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Shwet Kumar Sinha

Abstract Inspirational

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Shwet Kumar Sinha

Abstract Inspirational

एक चिट्ठी प्यार भरी

एक चिट्ठी प्यार भरी

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प्यारी बहना, 


रक्षाबंधन की सुबह तुम्हारी भेजी हुई राखी पहन ऑफिस तो चला गया, पर न जाने क्यूं कहीं कुछ कमी-सी रह गई। 


याद है बहना, बचपन में राखी के दिन हम दोनों सुबह से ही कितना उत्साहित रहा करते थे! पापा की लायी वो बड़ी वाली राखी देख आंखें खुशी से फैल जाया करती थी। सुबह से ही जैसे किसी जश्न का माहौल हुआ करता था। हलवा-पूरी, मिठाई और हाँ, मेरे पसंद वाली खीर की खुशबू से पूरा घर महक उठता था। चुपके से पापा का मुझे ग्यारह रुपए पकड़ा देना, फिर राखी बंधवाने के लिए जल्दी से तैयार होकर पालथी मारकर बैठ जाना - अब बड़ा याद आता है। अब न तो वो ग्यारह रुपए वाली खुशी है और न पापा! 


याद है मुझे, तुम्हारा वो मेरे ललाट पर लम्बा-सा तिलक लगाना और फिर पापा की लायी बड़ी वाली राखी पहनाना जो मेरी पूरी कलाई घेर लिया करती थी। तुम्हारा वो जबरदस्ती मुंह में ठूंस-ठूंसकर मुझे मिठाई खिलाना और पागलों की तरह हंसना फिर आंखें दिखाकर हाथ आगे बढ़ा देना जिसपर मैं ग्यारह रुपए रख दिया करता था – मुझे आज भी मुस्कुराने को मजबूर कर देता है। उसे पाकर तुम्हारा चेहरा खुशी से खिल उठता था और पैसे खोने के गम में मेरा चेहरा लटक जाया करता था। पर तुम भी न...बड़ी चालाक थी। जानती थी भाई को कैसे मनाना है, तभी तो झट से स्वादिष्ट पकवान की थाली मेरे सामने परोस दिया करती थी जिसे देख पैसे-वैसे का गम मैं भूल जाया करता था। वो बचपन, वो प्यारी राखी, वो सुनहरे पल अब मुझे बड़े याद आते हैं। 


बड़े होने पर सबकुछ कितना बदल जाता है न! अब न तो बचपन वाली वैसी राखी है और न ही वो उत्साह। अब खुद ही देख लो न, जिस बड़ी-सी राखी को कलाई पर बांध हम पूरा दिन इतराया करते थे, अब हम उन्हें ही ओल्ड फैशन कहते है जिसका स्थान आज माइक्रो राखी ने ले लिया है, जिसे पहनने के बाद उसे पहनने का आभास ही नहीं होता। 


मुझे याद है ग्यारह रुपए पाकर तुम पूरे घर में खुशी से चहकती फिरा करती थी। आज जब राखी के बदले मैंने शगुन के तौर पर तुम्हें ऑनलाइन अपने पसंद का कुछ भी खरीद लेने को कहा, जिसका पेमेंट मैं यहाँ से कर देता तो तुम्हारी वो बचपन वाली खुशी तो कहीं दिखी ही नहीं! 


अब सबकुछ कितना बदल गया है! नौकरी की व्यस्तता में राखी पर घर आने का मौका तक नहीं मिल पाता। पर हाँ, रक्षाबंधन की सुबह ऑफिस जाने से पहले तुम्हारी भेजी हुई राखी पहनकर मन को सुकून तो जरूर मिला। लेकिन राखी बांधते वक़्त तुम्हारे चेहरे की खुशी देखने से वंचित रह गया। दूर होने का एक फायदा जरूर मिला कि तुम जो वो बड़ा वाला तिलक लगाती थी, उससे मैं बच गया। थैले में पड़ी वो तिलक वाली पुड़िया अब भी वैसे ही रखी है। अब न तो तुम पास हो और न ही वो मां के हाथों की बनी हलवा-पूरी और खीर वाली खुशबू! पिछली रात ऑफिस से लौटने में देर हो गई, सो मिठाई लाना भी भूल गया। कामवाली बाई ने जो खाना बनाया था, हाथों में राखी पहन मशीनी अंदाज में जल्दी-जल्दी खाया और ऑफिस के लिए निकल पड़ा। 


सच कहूं तो आज सारा दिन मेरे भीतर का बचपन मुझे मेरे बड़े होने पर कोसता रहा। पैसे और भौतिकता की अंधदौड़ में भागते-भागते आज हम खुद से और अपनो से ही कितना दूर निकल आए हैं। फिर सोचता हूँ इतनी मेहनत, वो दिन-रात आंखें फोड़कर पढ़ते रहना, वो सबकुछ भी तो इसी दिन के लिए था न! किसी ने सच ही कहा है, कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता है। या फिर कुछ बड़ा पाने के लिए शायद सबकुछ खोना पड़ता है – ये बात अबकी इस रक्षाबंधन में समझ में आ गई। 


पर बहना, चिंता मत करना! अगली राखी में छुट्टी लेकर मैं तुमसे राखी बंधवाने जरूर आऊंगा। और हाँ, अपने लिए कोई पसंद का उपहार जरूर चुन लेना। भले ही सबकुछ बदल जाए, हम पास रहें या दूर – एक बात कभी नहीं बदलने वाली, वो है भाई-बहन का प्यार!


शुभाशीष! 


तुम्हारा भईया श्वेत कुमार सिन्हा


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