दस्तूर - भाग-7
दस्तूर - भाग-7
दस्तूर – भाग-7
मिर्ज़ा ने उसके बाद रुखसार की बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था. करीब एक-डेढ़ महीने बाद उनका 2 दिन की छुट्टी पर सौघरा आना हुआ, तब वह समय निकालकर रुखसार के कमरे में गये. रुखसार अपने बिस्तर पर आराम फरमा रहीं थी, और उनके आगे सेब और अंगूर से भरी एक प्लेट रखी थी, जिसमे से वह सेब काटकर खा रहीं थीं. मिर्ज़ा उनके पास आकर बैठे तो उन्होनें मिर्ज़ा को भी सेब का एक टुकड़ा दिया और मुस्कुराकर कहा "काफी समय बाद छुट्टी मिल पायी मिर्ज़ा आपको ?"
"जी आपा, अब काम ज़्यादा रहता ही है दफ्तर में, फिर हम लोग अपना कारोबार भी वहाँ लगाएंगे अब....तो उसकी भी कुछ भाग-दौड़ रहती है." मिर्ज़ा ने कहा.
"वही तो!!....भाग-दौड़ आप करें और...." इतना कहकर वह चुप हो गयीं और सेब खाने लगीं. कुछ देर बाद भाई-बहन की बातों-ही-बातों में मिर्ज़ा ने रुखसार की उस फोन कॉल का ज़िक्र किया और कहा "बताएं आपा, ऐसी क्या बात थी जो आप हमें फोन पर नहीं बता सक रही थीं ?"
रुखसार ने मिर्ज़ा को एक सेब की फाँक दी और चुप रहने को कहा और अपने बिस्तर से उठ कर दरवाज़े के पास गयीं. दरवाज़ा खोलकर दोनों ओर देखा और फिर दरवाज़ा बंद कर के वापस अपने बिस्तर पर आ बैठीं. रुखसार ने कुटिल मुस्कान के साथ अंगूर खाते हुए कहा "दीवारों के भी कान होते हैं......ध्यान रखना चाहिये."
मिर्ज़ा अपनी बहन को देख रहे थे.
रुखसार ने फिर धीमी आवाज़ में बताना शुरु किया "हमने आपको ये बताया था कि अब्बा हुज़ूर अपना जानशीन चुनने के ख्वाहिशमंद है, और इस बाबत उन्होनें बड़ी आपा, और अली साहब से बाकायदा लम्बी गुफ्तगू की थी...." फिर वह सेब खाने लगीं.
मिर्ज़ा ने कहा "जी, यह बताया था आपने."
रुखसार ने आगे कहा "......बड़ी आपा और अली साहब से जो बात हुई, उसका लुब्ब-ओ-लुआब मैं जो निकाल पायी हूँ वो ये है कि अपने चार बेटों में अब्बा हुज़ूर दो बेटों को इस काबिल समझते हैं कि उन्हे इस कम्पनी और खानदान की कमान दी जा सके........उन्हीं दो में से कोई एक ही उनका जानशीन होगा......हाँलाकि अभी वह किसी आखिरी नतीजे पर पहुँचे नहीं है, मगर हाँ, बात यही है."
मिर्ज़ा ने पूछा "कौन-कौन से दो बेटे ?"
रुखसार ने मुस्कुराकर कहा "फरीद भाईजान और मिर्ज़ा हैदर, यानि कि आप." फिर उन्होनें सेब की एक और फाँक अपने भाई की ओर बढ़ाई.
मिर्ज़ा ने सेब खाते हुए कहा "ह्म्म्म्म......और मुराद और शुज़ा ?"
"नहीं, उन दोनों के नाम पर न तो आपा ने कुछ कहा, न तो अली साहब ने. आपा और अली साहब की बातों में भी आप दोनो का ही ज़िक्र था."
"अच्छा." मिर्ज़ा ने सिर्फ इतना ही कहा.
रुखसार ने आगे कहा "...और उसमें भी, जो मुझे सुनकर समझ में आया वो ये कि आपा और अली साहब दोनों ही फरीद भाईजान को आपके ऊपर तरज़ीह देते नज़र आ रहे थे."
"ऐसा कैसे कह सकती हैं आप ?......कोई खास वजह नज़र आती है आपको इस बात की ?" मिर्ज़ा ने पूछा.
रुखसार ने कहा "ये मैं नहीं कह रही हूँ मिर्ज़ा.....आपा और अली साहब की बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा, वही मैं आपको बता रही हूँ."
"मतलब ?"
"मतलब यह कि आप और अली साहब दोनों के मुताबिक़ मिर्ज़ा यानि आपके और फरीद भाई के तौर-तरीकों और सोच में एक बुनियादी फर्क है."
"कैसा फर्क ?"
"उन दोनों ने अब्बू को ये बताया है कि कारोबार और घर-परिवार, दोनों जगह ही ज़्यादा सख्ती की बजाय ज़्यादा लचीलापन होना ज़रूरी है. उन्होनें कहा कि मिर्ज़ा काफी सख्त हैं, और उनकी सोच और तौर-तरीके कभी-कभी गैर-अमली भी हो जाते हैं, इसके उलट फरीद नरम हैं और लोगों को अच्छी तरह सुनते-समझते हैं, और सभी को साथ लेकर चलने में कामयाब रहते हैं. कारोबार में इसकी बेहद अहमियत होती है."
मिर्ज़ा सुन रहे थे.
