क्या है।हो सकता है मैं उन्हें गलती से पिता पुत्र मां बैठा हूँ।

बहुत से रिश्ते अपने अर्थ बिना बतलाये दे देते है।इसलिए मुझे कोई और अर्थ उनमे मिला ही नहीं।कहने को तो उन्हें रूठा बेटा और अपराध बोध से ग्रसित पिता की भी संज्ञा दी जा सकती है पर ये सब बाते हर पिता पुत्र में कामन होती है और पानी के बुलबुले की तरह आती जाती रहती है।पर यहाँ मामला कुछ और ही है।पिछले तीन चार सालों से कभी कभार न चाहते हुए भी(कई बार बाकि कैफे भरे होते हैं) मैं यहाँ जाता रहता हू पर पिता पुत्र में संबंधो की वही दीवार और ऊचे होता पाता हूँ।और मुझे दोनों पर ही खीज आती है।

पुत्र ज्यादातर ग्राहकों के साथ भी वैसे ही पेश आने लगा है जैसे पिता के साथ।रुठा पिता से है और प्रभाव दूसरों पे पड़ रहा है।

"जी एक प्रिंट आउट निकलवाना है।"

"निकाल देंगे।"

"कलर्ड प्रिंट आउट के कितने पैसे होगें ?"

"बीस रुपये कॉपी।"

"बाकी जगह तो दस रुपये ले रहे हैं।"

"नही,हम बीस ही लेते हैं।"

"अगर कॉपी ज्यादा हो।"

"हजार हो,तब भी बीस का रेट है, लाइट भी चली जाए तो जनरेटर पर निकाल कर देंगे।"

ये बड़ा रूखा सा संवाद है। मैंने सुना है कि दुकान नरमी और दलाली बेशर्मी से चलती है,पर ये कैफे शायद गर्मी से ही चलता था।

ग्राहक दिन ब दिन कम हो रहे है।न जाने कैफे बढ़ने के कारण या उसके व्यवहार के कारण।अब तो नेट की स्पीड और साफ़ सफाई भी वहां रूठने सी लगी है ।पुत्र जब कैफे पर नहीं होता तो पिता की अनभिज्ञता मसलन स्कैनिंग,मेल या कोई रिजल्ट की साईट खोजने के बारे में माहौल को और भी खीज से भर देता है। पिता खुद जो काम नही कर पाते,उसे ग्राहक को खुद ही करने को कहते है या बेटे को फोन लगा कर उसे ग्राहक को समझाने के लिए कहते है। बेटा शायद इस बात पर भी चिढ़ जाता है।

ग्राहक समझ जाता है कि बुढऊ के बस की बात नहीं है और जब ग्राहक जाने लगता तो वो अन्य बैठे लोगों से मदद मांगने लगता।अन्य फेसबुक या चैट पर अपनी व्यस्ता में इस मदद को भारी डिस्टर्बेंस मानते।इससे उनकी प्रेमिकाएं नाराज हो सकती थी।उनका अपना पनप रहा रिश्ता या उदेश्य बिगड़ सकता था।वैसे भी आजकल इतना फालतू वक्त है भी किसके पास।मोबाइल,इन्टरनेट,और टेबलेट ही सारा समय बिजियाये रहते है।एकाध उसकी मदद अनमने ढंग से कर देता या स्कैनिंग बिगाड़ देता।इस पर वो अपने पुत्र का मोबाइल नंबर डायल कर उस मदद करने वाले को थमा देता। मेरे साथ कई बार ऐसा हो चूका है।उसका पुत्र न चाहते हुए भी अपने पिता का फोरवर्ड किया आदेश सुन कर हल बता देता है।पर अब उनके इस व्यवहार से मैं परेशां हो गया हूँ और उस कैफे पर बाकी ख़ूबसूरत लोगो की तरह जाना छोड़ दिया है।न जाने क्यों उनके आपसी व्यवहार ने मुझे दोनों के प्रति खीज और तरस के बीच लाकर खड़ा कर दिया है।पर न तो मैं उन्हें कोई परामर्श देने का अधिकारी हूँ और न ही उनके कैफे पर आने को मजबूर हूँ।

सोचता अवश्य हूँ कि जब लड़का अपने मन की करता है तो तुम क्यों हलकान हुए जा रहे हो।जब वो कैफे पर नहीं है तो आराम से बैठो।अगर कोई ग्राहक मदद मांगता है तो कौन तुम्हे मजबूर कर रहा है बेकार में टांग अड़ाने को।केवल इतना ही तो कहना है कि'लड़का आ जाएगा तो बता देगा।' पर नहीं आस पास और कैफे खुल गए है भीड़ उधर लगी है तो चैन भी नहीं।

बहरहाल मैं भी आपको कहाँ उलझा रहा हूँ। चलिए नयी दुकान पर ही चलते हैं।


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