GAUTAM "रवि"

Abstract Drama Tragedy

4.0  

GAUTAM "रवि"

Abstract Drama Tragedy

"दवाई"

"दवाई"

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सोमवार का दिन था, दो दिन की छुट्टी के बाद बैंक खुलने के कारण बैंक मैं भीड़भाड़ थी, ऐसे में रामलाल बैंक की सीढ़ियां चढ़ कर आने से हांफ रहे थे और अपनी सांसें समेटने में प्रयासरत थे, इतने में नकद निकासी खिड़की पर लगी भीड़ देखकर वो परेशान हो गए और अपने कंपकंपाते हाथों से मैले से कुर्ते की जेब में हाथ डालकर फटी और बेतरतीब बैंक पासबुक निकाल कर पासबुक छपवाने के लिये आगे बढ़े, उस काउंटर पर कोई नहीं दिखा तो वो परेशान हो बराबर वाले काउंटर पर बैठी महिला को पासबुक दिखाते हुए खाते में मौजूद रुपयों के लिये पूछने लगे, उस महिला ने उनको फटकार कर लाइन में आने को बोल दिया और अपने काम में लग गयीं।


रामलाल जल्दी से लाइन में लगे और अपनी बारी का इंतजार करने लगे, अपनी बारी आते ही उन्होंने फटी हुई पासबुक काउंटर पर बैठी महिला को दे दी और उसकी तरफ आशा भरी निगाहों से देखने लगे। बैंककर्मी ने नाक मुँह सिकोड़ते हुए रामलाल को देखा और बताया कि खाते में सिर्फ़ 157 रुपये ही शेष हैं। रामलाल ये सुनकर एकदम दुखी हो गये और मन ही मन बुदबुदाये "श्यामू ने पैसे नहीं भिजवाये अभी तक, उसने तो कहा था कि पिछले हफ्ते ही भेज दिये थे।" 


67 साल के रामलाल, अपनी पत्नी शीला के साथ गांव में रहते हैं, उनका बड़ा बेटा श्यामू शहर में किसी कारखाने में काम करता है और छोटा बेटा रामू एक दुकान में काम करता है, खेत के नाम पर जो थोड़ी सी जगह है वह इनकी गुजर बसर करने लायक तो है पर बढ़ती उम्र के साथ तरह तरह की बीमारियों ने उनके खर्चे भी बढ़ा दिये हैं, जिनको पूरा करने में रामलाल अपने खेत से होने वाले आमदनी के अलावा बेटों के भेजे गये पैसों पर निर्भर हैं। बेटे यूँ तो समय समय पर पैसे भेजते रहते हैं पर इस बार शीला का पैर फिसलकर गिर जाने से अस्पताल और दवाइयों का खर्चा कुछ ज्यादा ही हो गया था। दोनों बेटों की शादी कर वो अपनी चिंताओं से मुक्त महसूस करते थे, पर समय के साथ बढ़ते परिवार और उनकी बढ़ती जिम्मेदारियों ने उनके बेटों को शहर जाने को मजबूर कर दिया था। रामलाल जी के दोनों बेटे यूँ तो अपने माता पिता की खूब सेवा करना चाहते थे और उनको खुश भी रखना चाहते थे, पर आर्थिक हालात ठीक ना होने के कारण दोनों परेशानी में समय निकाल रहे थे और पिछले हफ्ते ही श्यामू ने भी पिता के बिना कहे ही पैसे भिजवा दिये थे परंतु वे किसी तकनीकी कारण से रामलाल के खाते में नहीं आ सके थे, और श्यामू ने वापस ध्यान नहीं दिया। रामलाल को भी अपने बेटों से पैसों के लिये कहना अच्छा नहीं लगता था, वो जानते थे कि शहर का रहन सहन और परिवार का पालन पोषण करना इस महंगाई के दौर में आसान नहीं है। वो परेशान हो गये थे ऐसी तकलीफ़ में जीते जीते, और परेशानियां थीं कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं।


अब रामलाल परेशान खड़े सोच रहे थे कि कैसे शीला की दवाई का इन्तजाम किया जाये, वृद्ध भले थे पर पुरुष थे, तो रुआंसे होकर भी रो नहीं सकते थे। रामलाल ने एक लम्बी साँस ली और कुछ सोचकर वहां पास में खड़े एक युवक को अपने लिये पैसे निकालने वाली पर्ची भरने को कहा, जब नौजवान ने पूछा कि कितने पैसे निकालने हैं, तो रामलाल की आंखों में पानी गया और वो बोले "एक सौ निकालने हैं बेटा।"


रामलाल पैसे लेकर शीला के लिये दवाई की शीशी लेते हुए घर पहुँचे तो बीमार रहने वाली कराहती हुई शीला उनको देख मुस्करा उठी और बोली, "आ गए आप।"

रामलाल का हृदय शीला की आंखों में चमक देखकर द्रवित हो उठा पर उन्होंने खुद को संभालते हुए मुस्कुराकर कहा, "हाँ और दवाई भी ले आया हूं अब ठीक हो जायेगी तू।"

इतना कहकर रामलाल ने घड़े में से पानी निकालकर पिया और एक कटोरी में पानी लेकर उसमें दवा डालते हुए शीला को देते हुए बोले, "ये ले अब ठीक हो जायेगी तू, पी ले इसे।"

शीला ने दवाई पी और रामलाल ने उसको आराम से लिटा दिया, जब रामलाल को लगा कि शीला की पलकें अब भारी होने लगी हैं, रामलाल ने भी वही दवा पी और वहीं लेट गये और सो गये दोनों हमेशा के लिये चिर निद्रा में अपने सभी दुख, चिंताओं और परेशानियों से दूर।

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