"उन दोनों के साथ-साथ अब्बू का भी यह मानना था कि फरीद कारखाने के मामूली से स्वीपर, ट्रक ड्राइवर से लेकर लखनऊ, जयपुर, कलकत्ते तक के बड़े कारोबारी साझीदारों को बाकायदा नाम से जानते हैं, और न सिर्फ जानते हैं, बल्कि उन सबसे फरीद भाईजान के बड़े अच्छे रिश्ते भी बने रहते हैं जिसकी वजह से कारोबार में सहूलियत होती है......उन्होनें कहा कि दफ्तर में किसके घर कौन बीमार है, किसके घर पर शादी है, किसके घर नाती-पोता पैदा हुआ है, फरीद को सारी जानकारी रहती है और फरीद सभी के खुशी और गम में बराबर शरीक़ रहते हैं......"
मिर्ज़ा खामोश थे.
".......वह किसी भी छोटे से आदमी को भी यह महसूस नहीं होने देते कि वह तनख्वाह देने वाले मालिक हैं और वह आदमी एक मामूली सा स्टाफ है, जो उनके रहम-ओ-करम पर है. इसके उलट मिर्ज़ा की फितरत डंडे के ज़ोर पर काम लेने की है, और वह फरीद की तरह रिश्तों की बारीकियाँ उतनी नहीं समझते, जितना उन्हें समझना चाहिये......वह इस बात को नहीं समझते कि कारोबार में स्टाफ को खुश रखना, उन्हे प्यार और इज़्ज़त देना कितना ज़रूरी है......उन दोनों ने अब्बू से कहा कि मिर्ज़ा सबको साथ लेकर नहीं चल सकते हैं, उनकी फितरत अपनी धुन में अपना काम लगातार करते जाने की है."
लम्बी साँस छोड़ते हुए मिर्ज़ा बोले "मतलब ये कि घर और कारोबार की बेहतरी के लिये इतना कुछ करके भी मैं घर के बड़ों की नज़र में नाकाबिल ही रहा."
रुखसार ने कहा "ऐसा नहीं है कि उन्हें आपकी अच्छाईयाँ नहीं दिखीं. अली साहब ने साफ कहा कि कारोबारी समझ, और मजबूत फैसले लेने की ताकत मिर्ज़ा के भीतर फरीद से कहीं ज़्यादा है. 10-12 सालों से आई.सी.एस. होने की वजह से, और इंतज़ामियत में ऊँचे ओहदे पर होने की वजह से भी मिर्ज़ा की पहुँच और ताकत बहुत ज़्यादा है जो कारोबार के लिये बहुत ज़रूरी है…..लेकिन अली साहब ने कहा कि फरीद ज़्यादा लचीले हैं और सभी को खुश रखने और सबको साथ लेकर चलने की अपनी फितरत की वजह से वह कारोबार और घर-परिवार के लिये वही ज़्यादा बेहतर साबित होंगें."
मिर्ज़ा ने प्लेट में से सेब की एक फाँक उठाते हुए कहा "....अगर ऐसा ही था तो कानपुर और माधवपुर वाला मसला भी सुलझा लिया होता फरीद भाई ने.....फिर मिर्ज़ा की क्या ज़रूरत थी लखनऊ जाने की ?...."
रुखसार मिर्ज़ा की ओर देख रही थी.
"....और अगर ऐसा ही था, तो दिल्ली और पंजाब में किसके दम पर कारोबार जमाने की बात अब्बू और अली साहब सोच रहे हैं ?" मिर्ज़ा ने कुछ चिढ़कर कहा.
रुखसार अभी भी चुप थी. कभी-कभी चुप रहना ही अच्छा होता है.
"यहाँ लखनऊ, दिल्ली, पंजाब में दौड़ लगाते हम फिरें, और जब ईनाम देने की बारी आये तो फरीद भाई माल लूटकर ले जायें.........ये तो नाइंसाफी है आपा." मिर्ज़ा ने कहा.
रुखसार ने कहा "वही तो मैं कह रही थी!!......कि सारी दौड़-भाग आप करें और...." फिर से वह चुप हो गईं.
"पिछले दस-बारह सालों में हमारी दी गयी सलाहों का कारोबार को कितना फायदा हुआ है, क्या ये नहीं दिख रहा अब्बू और अली साहब को ?" मिर्ज़ा ने पूछा जिसके जवाब में उन्हें रुखसार की खामोशी ही मिली.
कुछ देर खामोश रहने के बाद मिर्ज़ा ने पूछा "वैसे आपा, अगर मैं आपसे पूछूँ तो आप की क्या राय है इस बारे में ?"
"मेरी सीधी राय है कि जो इंसान कारोबारी समझ में माहिर है, मज़बूती से फैसले करता है, मुश्किल मसले सुलझा सकता है और ताकतवर भी है, उसे ही जानशीन बनाया जाना चाहिये......"
मिर्ज़ा सुन रहे थे.
".......आप की सलाहों पर अमल करके पिछले 10-12 सालों में कारोबार में काफी मुनाफा हुआ है, यह बात अली साहब ने भी मानी है. मैं भी यही कहती हूँ कि जब आपने अभी तक कारोबार में सीधे शामिल न होकर इतना फायदा कम्पनी को दिया है, तो जब असली ताकत आपके हाथ में होगी तब तो हमारी कम्पनी, हमारा कारोबार नई ऊँचाइयाँ छुएगा........इसलिये जानशीन आपको ही बनाया जाना चाहिये, फरीद भाईजान को नहीं. लेकिन......" इतनी बात कहकर रुखसार अचानक चुप हो गयी.
"लेकिन क्या आपा ?...रुक क्यों गयीं आप ?" मिर्ज़ा ने पूछा.
