शुभेन्द्र सिंह SHUBHENDRA SINGH

Romance

1.0  

शुभेन्द्र सिंह SHUBHENDRA SINGH

Romance

एक और मुलाकात

एक और मुलाकात

15 mins
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एक कहानी खत्म करके वो बहुत है मुत्मईन भूल बैठा है आगे अभी एक कहानी और है" राहत साहब की ये बात उस दिन सच होती नज़र आ रही थी। मैं उसके शहर में था, अकेला। तबियत थोड़ी नासाज़ थी और मैं डॉक्टर से ही दिखाने के लिए गया हुआ था। मैं डॉक्टर के क्लीनिक करीब 9 बजे पहुच गया और मेरा अपॉइंटमेंट था 11:30 का। मुझे अभी पुरे ढाई घंटे इंतज़ार करने थे दरअसल समय ज्यादा नही लेकिन इस शहर में मैं इतनी देर पहले कभी अकेला नही रहा, इंतज़ार तो किया था पर किसी और का जो अब न जाने कहाँ किस हालात में है कुछ अता-पता नही मुझे। हमारी बात हुए भी करीब 3 साल हो चुके थे। हालांकि हमारी कहानी कुछ इस तरह ख़त्म हुई थी कि " अब हम में कोई अनबन नही है, बस बात ये है कि अब वो मन नही है"

मैंने पूरी कोशिश की खुद को रोकने कि लेकिन रोक नही पाया। मैंने अपना फ़ोन पाकेट से निकाला और एक नंबर डायल किया, दो-तीन रिंग बजने के बाद फ़ोन रीसिव हुआ

मैंने हल्की आवाज में बोला "हेल्लो, राशि"

उधर से थोड़ी देर रुक के आवाज आई "हाँ, बोलो"

मैंने बोला "मैं रचित बोल रहा हूँ"

उसने बड़ी तकल्लुफी से बोला "हाँ, जानती हूँ, बोलो कैसे याद किया"

मैं कुछ समझ नही पाया "कैसे जानती हो, ये नंबर तो नया है मेरा"

वो हँसते हुए बोली "आवाज पहचानती हूँ मैं तुम्हारी, कहो कैसे याद किया"

मैं झेप गया था उसे मेरी आवाज आज भी याद है मुझे तो नही।

मैंने धीरे से कहा "तुम्हारे शहर में हूँ"

वो थोड़ी बेचैन होते हुए बोली " हाँ? सच में, कहाँ, क्या करने आये हो, और कौन है साथ में"

"एक साथ इतने सारे सवाल, बताता हूँ सब लेकिन पहले मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ" मैंने बोला

वो "हूँ", बोल के कुछ सोचने लगी फिर बोली "यार कॉलेज जाना है 10 बजे से क्लास है और अभी 9 बज रहे है सो...कैसे मिलें, वैसे तुम हो किस जगह ये तो बताओ"

"वहीं जहां हम पहली बार मिले थे" मैंने बोला

"कहाँ, सेंट पॉल चर्च के पास" उसने पूछा

"हाँ, वही पास में एक डॉक्टर की क्लिनिक है, डॉ.अनिल शर्मा उन्ही के यहां आया हूँ"

"डॉ. के यहाँ क्या करने, क्या हुआ, तबियत तो ठीक है न तुम्हारी?"

"बताता हूँ सब तुम आओ तो सही"

"मेरे कॉलेज जाने का रास्ता वही है सो मैं आती हूँ, 10 मिनट में मिल के वहीं से कॉलेज चली जाऊंगी" उसने जल्दी जल्दी अपनी बातें ख़त्म की और "बाय" बोल के फ़ोन रख दिया।

ये समय काफी मुश्किल भरा था मेरे लिए, वो आ रही थी मिलने के लिए आज पूरे 3 साल बाद हम मिलने वाले थे।

दरअसल हमारी कहानी शुरू हुई थी आज से करीब 8 साल पहले, हम एक शादी में मिले थे। उसने मुझे पहले देखा या मैंने उसे इस बात का झगड़ा हममे हमेशा ही होता था पर हाँ देखा दोनों ने था एक-दूसरे को और देखने की नज़रे भी एक सी ही थी।

