दुर्गा

दुर्गा

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दुर्गा कोई 7-8 बरस की होगी, बुद्धि, बल, रूप अपने नाम का यथार्थ चित्रण।

चिड़िया की तरह चहकती, फुदकती, सबको मोहती दुर्गा। अनाथ थी, चाची-चाचा ने उसे ऐसे अपनाया मानों उनकी अपनी संतान हो। निःसंतान दम्पत्ति के लिए वो सपनो की दुनिया थी। चाचा का अपार स्नेह और चाची के स्नेहिल अनुशासन में उसे माता-पिता का अभाव महसूस ही नहीं हुआ।

दुर्गा के चाचा का गाँव, दूसरे गाँवों की तरह था, कम आबादी का, किसानी का काम, समय पर लहलहाती फसलें, फिर सूखे खेत, एक शिवाला, एक नदी, जो बरसात में बहकर इठलाती और बाद में पतली सी लकीर की तरह बहती। एक सरकारी प्राथमिक पाठशाला भी था, शिक्षक भी था, 25 से 30 बच्चे कक्षा 1 से 4 पढ़ते थे। दुर्गा दूसरी कक्षा में पढ़ती थी।

जैसे सरकारी स्कूल होते हैं, न बच्चों के बैठने की व्यवस्था, न पीने के पानी, शौचालय तो बहुत दूर की बात है।हाँ शिक्षक बच्चों को मेहनत से पढ़ाते। दुर्गा सबकी प्यारी थी। पढ़ने भी भी अव्वल, शाला की सफाई का जिम्मा भी उसी का था। हाँ तो, सरकारी शाला कम साधनों में भी व्यवस्थित चलती थी। गांव के लोग भी साधन उपलब्ध कराते। किसी ने व्हाइट वाश कर दिया, कोई ब्लैक बोर्ड पेंट करवा देता। सरस्वती की प्रतिमा भी गांव वालों की मेहरबानी से स्थापित हो गई।

इन्हीं में एक थे रतन लाल। 50 की उमर होगी, सुदर्शन, बाल बच्चों वाले गृहस्थ। किसानी नहीं करते थे, ब्याज बट्टे पर पैसा उठाते थे। लक्ष्मी प्रसन्न थीं उन पर, शिक्षा के प्रति बड़ा आदर भाव रखते थे। पीने के पानी की 4 स्टील की टँकियाँ उन्होंने ही रखवाई। किसी भी बात की आवश्यकता हो तो कहना, ऐसा अक्सर शिक्षक से वो कहते। रोज स्कूल का एक चक्कर लगाना उनका नियम था। बच्चे भी उनसे घुल मिल गए थे। ऐसे ही 1 दिन वे नियमानुसार शाला पँहुचे, किसी कारण वश स्कूल में छुट्टी हो गई थी पर दुर्गा शाला को व्यवस्थित करने में मस्त थी।

दुर्गा चल मैं अपनी बाइक से तुझे घर पहुँचा दूँ। धूप बहुत तेज है, नदी की तरफ से चलेंगे जल्दी पहुँचेंगे। रतन लाल ने कहा। मैं अपना काम कर लेती हूँ। थोड़ा सा रुक जाओ काका, फिर चलते हैं, दुर्गा ने जवाब दिया। वह तेजी से हाथ चलाने लगी। जाने पहचाने काका, इनकार की कोई गुंजाइश ही नहीं। कुछ समय बाद दोनों ही नदी के किनारे थे। इलाका बहुत सुनसान था, धूप तेज। नदी की पतली धार में सूरज की किरणें चमक रही थी।रतनलाल ने गाड़ी रोक दी। दुर्गा ने प्रश्नसूचक निगाहों से काका को देखा। कुछ नहीं बिटिया, जरा पसीना पोंछ ले। आओ पेड़ के नीचे तनिक सुस्ता ले ।कहते हुए रतन लाल पेड़ के नीचे रखी पटिया पर बैठ गया और दुर्गा को भी अपने करीब बैठा लिया। नदी को छूती हवा, पेड़ के पत्तों को पंखे की तरह हिलाती मानों किसी अनहोनी का आगाज कर रही हो। रतनलाल का चेहरा धीरे-धीरे बदलने लगा। वात्सल्यता की जगह कुटिलता ने ली। उसके हाथ दुर्गा के सिर से होता हुआ गर्दन, पीठ, और फिर अन्य अंगों के स्पर्श को बढ़ने लगा। कहते हैं नारी जाति में 5 इंद्रियों के अतिरिक्त छठवां सेंस भी ईश्वर ने दिया जिससे वो भावी दुर्घटनाओं को भाँप लेती है। दुर्गा खुद को असहज महसूस करने लगी। उसने धीरे से रतनलाल के हाथों को अपने हाथों में लिया। रतनलाल कुछ और ही समझ बैठा मुस्कराने लगा। दुर्गा ने उसके हाथों को और कस कर पकड़ा, बेखबर रतन लाल कुछ समझता इससे पहले ही दुर्गा ने उसकी कोहनी के नीचे मांसल हाथों में अपने नुकीले, पैने, दूध के दाँत गड़ा दिए, किसी हथियार की तरह घोंप दिए। रतन लाल दर्द से चीख पड़ा। उसकी चीख की आवाज इतनी तेज थी कि नदी के उस पार घाट पर कुछ औरतें कपड़े धो रही थी।

उठकर खड़ी हो गईं और वहीं से चिल्लाईं, का हुआ। रतनलाल उठा और बिना दुर्गा की ओर देखें गाड़ी उठाई और चल दिया। दुर्गा के मुँह में खून लगा हुआ था। वह घर पहुँची, चाची ने पूछा, मुँह में खून कैसे लगा, दुर्गा बोली, एक दाँत टूट गया चाची।


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