"….लेकिन इस घर में हमारी बात की वक़त नहीं है मिर्ज़ा. घर में वक़त तो अली साहब और बड़ी आपा की बात की है." रुखसार ने आँखें नीचे करते हुए, उदासी भरी आवाज़ में कहा.
मिर्ज़ा चुप थे. रुखसार ने फिर कहा "...हमें तो इस लायक भी समझा नहीं गया मिर्ज़ा कि हमारे अब्बू हमें ये बताएं कि वो जानशीन चुनना चाहते हैं और इसके लिये आपा और अली साहब को बुलाया है......बल्कि जब मैं वहाँ चाय लेकर पहुँची तो अब्बू तो अली साहब से चुप रहने का भी इशारा किया.....मतलब वह ये चाहते ही नहीं हैं कि मुझे कुछ भी पता चले. बड़ी आपा, मेरी अपनी बड़ी बहन ने भी मुझे कुछ नहीं बताया......ये तो औकात हैं हमारी." रुखसार की निगाहें अभी भी नीचे ही थी और आवाज़ में दर्द भरा हुआ था.
मिर्ज़ा खामोश थे.
"...और तो और मिर्ज़ा, बड़ी आपा से तो इन्होनें यहाँ तक कहा कि हमारी दो बेटियाँ हैं, हमने दोनों की शादी की, एक ने अपना घर-परिवार खुशहाल रखा है, जबकि दूसरी हमेशा ससुराल में छोटी-छोटी बात पर झगड़ा करके अपने मायके आ जाती हैं......इसलिये रुखसार से ये बात नहीं की जा सकती."
मिर्ज़ा ने अपनी आपा का हाथ अपने हाथ में ले लिया.
दु:खी होकर रुखसार ने कहा "सोचिये मिर्ज़ा, जब यहाँ हमारी ऐसी हालत है कि घर में होकर भी हमें कुछ बताया नहीं जाता, और हमेशा पीठ-पीछे हमारी बे-इज़्ज़ती की जाती है, ऐसे में हमसे राय भी कोई क्यों लेगा और हमारी बात भी कोई क्यों ही मानेगा ?"
मिर्ज़ा चुप थे.
"...हमें इसीलिये आपकी फिक्र है.....आपके साथ वैसा न हो जैसा हमारे साथ हो रहा है, इसलिये उस दिन हमने आपको फोन करके बताया भी था और आज मैं आपको सारी बात बताकर फिर से आगाह कर रही हूँ."
मिर्ज़ा उनकी ओर देख रहे थे. रुखसार ने कहा "....जब तक अब्बू हैं, तब तक तो ठीक माना जा सकता है, लेकिन अब्बू के जाने के बाद फरीद भाई और बड़ी आपा के रंग-ढंग क्या होंगें, कुछ कहा नहीं जा सकता है."
अब तक चुप रहे मिर्ज़ा ने फिर पूछा "फरीद भाई, या शुज़ा या मुराद को कुछ भी पता है इस बाबत ?"
"किसी को कुछ भी नहीं पता है अभी तक सिवाय अली साहब, और बड़ी आपा को छोड़कर.....और पता कहाँ से लगना ? अब्बू ने कभी किसी से कोई ज़िक्र ही नहीं किया. उन्होने बस बड़ी आपा और अली साहब को बुलाया और बात कर ली.....मुझे तो इत्तेफाक़ से ही पता चला वरना मुझे ही कौन सी खबर लगनी थी ?"
मिर्ज़ा सुन रहे थे. रुखसार ने कहा "...और बड़ी आपा और अली साहब से भी अब्बू ने तब बात की जब आप और फरीद भाई दिल्ली में थे, और मुराद और शुज़ा कारखाने में.....मतलब वो चाहते ही नहीं थे कि आपको या किसी को कुछ भी पता लग सके."
मिर्ज़ा ने पूछा "तो अब हमें क्या करना चाहिये ?....आपकी क्या राय है ?"
"मेरे ख्याल में आप, शुज़ा और मुराद को मिलकर ही कुछ करना चाहिये. आप तीनों एक तरफ रहेंगे तो शायद अब्बू अपने फैसले पर फिर से सोचेंगे." रुखसार ने कहा.
"लेकिन शुज़ा और मुराद तो दौड़ में ही नहीं हैं आपा, वो हमारे साथ क्यों आयेंगे ? मिर्ज़ा ने पूछा.
"दौड़ में नहीं हैं वो दोनो ये बात सही है, लेकिन आपको उन्हें अपने साथ मिलाना होगा, ये भी ज़रूरी है. अब ये होगा कैसे, ये आप सोचिये......आप अगर मुझसे किसी मदद की उम्मीद करते हैं, तो बताएं. अपने इस काबिल भाई की हर मुमकिन मदद करने के लिये मै हमेशा तैयार हूँ. जो लायक है, जो मेहनती है, जिसका वाजिब हक़ है, ईनाम तो उसी को मिलना चाहिये." रुखसार ने कहा.
"ठीक है आपा, सही वक़्त पर बताएंगे आपको.....आपने इतनी ज़रूरी बात हमें बताई, इसका तहे दिल से शुक्रिया.......आप अगर हमें न बतातीं तो हमें कभी पता नहीं चलता कि इस घर की दीवारों के अंदर हमारे खिलाफ क्या कुछ चल रहा है." मिर्ज़ा ने कहा.
"कैसी बात करते हैं मिर्ज़ा ?....हमारे छोटे, जान से प्यारे भाई हैं आप....और सबसे ज़्यादा काबिल और मेहनती है जिसने बचपन से आज तक हर मुश्किल से मुश्किल काम को बखूबी सरअंजाम दिया है, जब बाकी लोग भाग खड़े होते थे तब भी........आपको याद है, बचपन में जब हम लोग एक बार कारखाने घूमने गये थे और मशीनों में आग लग गयी थी, जिसमें हम और बड़ी आपा और कई कामगार भी फँस गये थे ?"
मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा "कैसे भूल सकते हैं आपा हम वो मंज़र ?....सब याद है हमें."
"तब हमारे बाकी के तीन भाई, भाग खड़े हुए थे और अब्बू औरों से मदद की गुहार कर रहे थे.....उस वक़्त आपने ही अपनी जान पर खेलकर हम दोनों की और उन कामगारों की जान बचाई थी......14-15 साल के ही थे आप तब.......आप न होते उस वक़्त तो आज हम भी न होते मिर्ज़ा." रुखसार ने कहा.
मिर्ज़ा खामोश थे.
"....अली साहब, बड़ी आपा और यहाँ तक की अब्बू भी आपका वह एहसान भूल सकते हैं मिर्ज़ा, लेकिन हम नहीं......एहसान फरामोश नहीं हैं हम मिर्ज़ा." रुखसार ने कहा.
मिर्ज़ा उनकी ओर देख रहे थे.
".....आपके लिये जो भी हमसे बन पड़ेगा, हम सब करेंगे मिर्ज़ा.....और सिर्फ आपकी बात नहीं है ये, बल्कि हमारा कारोबार, हमारी कम्पनी तभी ज़्यादा मज़बूत, ज़्यादा कामयाब होगी जब आप उसको लीड करेंगे, फरीद की तरह कोई कमज़ोर इंसान नहीं." रुखसार ने अपनी बात खत्म की.
भाई-बहन ने फिर दूसरी कई बातें की और फिर कुछ देर बाद मिर्ज़ा अपनी रुखसार आपा से गले मिलकर और 'खुदा हाफिज़' कहकर कमरे से बाहर निकल गये.
परिवार में लकीरें खींची जा चुकी थीं.
मिर्ज़ा के साथ ही फरीद भी फिर से दिल्ली चले गये थे. अबकी बार वह करीब 10-12 दिनों के लिये जा रहे थे. वहाँ उन्होनें इस बीच पिछले 6-7 महीनों में कई बार दिल्ली जाकर काफी लोगों से बात कर ली थी, कारोबारी साझीदारों और डिस्ट्रीब्यूटरों का भी अच्छा नेट्वर्क बनाने मे कामयाबी हासिल कर ली थी, और वे लोग भी उनकी मदद करने को भी तैयार हो गये थे. फरीद ने सौघरा में कुछ बैंकों और साहूकारों से भी बात कर ली थी जिस से लोन, इंश्योरेंस वगैरह की कोई भी समस्या न खड़ी हो. अब फरीद और मिर्ज़ा ज़मीन खरीदने और फैक्ट्री ,गोदाम वगैरह लगाने के रास्ते पर आगे बढ़ने की तैयारी कर रहे थे.
दिल्ली जाकर मिर्ज़ा के बताए शाहजहाँनाबाद और साहिबाबाद, ओखला वगैरह के इलाकों में दोनो भाईयों ने ज़मीन देखने का काम शुरु किया था. मिर्ज़ा दिन भर अपने दफ्तर में रहते और वहाँ से दूसरे अलग-अलग दफ्तरों और विभागों में फोन के ज़रिये जानकारी लेते रहते, जबकि फरीद दिन भर भूखे-प्यासे रहकर, दर-दर की खाक छाँनते घूमते रहते, लोगों से मिलते रहते, और ज़मीन, ट्रांसपोर्ट आदि के सिलसिले में लगातार जानकारियाँ जुटाते रहते. इस दौरान हमेशा उनके पास एक नोटपैड और एक कलम हुआ करती थी और छोटी से छोटी जानकारी भी वह अपने नोटपैड में दिन भर लिखते रहते थे. शाम को जब दोनों भाई मिर्ज़ा के घर पहुँचते थे, तो रात के खाने के बाद ज़ीनत अपने बच्चों के साथ सो जाती थीं और दोनो भाई देर रात तक बैठकर चाय के कई दौरों के बीच फरीद के नोटपैड पर लिखी एक-एक बात पर चर्चा करते थे. मिर्ज़ा को जो जानकारियाँ अपने दफ्तर से हासिल होती थीं, वह उन्हें भी एक अलग कागज़ पर लिख कर ले आते थे और फिर उस पर भी सिलसिलेवार चर्चा की जाती थी. रात के 2 या 3 बज जाना आम बात थी. यह सब लगभग 15 दिन तक चलता रहा और आखिर में शाहजहाँनाबाद और साहिबाबाद में लोकेशन फाईनल की गयी. ज़मीनों के मालिकों से भी बात हुई, और करीब 5-6 दौरों की बातचीत के बाद उन्हें भी फरीद ने बड़े अदब से, बड़े ढंग से ज़मीन बेचने के लिये मना लिया था. जो कीमत वे माँग रहे थे, फरीद से उसे भी कुछ कम करवाया और उस दाम पर बात तय हुई, जितने दाम पर फरीद, उनके अब्बू और अली साहब चाहते थे. शाहजहाँनाबाद की ज़मीन 15 लाख रुपये, और शहर से कुछ दूरी पर स्थित साहिबाबाद की ज़मीन 10 लाख रुपये की कीमत में तय हुई थी.