आँखे बड़ी-बड़ी, मध्यम कद, चेहरे पर हल्की सी हसीं और सोने पर सुहागा उसका सफ़ेद रंग का गाउन, बिल्कुल कोई परियों जैसी लग रही थी। खैर, मैंने तो कोशिश भी नही की बात करने की। उसने ही आकर मुझसे मेरा नाम पूछा था, सिर्फ नाम।

और फिर उस दिन के बाद हम कभी मिले नही। अगली बार हमारी बातें हुई थी करीब 2 साल बाद। किसी कॉमन फ्रेंड के थ्रू उसे नंबर मिला मेरा और उसने मुझे कॉल किया और फिर शिलशिला यूँ शुरू हुआ जो अगले करीब 3 साल तक चला, हर बार कोशिश उसने ही की थी बात करने की। खैर, बातें कैसे बनी और कैसे बिगड़ी इसमें कुछ खास नया नही था, सब कुछ वैसे ही था जैसे की करीब सबके साथ होता है कुछ बातों में आपसी समझ जब तक थी बातें ठीक थीं जब कुछ बातों में दुराव होने लगा तो दूरियां बनने लगीं। पहले एकदूसरे की हर बात अच्छी लगती थी अब कुछ बातें बुरी भी लगने लगी थी, पहले एक दूसरे की अच्छाई गिनाने नही थकते अब बात-बात में बुराई दिखती थी इस बदलते वक़्त में हम दोनों ने अलग होना ही ठीक समझा कुछ वैसे ही जैसे साहिर लुधियानवी साहब का कहना है "वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा" हालाकिं इस मोड़ ने हमें ऐसे मोड़ पर लाकर छोड़ा था जहां हम एकदूसरे के न होते हुए भी एक दूसरे की थे क्योंकि फिर किसी और के लिए हमारे मन वो जगह नही बन पायी। खैर, अभी सब कुछ ठीक-ठाक ही है हमारे बीच जैसा मैंने पहले भी कहा ना "कि अब हममे कोई अनबन नही है बस बात ये है कि अब वो मन नही है"।

अभी मैं उसका इंतज़ार कर रहा हूँ और अभी मन में क्या है वो शब्दो में बता पाना मुश्किल है। अब कैसीं दिखती होगी वो, बातें कैसे करती होगी, स्वभाव उसका अब भी वैसा ही होगा, सब कुछ वैसा ही होगा शायद......शायद।

एक लम्बा वक़्त बीत गया था करीब 3 साल का। अभी एक एक मिनट घंटो में बीत रहा था मैं घबराहट में बार बार फ़ोन पॉकेट से निकलता, अनलॉक करता, टाइम देखता और फिर लॉक कर के रख लेता। एक अजब सी बेचैनी हो रही थी।

सफ़ेद रंग की स्कूटी पर चेहरा ढके हुए, आँखों पर सनग्लास लगाए एक लड़की आ रही थी मुझे लगा शायद वही है। जब स्कूटी मेरे पास आकर रुकी तो धड़कने और बढ़ गयी। उसने स्कूटी बंद की आँखों से चश्मा हटाया और मेरी तरफ हाथ बढ़ाया "हाय" बोलते हुए। ऐसे इस तरीके से हम पहले कभी नही मिले थे ये कुछ औपचारीकता जैसा लग रहा था। अभी सिर्फ उसकी आँखे ही दिख रही थी। बातें हो रही थी लेकिन समझ नही आ रहा था जाने कैसी हिचक थी दोनों में। उसने अपने चेहरे से रुमाल हटाया, वो अब और भी खूबसुरत लग रही थी। मैं उसकी शक्ल की बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था वही नाक - नक्श वहीं आँखे, वही होठ सब कुछ वैसा ही था कुछ बदला था तो हमारे बीच की दूरियां अब बढ़ गयी थी। बातों बातों में मैंने जब उसके स्कूटी के हैंडल पर हाथ रखा तो मुझे थोड़ी झिझक भी हुई और ये फ़िक्र भी की कहीं उसका हाथ न छू जाये। ये सब क्या हो रहा था, इतनी दूरी हमारे बीच जानलेवा थी। वो 9:30 आयी थी और आते ही बताया था उसने की 9:45 मैं चली जाऊंगी क्योंकि 10 बजे से उसकी क्लास थी और अभी बातों बातों में समय हो गया था 9:50 उसने समय देखा भी पर न जाने क्यों चलने को नही कहा उसने। शायद, उसे भी चाह थी कि ये वक़्त रुक जाए जब 9:55 हुआ तो उसने जाने को कहा और ये भी कहा "जाने का मन तो नही कर रहा, तुम्हे ऐसे यहां अकेले छोड़ कर जाने का मन नही हो रहा पर कॉलेज ड्रेस में हूँ और ऐसे में यहां रुकना अच्छा नही लगेगा और आज क्लास भी इम्पोर्टेन्ट है" मैं क्या कहूँ समझ नही आ रहा था उसे जाने को कहूँ तो कैसे और रोकूँ तो किस हक़ से। वो थोड़ी देर एकटक मुझे देखती रही और फिर बोली "तुम यहां कब तक रहोगे"

