"दुमका दर्पण " (संस्मरण -प्राइमेरी स्कूल -(1958)
"दुमका दर्पण " (संस्मरण -प्राइमेरी स्कूल -(1958)
दुमका एक छोटा शहर पहाड़ियों के बीच जंगलों से घिरा बड़ा ही मनोरम स्थान माना जाता था। लोग एक दूसरे को जानते और पहचानते थे। किसी अजनबी को अपनी मंज़िल तक पहुँचाने में यहाँ के लोग निपुण थे। कोई पत्र के पते पर यदि सिर्फ नाम और दुमका लिखा होता था तो डाकिया उसके गंतव्य स्थान पर पहुँचा देते थे। उन दिनों जिला नगरपालिका की ओर से कुछ प्राथमिक स्कूल खोले गए थे जिन्हें तत्कालीन अविभाजित बिहार राज्य से वित्तीय अनुदान भी दिये जाते थे। दुमका शहर में -1 "धोबिया स्कूल",2 मोनी स्कूल,3 करहलबिल स्कूल, 4 मोचीपाड़ा स्कूल ,5 बेसिक स्कूल,6 करहलबिल स्कूल और7 हटिया स्कूल थे। लोगों में पढ़ने और पढ़ाने की अभिरुचि के अभाव में बच्चे बहुत कम दाखिला लेते थे। जागरूकता के आभाव में लड़कियाँ पूरे क्लास में एक या दो ही मिलतीं थीं।1958 में मैंने "हटिया स्कूल" में दाखिला लिया। यह स्कूल मुख्य दुमका के मध्य में स्थित था। कहचरी ,प्रशासन और दुमका नगरपालिका के बीचों -बीच यह स्कूल था। कच्ची मिट्टी की दीवार और मिट्टी के खपड़े से इसका निर्माण किया गया था। जमीन मिट्टी की थी। हमलोग जमीन पर ही बैठते थे। उस समय तीन ही कमरे थे। दो क्लास एक साथ बैठ जाता था। हमारे हेड्मास्टर श्री अनंत लाल झा थे और तीन शिक्षक एक श्री महेश कान्त झा और दो और थे। क्लास रूम में एक कुर्सी और एक टेबल सिर्फ शिक्षक के लिए था और सब विद्यार्थी जमीन पर बैठते थे। हरेक शनिवार को क्लास के विद्यार्थी गाय के गोबर से सारे क्लास की लिपाई करते थे। लड़कियाँ लिपाई करतीं थीं ! लड़के गोबर इकठ्ठा करते और दूर से पानी बाल्टी में भर कर लाते थे। बिजली नहीं होने के कारण गर्मियों में हरेक बच्चों की ड्यूटी लगती थी। शिक्षक के पढ़ाने के समय एक विद्यार्थी को अपने शिक्षक को पंखा झेलना पड़ता था। यदि कोई लड़का थक जाता था तो दूसरा लड़का उसका स्थान लेता था। पानी पीने के लिए दूर कुएं से पानी लाना पड़ता था। स्कूल में मिट्टी के मटके रखे रहते थे। टॉइलेट हमारे स्कूल में नहीं था। हमें स्कूल से निकलकर दूर जाना पड़ता था। जो नजदीक के बच्चे होते थे वे हाफ टाइम में अपने घर कुछ खा कर आ जाते थे। मैं तो 2.5 किलोमीटर दूर से आता था। मेरे पिता जी कुछ लेकर आ जाते थे। स्कूल बैग के बिना ही सब स्कूल आते थे। अपने -अपने हाथों में किताब और कॉपी साथ लाते थे।हरेक शनिवार को अपने गुरुजी के लिए शनीचरा लाना पड़ता था ! अधिकाशतः एक दो पैसा हुआ करता था। गुरुदेव को शनीचरा मिलने से बच्चों का ग्रह मिट जाता था अन्यथा समयानुकूल नहीं देने वाले छात्रों को उनकी गलतिओं पर छड़ी की मार अधिक झेलनी पड़ती थी ! जान बूझकर स्कूल नहीं जाने पर गुरु जी चार - पाँच हट्टे -कठठ् लड़कों को उसके घर भेज कर उसे उठाकर लाते थे। एक बार 1960 में मैं बहुत जोर से बीमार पड़ गया था। स्कूल के अधिकांश बच्चे मुझे देखने आए साथ- साथ शिक्षकगण भी आए।80 के दशक के बाद हमारा दुमका निरंतर अपनी बुलंदिओं को छूता चला गया ! गवर्नमेंट स्कूल ,प्राइवेट इंग्लिश मिडियम स्कूल ,कॉलेज ,यूनिवर्सिटी ,मेडिकल कॉलेज ,इंजीनियरिंग कॉलेज ,डिप्लोमा इंजीनियरिंग पाली टेकनीक,सड़क,विजली ,पानी इत्यादि से परिपूर्ण होता गया परंतु अपनापन नहीं रह सका।