फरीद का दूसरों से बात करने, और उन्हें राज़ी करने का ऐसा हुनर देखकर मिर्ज़ा भी दंग थे. ज़मीन के मालिक बार-बार मना कर रहे थे, फिर भी फरीद ने हार नहीं मानी, और अंत में उन्हें ज़मीन बेचने के लिये राज़ी कर ही लिया. ज़मीन के दाम को लेकर जब पेंच फँसा, तब भी फरीद ने अपनी बातों का इतना खूबसूरत जाल बिछाया कि उसी दाम पर बात तय हुई, जो अब्बू और अली साहब चाहते थे. बीच में कई मौके ऐसे भी आये कि मिर्ज़ा को बेहद गुस्सा भी आ गया था और इस वजह से बात बिगड़ भी सकती थी, लेकिन फरीद ने बड़ी चतुराई से मिर्ज़ा को भी थामा, और बातचीत भी जारी रखी जिसका नतीजा ये रहा कि फरीद जब सौघरा वापस जा रहे थे, तो एक विजेता सी मुस्कान उनके चेहरे पर थी. मिर्ज़ा मन-ही-मन सोच रहे थे कि काश ऐसा हुनर उनको भी आता. अब फरीद को सौघरा जाकर कागज़ी काम-काज शुरु करना था और अगले कुछ महीनों में दिल्ली के उनके चक्कर बढ़ने वाले थे. दिल्ली और सौघरा में कागज़ी काम-काज के इसी मुश्किल दौर में मिर्ज़ा का किरदार, और इन्तज़ामियत में उनका ओहदा और पहुँच सबसे अहम होने वाला था, और ये बात फरीद और खुद मिर्ज़ा भी अच्छी तरह जानते थे.
सौघरा पहुँचकर जब फरीद ने सारी बात अली साहब और अपने अब्बू को बताई तो उन दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा. ज़मीन काफी कम कीमत पर ही तय हो गयी थी. अब ज़मीन का पैसा उनके मालिकों के देकर और रजिस्ट्री करवाकर ज़मीन का मालिकाना हक़ हासिल करने का काम सामने था.
इश्क़ और मुश्कें, छिपाये नहीं छिपते.
दिल्ली में कनॉट प्लेस में ज्वैलरी की एक काफी बड़ी और बेहद मशहूर दुकान हुआ करती थी, राणा ज्वैलर्स. मिर्ज़ा के दोनों बच्चे एक दोपहर जब दीवान के साथ गाड़ी में स्कूल से छुट्टी होने के बाद लौट रहे थे, तब उन्होने आइसक्रीम खाने की ज़िद की. फरवरी का महीना था तो दीवान ने बच्चों को मना करने की कोशिश की कि इस समय आइसक्रीम खाने से तबियत भी बिगड़ सकती है, मगर नासमझ बच्चे नहीं माने और आइसक्रीम की ज़िद करते ही रहे. उनकी ज़िद से हारकर दीवान ने मुस्कुराते हुए गाड़ी कनॉट प्लेस के आइसक्रीम पार्लर की तरफ मोड़ ली. वह आइसक्रीम पार्लर राणा ज्वैलर्स के ठीक बगल में ही था. बच्चे आइसक्रीम खा रहे थे कि तभी उन्होनें अपने वालिद मिर्ज़ा हैदर को किसी बुर्कानशीन औरत के साथ राणा ज्वैलर्स से बाहर निकलते देखा. नादान बच्चे "पापा!!...अम्मी!!" चिल्लाते हुए तेज़ी से मिर्ज़ा और उन खातून के पास जा पहुँचे और मिर्ज़ा से लिपट गये. अचानक ऐसा होने से उन खातून के कदम ठिठक हये और वह रुक गयीं, और मिर्ज़ा की हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं. उन्होनें हँसते हुए बात को सम्भालने की कोशिश की "अरे बेटा, आप लोग यहाँ ?"
बच्चे बड़ी खुशी से बोल रहे थे "हाँ पापा, आज हम लोगों को आइसक्रीम खाने का मन हुआ तो हमने दीवान अंकल से बोला. ये मना कर रहे थे हमें लेकिन आज हमें बहुत मन हो रहा था और हमने कहा कि आज ज़रूर आइसक्रीम खायेंगे........तो दीवान अंकल गाड़ी इधर ले आये........हमें तो पता भी नहीं था कि आप और अम्मी भी यहीं पर हैं....."
मिर्ज़ा ने प्यार से उनसे कहा "बेटा इस मौसम में आइसक्रीम नहीं खाते......दीवान अंकल सही तो कह रहे थे....आपकी तबियत खराब हो सकती है....." इतने में दीवान भागता हुआ पीछे से आया. अचानक बच्चों के ऐसे भागने से वह भी घबरा गया था. वहाँ पहुँचकर उसने मिर्ज़ा और उन खातून को देखा और खुद भी चौंक गया. फिर बात सम्भालते हुए बच्चों से कहा "अरे बेटा देर हो जायेगी घर पहुँचने में.....आप चलिये."
बच्चों ने कहा "नहीं अंकल!!....हम लोग पापा और अम्मी के साथ जायेंगे."
मिर्ज़ा ने बच्चों के गाल पर थपकी देते हुए कहा "नहीं, नहीं बेटा....अम्मी के साथ हमें किसी और जगह जाना है, पहले हम वहाँ जायेंगे....... आप जल्दी घर पहुँचिये.....हम लोग भी जल्दी ही आते हैं...." फिर मिर्ज़ा ने दीवान से कहा "दीवान, इन्हें ले जाइये घर जल्दी. हम लोग भी आ रहे हैं."
दीवान ने कहा "जी जनाब." और बच्चों को लेकर गाड़ी की तरफ जाने लगा "चलिये बच्चों आप लोग, घर चलिये.....पापा भी अभी आ रहे हैं."