मैंने कहा "करीब 12 बजे तक"

"अगर तुम 1 बजे तक यहां रुको तो मैं कॉलेज के बाद तुमसे मिल के ही घर जाऊंगी" उसकी बातों में ऐसा एहसास था जैसे वो भी चाहती हो फिर से मिलना

"रुकोगे ना" उसने फिर से पूछा

मैंने हाँ में सर हिलाया।

वो बाय बोली और चली गयी।

आज भी हम वैसे ही मिले थे जैसे पहले मिला करते थे करीब 10-20 मिनट के लिए। दरअसल हमारा लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप था तो हम महीने दो महीने पर एक बार मिलते थे। मेरे शहर से उसके शहर की दुरी 12 घंटे की थी मैं ये 12 घंटे का सफर तय करके उससे मिलने जाता था सिर्फ 12 मिनट के लिए। ये समय होता था उसके कॉलेज से उसके घर से तीसरी गली तक आने में लगने वाला समय। सच पूछिए तो इसमें मिलने जैसा भी कुछ नही था हम चलते-चलते बातें कम करते और एकदूसरे को देखते ज्यादा थे और फिर उसे उस संकरी गली के पास छोड़कर आना मेरे लिए कितना मुश्किल होता था ये आप शायद खुद महसूस करे मैं बता पाने में असमर्थ हूँ। मैं उसे तब तक देखता रहता जब तक कि वो गली के पार न चली जाए, हालांकि वो मना करती थी मेरे पीछे न आना कहिं कोई देख न ले लेकिन मैं उससे छुप के उसे उसके घर तक जाते देखता रहता। एक-गली के बाद दूसरी गली और फिर तीसरी गली में मंदिर के पास से छुप कर उसे उसके घर में दाखिल हो जाने पर ही वापस आता था मैं।

आज भी वो आई थी तो बस 20 मिनट के लिए और शायद अभी जब वो कॉलेज से वापस भी आएगी तो बस 10-20 मिनट ही रुकेगी। खैर, समय हो चला था 11:15, अब यहां डॉक्टर के यहां अगला नंबर मेरा था। मेरी बारी आई मैंने डॉक्टर को दिखाया, कुछ ब्लड जांच लिखी थी उन्होंने वो कराते समय हो गया 12:30। क्लिनिक से मैं निकला और पास में ही एक बारबार शॉप में चला गया, सेविंग बनवाया और वहीं पास में बैठे मोची से जूता पोलिश कराया, आज से पहले ऐसा कभी नही हुआ था पर आज न जाने क्यों उसके सामने मैं खुद को ठीक करने में ही लगा रहा, कैसा दिख रहा हूँ, बाल तो ठीक है, कपडे तो ठीक है। ऐसी फ़िक्र पहले कभी उसके सामने आने में नही हुई। वहां से निकला और वहीं पास के रेस्टॉरेंट में मैं उसका इंतज़ार करने लगा, उसने वहीं मिलने को कहा था।

ठीक 2 बज के 10 मिनट , वो मेरे सामने थी। धुप बहुत तेज थी और मेरा चेहरा बिल्कुल लाल हुआ पड़ा था, हालांकि मैं वहां पेड़ की छाव में था पर।

"तुम अंदर बैठ के भी मेरा इंतज़ार कर सकते थे, तुम्हारी तबियत वैसे ही ठीक नही है और ऊपर से इतनी धुप में यहां खड़े हो, चलो अंदर चलो" वो लगभग मुझे डांटते हुए बोली। उसकी ये फ़िक्र, ये अपनापन, ये मुझ पर हक़ जाताना ये देख मैं पसीझ गया।

