दुर्वासा का श्राप
दुर्वासा का श्राप
शकुन्तला और दुष्यंत की प्रेमकथा-"अभिज्ञानशाकुन्तलम्"
कालिदास की कीर्ति में चार चाँद लगाने वाला जगत प्रसिद्ध यह नाटक छवि को बहुत पसंद था ।
कई दफ़ा पढ़ चुकी थी वह इसे और हर बार जब भी दुर्वासा ऋषि द्वारा शकुन्तला को श्राप देने का प्रसंग आता था, छवि की आँखे भर आती थी..
जिसे बेपनाह प्यार करो, वो ही हमें भूल जाए, ऐसा भयानक श्राप !
पर पुनः श्राप समाप्ति बाद शकुन्तला दुष्यन्त का पुनर्मिलन उसके चेहरे पर मुस्कान ले आता ।
उपन्यास, नाटक, कहानी, कविताएं..साहित्य ही उसके अकेलेपन का साथी था ।
अकेली ही थी छवि..महानगर में रहकर नौकरी कर कर रही थी, अंतर्मुखी होने की वज़ह से ज्यादा दोस्त भी नहीं थे उसके।
सुबह से शाम दफ्तर में और उसके बाद अपने फ्लैट में.. बस ऐसे ही बीत रहा था समय।
एक दिन उसे सोशल मिडिया पर एक अनजाने शख़्स की फ्रेण्ड रिक्वेस्ट आयी, पहले तो छवि ने उसे अनदेखा किया पर फिर एक दिन उसका अकाउंट चेक कर देखा ।
अच्छा बंदा था.. सिंपल सा, सोबर पर्सन..
छवि को सब सही लगा तो उसने रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली और धीरे-धीरे बातचीत शुरू हो गयी, लडके का बात करने का ढंग काफ़ी प्रभावी था, छवि को वह पसंद आया
बातें-मुलाकातें..सुहाने दिन-हसीन रातें..
मेड फाॅर इच अदर..'जैसा फिल्मों में होता है हो रहा था रूबरू'...
और फिर जैसा अमूमन होता आया है, लड़के का व्यवहार बदलने लगा..प्यार की जगह तकरार ने ले ली और फिर छोड़ गया वो छवि को हमेशा के लिए..
छवि को समझ नहीं आया कि उसकी प्रेम कहानी में तो कोई दुर्वासा ऋषि नहीं थे फिर किसका श्राप लगा जो उसका प्रियतम उसे ऐसा भूला कि लाख सर पटकने पर भी प्रेम की कोई स्मृति उसे याद नहीं.. जिसे बेपनाह प्यार करो वो ही हमें भूल जाए, ऐसा भयानक श्राप !!
दुष्यंत को तो अंगूठी देखकर शकुन्तला का पुनः स्मरण हो गया था पर छवि का दुर्भाग्य, वो "ब्लाॅक" हो गयी थी..!