तभी मिर्ज़ा ने पीछे से आवाज़ दी "दीवान!!"
दीवान ने पीछे मुड़कर मिर्ज़ा को देखा "जी जनाब ?". मिर्ज़ा के चेहरे पर साफ तौर पर कुछ खिंचाव दिख रहा था. दीवान भी कुछ सहमा सा था. मिर्ज़ा ने कुछ पल खामोश रहने के बाद दीवान से कहा "बच्चों का ध्यान रखा कीजिये दीवान.......वो तो नासमझ है, मगर आप तो समझदार हैं."
"जी जनाब." दीवान ने सिर्फ इतना कहा और बच्चों को लेकर गाड़ी की ओर चला गया.
मिर्ज़ा कुछ देर तक वहीं उन खातून के साथ चुपचाप खड़े रहे और बच्चों को दीवान के साथ गाड़ी में बैठकर जाता देखते रहे. वो अंदर से बुरी तरह हिल गये थे, और उनका चेहरा इस बात की साफ गवाही दे रहा था.
बच्चे घर पहुँचे तो अपनी अम्मी ज़ीनत को देखते ही उनसे लिपट गये. बेटे ने मीठी से शिकायत की "आज आप और पापा बाज़ार गये थे न ?....बताइये हम लोगों के लिये क्या लाये ?....और अम्मी, पापा कहाँ हैं ?....आप के साथ ही तो आने के लिये बोला था न उन्होनें ?"
ज़ीनत ने हँसते हुए कहा "क्या ?...हम बाज़ार गये थे आज पापा के साथ ?...नहीं बेटा.....हम तो कहीं भी नहीं गये आज बल्कि हम तो यहीं थे....और आपके पापा का तो अभी ऑफिस से आने का वक़्त भी नहीं हुआ है. शाम को आते हैं न पापा........चलिये आप हाथ-मुँह धुल लीजिये, और आज आप लोगों के खाने के लिये कढ़ी बनाई है....पसंद है न आपको ?"
बेटी ने कहा "...लेकिन अम्मी हमने पापा के साथ देखा था आपको जब हम आइसक्रीम खा रहे थे तब...."
बेटे ने भी कहा "हाँ अम्मी, दीवान अंकल हमें आइसक्रीम खिलाने ले गये थे वहीं पर हमने आपको और पापा को देखा था, हमने तो बात भी की थी आपसे……फिर पापा ने ही दीवान अंकल के साथ हमें घर भेज दिया था......आप दीवान अंकल से पूछ लो, हमारे साथ ही तो थे वो."
"नहीं बेटा, आपको गलतफहमी हुई होगी कुछ......न हम कहीं गये थे, न आपके पापा ही ऑफिस छोड़ के कहीं जाते हैं.....आपने मार्केट में गलती से किसी और को देख लिया होगा." ज़ीनत ने हँसकर कहा, फिर उन्होनें शरारती लहज़े में पूछा "इस मौसम में आप आइसक्रीम क्यों खा रहे थे ?...तबियत खराब हो जायेगी तो ?.....चलिये आज तो पुलिस ने चोर को पकड़ ही लिया आपको, बताइये अब कहाँ जायेंगे बच के ?" ज़ीनत खिलखिला रही थीं.
बच्चे भी हँस रहे थे. थोड़ी देर बाद वह हाथ-मुँह धुलने चले गये.
ज़ीनत ने दीवान को आवाज़ दी "दीवान!!"
डरते हुए दीवान अंदर आया. वह सोच रहा था कि बच्चों ने आज बेड़ा गर्क कर दिया होगा और अब उसकी पेशी होगी. ज़ीनत के पास वह आया और सहमी हुई आवाज़ मे कहा "जी मैडम ?"
"दीवान एक दिन आज हो गया....मगर बच्चों को इस तरह की आदत मत लगाइये....इन्हें आइसक्रीम वगैरह बिल्कुल मत खिलाया कीजिये. इस मौसम में आइसक्रीम खायेंगे तो बीमार हो जायेंगे बच्चे.....और घर पर ढंग से खाना भी नहीं खायेंगे सो अलग."
दीवान ने कहा "जी मैडम.....वो मैंने मना किया था इनको....मगर ज़्यादा ज़िद करने लगे बच्चे....अब छोटे बच्चों से कोई जीत सका है आज तक ?....इनकी बात तो बड़ों को माननी पड़ जाती है..."
ज़ीनत ने मुस्कुराकर कहा "वो तो ठीक है, मैं तो कह ही रही हूँ......इन्होनें ज़रूर ज़िद की होगी तभी आप ले गये होंगे......आज हो गया मगर आगे से ख्याल रखियेगा. बच्चे तो नासमझ है, मगर आप तो बड़े हैं न."
"जी मैडम, आगे से नहीं होगा ऐसा." दीवान ने कहा और वहीं खड़ा रहा. उसे लग रहा था कि ज़ीनत अभी उस से मिर्ज़ा के बारे में पूछेंगी.
ज़ीनत दूसरे कामों में मसरूफ हो गयी थीं. ज़ीनत ने जब कुछ वक़्त तक कुछ भी नहीं पूछा तो दीवान ने पूछा "और कोई हुकुम मैडम ?"
"नहीं, नहीं....आप आराम कीजिये, शाम को साहब को लेने चले जाइयेगा." ज़ीनत ने कहा.
"जी मैडम." दीवान ने कहा और काफी राहत की साँस ली.