उसे कैसे समझाता कि आज उसका इंतज़ार मेरे लिए कितना मुश्किल था, मैं दरअसल अंदर जाके बैठा था पर बार बार मन में एक अजब सी बेचैनी होती और मैं उठ के जाता देखने वो आयी की नही, पिछले 20 मिनट में मैं कोई 25-30 बार बाहर जाके देख चुका था।

"हे भगवान, तुम्हारा शरीर तो तप रहा है, तुम्हे बहुत तेज बुखार है तुमने कुछ खाया है, दवा लिए हो" वो मेरा हाथ पकड़ के रेस्टॉरेंट में अंदर ले जाते हुए बोली।

"यार, तुम आज भी कितने लापरवाह हो, हाँ? ...और आई एम सॉरी यार मेरी वजह से तुम्हे यहां रुकना पड़ा, मैं क्या बोलूं अब, मुझे तुम्हे नही रोकना चाहिए था" उसकी बातों में फ़िक्र भी थी, अपनापन भी, थोड़ी तरस भी और खुद पर उसका गुस्सा भी।

ये फ़िक्र करीब वैसी ही थी जैसी आज से 3 साल पहले हुआ करती थी, मेरी आँखों में आंसू उतर आये, मैं मुह धोने के बहाने वाशरूम चला गया, आज न जाने क्यों एकबार मन भर के रोने का दिल कर रहा था, जैसे मन भारी-भारी सा लग रहा था और जैसे इनकी वजह ये आंसू ही थे जो शायद निकल जाये तो मन हल्का हो जाये।

वक्त कैसे बदलता है और सब कुछ खाक कर जाता है और ये वक़्त ही है जो न सोचा था कभी पल भर में सबकुछ समेट देता है। कभी कभी रिश्तों में दूरियां जरूरी होती हैं। कभी कभी हम बातों को सुलझाने की फ़िराक में उसे और उलझा देते है। खैर, मेरा मानना है जब बातें वश से बाहर जाने लगे तो उसे कुछ समय के लिए यथावत छोड़ देना बेहतर होता है

मैं वाशरूम से बाहर आया, वो वहां टेबल पर बैठी मेरी दवा की पर्चियां, ब्लड टेस्ट के रिपोर्ट्स और दवाइयां देख रही थी।

"तुम्हे डेंगू हो गया था, तुम कितने लापरवाह हो गए हो रचित, क्या हो गया है तुम्हे आज मिले भी इतने दिनों बाद तो ऐसे" चेहरे पर उदासी थी उसके और दूर होने का मलाल भी

"अरे, कुछ नही हुआ है, वो बस थोड़ी तबियत खराब हो गयी थी, और तुम्हे तो पता ही होगा आजकल दिल्ली में तो दौर चल रहा है डेंगू का, बस पता नही कैसे हो गया। फ़िलहाल मैं ठीक हूँ वो थोड़ा बहुत बुखार आ जा रहा है कभी कभी बस।

"ठीक हो तुम, हाँ? ये रिपोर्ट्स मेरे सामने हैं इनमे तो मुझे कुछ ठीक नही लग रहा इतनी दवाइयां है और तुम ठीक हो" वो गुस्साते हुए बोली

"यार, तुमने पहले की रिपोर्ट्स नही देखीं है न इसलिए कह रही हो, वो ठीक है अभी रिकवर हो रहा है, तुम इतनी टेंशन न लो, और कुछ आर्डर करो मुझे बहुत जोर की भूख लगी है"

मैंने उसे समझाते हुए और बात बदलते हुए बोला।

वेटर आया, उसने मेरे लिए 'मिक्स वेज सूप' और अपने लिए नूडल्स आर्डर किया।

"तुम्हारी तबियत नही ठीक है और यहाँ सब ऑयली और जंक फूड ही मिलेगा तो बेटर है तुम सूप लो, ओके" उसने बोला।

"हाँ,ठीक है" मैंने हँसते हुए आर्डर कन्फर्म किया, वेटर चला गया।

उसे नूडल्स आज भी पसंद है, उसकी बाँहों में मैंने आज भी वो पिंक कलर का बैंड देखा, नोज रिंग आज भी पहनी है वो। सारी पसंद तो वही है बस........ खैर, अभी वो मेरे सामने बैठी है और मैं उसे जी भर के देखना चाहता हूँ एक बार जब वो नीचे देख रही हो" और वैसा ही हो रहा है वो फ़ोन में कुछ देख रही है और मैं उसे।

