Dr Lakshman Jha "Parimal"Author of the Year 2021

Inspirational

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Dr Lakshman Jha "Parimal"Author of the Year 2021

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दुमका संस्मरण 2 ( सिनेमा हॉल )

दुमका संस्मरण 2 ( सिनेमा हॉल )

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वैसे मेरा जन्म 1951 में दुमका में हो चुका था। होश संभालते ही मैंने दुमका का एक मात्र सिनेमा हॉल को काफी करीब से देखा। इस सिनेमा हॉल को “ज्ञानदा टॉकीज” कहते थे। बताया जाता था कि यह हॉल बहुत पुराना हुआ करता था। मेरे घर से यह बिल्कुल करीब था। दुमका की आबादी बहुत कम थी। ध्वनि प्रदूषण नहीं था। इसलिए फिल्म शुरू होने से पहले गाने लाउड स्पीकर की सुनाई देती थी। कभी -कभी तो फिल्म का संवाद भी सुनाई देता था। उन दिनों मनोरंजन के साधनों में सिनेमा को काफी प्रभावी मना जाता था। लोगों में शर्त लगती थी हारने पर सिनेमा दिखाना पड़ता था। कोई अतिथि आ जाते थे तो उनको सिनेमा दिखलाकर मनोरंजन करना पड़ता था। ड्रामा, नाटक, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नटुआ नाच, मज़मा, सर्कस, खेल -कूद, कव्वाली प्रतियोगिता, थिएटर, जादू इत्यादि मनोरंजन के साधन के बावजूद सिनेमा का महत्व अलग ही था। बॉक्स क्लास के एक रुपये, प्रथम क्लास के बारह आना, सेकंड क्लास के आठ आना और थर्ड क्लास के चार आना के टिकट बड़े जद्दो जहद से लेना पड़ता था। कभी -कभी मार भी हो जाती थी। जो जीता वही सिकंदर। जो नहीं देख पता उसे देखकर आने वाला को दूसरे को कहानी सुना देता था। और इस तरह सबका मनोरंजन हो जाता था। बाद में 1964 में दुधानी में दूसरा सिनेमा हॉल “सरोजिनी टॉकीज” खुल गया। सरोजिनी टॉकीज बाद में “अमरचित्र मंदिर” कहलाने लगा। जब नया सिनेमा हॉल बना तो उसका नाम “मिनी अमर” रख दिया गया। अब ज्ञानदा टॉकीज नहीं रहा। दुमका में अब सिर्फ “मिनी अमर” है। आज पर्याप्त मनोरंजन की सुविधाएं उपलब्ध हैं। इन परिवेशों में सिनेमा सिसक रहा है और हमारी सामाजिक व्यवस्था भी चरमरा रही है।


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