शाम को दीवान मिर्ज़ा को उनके दफ्तर से बिठा कर घर के लिये निकला था. काफी देर तक गाड़ी के अंदर बिल्कुल खामोशी पसरी हुई थी. मिर्ज़ा चुपचाप बैठे गाड़ी की खिड़की से बाहर की ओर देख रहे थे. फिर अचानक दीवान को पीछे से मिर्ज़ा की आवाज़ सुनाई दी "मैडम कह रहीं थी क्या कुछ ?"
दीवान ने अपने सिर के पास लगा शीशा ठीक किया और शीशे में पीछे बैठे मिर्ज़ा को देखा. मिर्ज़ा अभी भी खिड़की से बाहर ही देख रहे थे. चेहरे पर कुछ उलझन सी थी. दीवान ने गाड़ी चलते हुए जवाब दिया "जी, वो कह रहीं थीं कि बच्चों का ध्यान रखा कीजिये और उनकी हर ज़िद मत माना कीजिये.....एक दिन हो गया.....मगर बार-बार आइसक्रीम खाने से तबियत खराब हो जायेगी."
कुछ देर तक पीछे से फिर कोई आवाज़ नहीं आयी. फिर खिड़की से बाहर देखते हुए मिर्ज़ा बोले "ह्म्म्म्म......ठीक ही कह रही थीं वो." फिर मिर्ज़ा चुप हो गये और अभी भी बाहर की ओर ही देख रहे थे.
दफ्तर से घर तक के करीब आधे घंटे के सफर में गाड़ी के अंदर दोनों में केवल इतनी ही बात हुई.
घर पहुँचकर मिर्ज़ा ने देखा तो बच्चे बाहर खेल रहे थे. मिर्ज़ा चुपचाप उनसे बगैर कुछ बोले घर के अंदर चले गये.
करीब हफ्ते भर बाद एक दोपहर धोबी धुलकर इस्तरी किये कपड़े देने और धुलाई के लिये कपड़े लेने आया. ज़ीनत ने पुराने कपड़ों के पैसे दिये और धुलाई के लिये रखे कपड़ों एक गट्ठर उसकी ओर फेंकते हुए कहा "जेबें देख लीजिये इसमें और कपड़े गिन लीजिये."
धोबी एक-एक करके हर कपड़े की सभी जेबें तलाशने लगा. थोड़ी देर बाद उसने गट्ठर को वापस बाँधा और ज़ीनत से कहा "बीबी जी, कुल जमा दस कपड़े हैं..." और एक छोटा सा सफेद रंग का कागज़ उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा "....एक पतलून की जेब से ये कागज़ मिला है बीबी जी." इसके बाद धोबी चला गया. ज़ीनत ने वह कागज़ हाथ में लिया और धोबी के जाने के बाद खोलकर देखा. वह एक दुकान की रसीद थी, दो हज़ार रुपये की, और किसी कुलसूम बानो के नाम पर बनी थी. दुकान का नाम और पता लिखा था – राणा ज्वैलर्स, कनॉट प्लेस.
थोड़ी देर तक ज़ीनत को कुछ समझ में ही नहीं आया था. "इतनी महँगी खरीददारी, गहनों की दुकान से ?"……..."और किसके लिये ?"….."ये कुलसूम बानो कौन है ?" ज़ीनत अंदर से बुरी तरह हिल गयीं थीं. वो बहुत परेशान हो गयीं थीं और वो चाहती थीं कि उसी वक़्त वह मिर्ज़ा के दफ्तर जाकर फौरन ही उनसे सीधे सवाल करें, और सफाई माँगें, मगर उन्होनें खुद को रोका और तय किया कि इस बात की मालूमात वह खुद ही करेंगी. मिर्ज़ा को कुछ भी नहीं बताएंगी.
दफ्तर से उस रोज़ जब मिर्ज़ा आये, तो ज़ीनत ने वाकई उनसे कुछ नहीं बताया.
अगले दिन जब सुबह बच्चे स्कूल चले गये थे, और फिर दीवान मिर्ज़ा को भी दफ्तर छोड़ कर आया तो ज़ीनत से उससे कहा "दीवान, हम बाज़ार जाना चाहते हैं थोड़ा. हमें कनॉट प्लेस ले चलिये." यह कहकर ज़ीनत ने अपना बुर्का निकाला. दीवान ने पूछा "कब चलना है मैडम ?"
ज़ीनत ने कहा "अभी चलिये....दोपहर में फिर बच्चे और शाम को आपके साहब आ जायेंगे." दीवान ने हामी भरी और कुछ देर बाद बुर्कानशीन ज़ीनत को लेकर बाज़ार की ओर चला गया. कनॉट प्लेस पहुँचकर दीवान ने पूछा "कहाँ जाना है मैडम ?....कनॉट प्लेस तो आ गया." ज़ीनत जानती थीं कि 'राणा ज्वैलर्स' कोई मशहूर और बड़ी दुकान होगी. मिर्ज़ा किसी ऐसी-वैसी, आम-सी जगह से कभी खरीददारी नहीं करते. ज़ीनत ने कहा "ज्वैलरी की किसी अच्छी, मशहूर दुकान पर ले चलिये." यह सुनकर दीवान ने गाड़ी राणा ज्वैलर्स के ठीक सामने ले आकर खड़ी कर दी और कहा "वो है मैडम, यहाँ ज्वैलरी की सबसे बढ़िया, मशहूर दुकान – राणा ज्वैलर्स."
"ठीक है, हम अभी आते हैं." इतना कहकर बुर्कानशीन ज़ीनत गाड़ी से बाहर निकल गयीं.