"हं, क्या देख रहे हो" उसने अपनी नज़र ऊपर करते हुए पूछा

"कुछ, नही बस ऐसे ही"

"अरे, ऐसे ही क्या"

"तुम अब और भी ज्यादा खूबसूरत लग रही हो"

"अच्छा, सच्ची"

"हाँ"

"तुम तो वैसे ही लग रहे हो जैसे थे, सच में, बस थोड़े दुबले हो गए हो"

हम दोनों हँसने लगे

वेटर हमारा आर्डर लेके आ गया था।

वो मेरी तरफ हाथ बढ़ाई सूप टेस्ट करने के लिए, फिर थोड़ा ठिठकी और रुक गयी। ये आदत पुरानी थी उसकी मेरे खाने से पहले उसे जूठा करने की पर आज वो .....

"अरे, टेस्ट करो न, मैंने उसकी झिझक को नजरन्दाज करते हुए बोला"

उसने टेस्ट किया "मस्त है एकदम" उसने अपने दूसरे हाथ से इशारा करते हुए बोला।

"तुम भी लोगे क्या नूडल्स, अच्छा थोड़ा सा ले लो, टेस्ट कर लो बस, ओके" उसने एक प्लेट में नूडल्स निकाल के मेरी तरफ बढ़ाया।

"तुम्हे जल्दी तो नही है आज" मैंने पूछा

"नहीं, क्यों"

"बस ऐसे ही पूछ रहा हूँ"

कितना कुछ बदल गया है न हम दोनों की स्थिति कुछ ऐसी है

"कौन कहता है मुलाकात नही होती,

होती है पर अब वो बात नही होती,

बड़ी ख़ामोशी से मिलती है दोनों बेचैन निगाहें,

चाहते है दोनों पर अब वो शुरुआत नही होती"

मैंने एक और सूप आर्डर किया। बहुत सारी बातें हुईं हमारी। अब वक़्त था अलग होने का, अपने-अपने घर जाने का।

"सुनो, धुप बहुत तेज है मैं ऑटो से नही जाना चाहता हूँ, तुम मेरे लिए कैब बुक कर दो न, मेरा फ़ोन ऑफ हो गया है" मैंने उससे बोला

"यार, सॉरी बट मेरा फ़ोन भी डिस्चार्ज है" वो अपना फ़ोन बैग से निकालते हुए बोली

"ये देखो, बस 1 परसेंट चार्ज है" वो उदास होकर मुह बनाते हुए बोली

"ओके, कोई नही मैं चला जाऊंगा, वो न धुप बहुत तेज है इसलिए मैं कह रहा था"

"पहले तुम अपनी दवा लो, और 10 मिनट रुक के फिर जाना" वो दवाइयों के बण्डल से दोपहर की दवाइयां निकालते हुए बोली

"तुम कहो तो मैं तुम्हे अपनी स्कूटी से स्टेशन तक छोड़ दूँ" वो मेरी तरफ देखते हुए बोली

"हं, ठीक है पर धुप......" मैंने कुछ सोचते हुए बोला

"अरे, मैं हेल्मेट लगा लुंगी और तुम मेरा स्टाल बांध लेना अच्छे से और मैं शॉर्टकट रास्ते से ले चलूंगी, गली-गली होके, तुम्हे धुप नहीं लगेगी" वो मुझे समझाते हुए बोली ।

"हाँ, ठीक है फिर" मैंने बोला

उसके चेहरे पर हल्क़ी सी मुस्कान थी

हम बाहर आये उसने स्कूटी से हेल्मेट निकाला, बैग से स्टाल निकाला और मुझे दिया मैंने स्टाल बांध लिया

"अरे ऐसे नही बांधते इसे, तुम्हे कुछ नही आता" उसने मेरे चेहरे से स्टाल खोलते हुए बोला।

आज हमारे बीच सब कुछ वैसे हो रहा था कि हम कभी अलग हुए ही नही थे। उसने अच्छे से मेरे चेहरे पर रुमाल बांधा जिससे कि चेहरा और सर बिल्कुल अच्छे से ढक जाये, कहीं से धुप न लगे।

"ये चश्मा तुम लगा लो" वो मेरी तरफ अपना चश्मा बढ़ाते हुए बोली

"अरे ये लेडीज़ है" मैंने बोला

"अरे, बुद्धू कौन देख रहा है लेडीज़ है या जेंट्स हाँ?, लगाओ तुम चुप-चाप समझे, धुप तेज है आँखों पर धुप लगेगी तो सर दर्द होने लगेगा" उसने चश्मा मेरी आँखों में लगाते हुए बोला।

"चलो, अब बैठो" वो स्कूटी पर बैठते हुए बोली।

मेरे और उसके बीच में दवाइयों का थैला था, उसने अपना बैग अपने आगे पैरो के पास रखा था।

"ये दवाईंयां दो मैं अपने बैग में रख लेती हूँ, वहां चल के ले लेना" उसने मेरे हाथ से दवाइयों का बंडल लेते हुए बोला।

उसने उसे अपने बैग में रखा और हम चल दिए वहां से।

अब भी हम दोनों के बीच में सीट पर इतना गैप था कि कोई एक इंसान बैठ जाए उसमे। सच पूछो तो ये दुरी काट खा रही थी मुझे और शायद उसे भी क्योकिं वो ठीक से बैठने का बहाना करते हुए दूसरी बार थोड़ा पीछे की तरफ खिसक कर बैठ गयी।

थोड़ी दूर चलने के बाद उसने स्कूटी की स्पीड थोड़ी धीरे की और पीछे की तरफ होते हुए रुंधे गले से बोली "रचित, तुम जैसे पहले मेरे साथ बैठते थे आज भी वैसे ही बैठो ना"

कुछ पल के लिए मेरी समझ में कुछ नही आया, मैं एकबार उसे अपनी बाँहों में भीच लेना चाहता था, ये दुरी अब बिल्कुल सही नही जा रही थी। मैं उसके करीब आ गया, उसके कमर पर हाथ रख के लगभग उसे हग करते हुए उसके कंधे पर मैंने अपनी ठुड्डी टिका दी। जैसी सिहरन उसके छूने से मुझे तब हुआ करती थी वो आज भी वैसी ही हो रही थी।

काश! ये दूरियां घट जाती, काश! हम अलग न हुए होते, काश! हम फिर से एक हो जाते, काश! ये सफर ख़त्म ही न होता,...काश!

हम स्टेशन पहुँच चुके थे, मैंने स्टाल खोलते हुए उससे नज़रे नही मिला पा रहा था, हम अलग हुए थे इसमें सिर्फ मेरी गलती तो नही थी, दोनों की कुछ गलतियां थी। अब इसे दूर भी दोनों मिल के ही कर सकते हैं सिर्फ एक से तो नही होगा ये।

मैंने उसके स्टाल को अपनी मुट्ठी में कस के पकड़ते हुए उसे देने के लिए उसकी तरफ बढ़ाया,

"तुम रख लो इसे, धुप बहुत तेज है बस से उतर के घर जाते वक़्त लगा लेना"

उसकी आवाज में भारीपन था और नज़रे नीचे थी।

"तुम उदास क्यों हो, एक बार मेरी तरफ तो देखो न" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला

"तुम तब भी नही समझे, रचित और आज भी नही समझोगे, ऐसे तुमसे दूर रहना मेरे लिए कितना मुश्किल था, आज तुम आये अच्छा लगा, अब तुम जा रहे हो तो मैं रो भी न पाऊं, कैसे?... तुम हमेशा से पत्थर दिल थे आज भी हो, इतने दिनों में कभी याद नही आयी न, मैंने बहुत बार तुम्हारा नम्बर ट्राइ किया पर तुमने तो नंबर ही बदल दिया था, तुम्हे क्या लगता है मैं बहुत खुश थी, नही।।। बिल्कुल नही, तुमने तो शायद किसी और में मुझे ढूंढने की कोशिश भी की होगी पर मैंने कभी कोशिश भी नही की, क्योकिं मुझे पता है मैं तुम्हे कहीं और नही पा सकती" वो रोते हुए अपनी बातें कह रही थी और जब कुछ न कहा गया तो मुझे पकड़ के रोने लगी थी।

मैं उसकी किस बात का जवाब देता, मैं निःशब्द था।

"अरे, क्या कर रही हो यहाँ लोग देख रहे है, चुप हो जाओ, राशि"

"देखने दो, जो देख रहे है। रचित, एक बात और मान लो ना मेरी प्लीज, अब जो आ गए हो वापस, तो मुझे फिर से अकेला छोड़ के न जाओ, अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता...!"


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