दुकान के अंदर जाकर ज़ीनत ने जब वह रसीद दिखाई, और पता किया तो उनके होश फाख्ता हो गये. करीब हफ्ते भर पहले मिर्ज़ा ने किसी कुलसूम बानों के लिये सोने का एक बेहद खूबसूरत हार बनवाने का ऑर्डर दिया था, जिसकी कीमत दो हज़ार रुपये थी. आज वह हार बनकर तैयार था.
दुकान पर बैठे कारिंदे ने मुस्कुराते हुए कहा "ये देखिये मैडम, बीस तारीख की रसीद है. उस दिन आपके साथ ही तो आप के पति आये थे और यह ऑर्डर दिया था.....शायद आपको याद नहीं है.......उन्होनें उसी समय पेमेंट भी कर दी थी. ये देखिये, पचीस तारीख डिलिवरी डेट लिखी है….. मतलब आप दो दिन बाद आयीं हैं. आपका हार तो दो दिन पहले से ही तैयार होकर रखा है." इतना कहकर उसने वह बेश्कीमती खूबसूरत हार बुर्कानशीन ज़ीनत के सुपुर्द कर दिया.
धीरे-धीरे उनकी समझ में सारी बातें आने लगीं थीं. अपने शौहर की इस बेवफाई को महसूस करते हुए ज़ीनत लगभग रोने वाली थीं और बेहोश होने वाली थीं, उनके आगे उनकी पूरी दुनिया उलट-पलट हो रही थी, मगर किसी तरह उन्होनें अपने दिमाग और जज़्बात पर काबू किया. उन्होनें वह हार अपने पास रख लिया और दुकान से बाहर निकल गयीं.
दीवान उन्हें लेकर घर आ गया था. गाड़ी में पीछे बैठी ज़ीनत रास्ते भर बुर्के के भीतर सिसकती रहीं, रोती रहीं मगर कुछ इस तरीके से कि दीवान को कोई खबर भी न हो सकी.
ज़ीनत ने फैसला कर लिया था कि अब वह मिर्ज़ा से सीधे बात करेंगी.
कुछ दिनों बाद जब मिर्ज़ा अपने दफ्तर में थे और बच्चे स्कूल में, तब ज़ीनत ने दीवान को बुलाया. उनके चेहरे पर दु:ख साफ दिख रहा था. उन्होने दीवान से पूछा "दीवान, आप साहब के साथ कब से हैं ?"
"जी मैडम, करीब दस बरस तो हो रहे होंगे." दीवान ने जवाब दिया.
कुछ देर चुप रहने के बाद ज़ीनत ने पूछा "ये कुलसूम बानों कौन है दीवान ?"
इस सवाल से दीवान को ज़बरदस्त झटका लग चुका था. ये वो सवाल था जिसके लिये वह कतई तैयार नहीं था. वह ज़ीनत की निगाहों का सामना भी नहीं कर सक रहा था. वह बस किसी तरह घबराते हुए जवाब दे सका "पता नहीं मैडम......कौन कुलसूम ?......मुझे नहीं पता ज़्यादा मतलब..."
"थोड़ा याद कीजिये दीवान, क्या पता याद आ जाये." ज़ीनत ने कहा.
दीवान ने अबकी बार थोड़ा भरोसे वाली आवाज़ में कहा "जी नहीं मैडम......मैं वाकई नहीं जानता. साहब के साथ गाड़ी में कितने लोग तो बैठते-उतरते हैं.....सबके बारे में कैसे जान सकते हैं ?"
ज़ीनत ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा "हम्म्म्म....ठीक है, आप जा सकते हैं." दीवान ज़ीनत के कमरे से बाहर आ गया था. उसके दिमाग में अब खलबली मची हुई थी. अपने मालिक को सावधान करना अब ज़रूरी था क्योंकि उनका राज़ फाश हो चुका था.
वह सीधे भागता हुआ ग़ाड़ी के पास गया और गाड़ी सीधे मिर्ज़ा के दफ्तर की ओर दौड़ा दी थी. आधे घंटे का रास्ता 10-15 मिनट में तय करके वह मिर्ज़ा के दफ्तर पहुँचा और रिसेप्शन काउंटर पर पहुँच कर वहाँ बैठे स्टाफ से कहा "साहब को फोन लगाइये जल्दी, बहुत ज़रूरी बात है."
दफ्तर का पूरा स्टाफ भी दीवान से अच्छी तरह वाक़िफ था. वहाँ बैठे कारिंदे ने फोन लगाकर रिसीवर दीवान को दे दिया. दूसरी ओर मिर्ज़ा थे "हैलो ?"
"हैलो!! जी जनाब"
"बोलो दीवान, इस वक़्त कैसे फोन किया ?"
"....जी वो मैडम पूछ रहीं थीं कुछ......कुलसूम के बारे में." दीवान ने काफी धीमी आवाज़ में कहा.
मिर्ज़ा जो उस समय कुछ दूसरे लोगों के साथ अपने कमरे में मीटिंग ले रहे थे, इस बात से एकदम से चौंक गये "क्या ?..." उन्हें एक बार तो भरोसा ही नहीं हुआ दीवान की बात पर, फिर जल्दी से खुद को काबू करते हुए धीमी आवाज़ मे बोले "...कैसे मतलब ?"
"पता नहीं जनाब......मगर पूछ रहीं थीं वो आज.....मैंने सोचा कि आपको इत्तला कर दूँ."
"..तो तुमके क्या कहा उनसे ?"
"....मैने तो यही कहा कि मुझे नहीं पता कुछ.....साहब के साथ गाड़ी में कितने लोग आते-जाते हैं, अब मै कैसे याद रखूँ सबको ?...यही कहा मैंने." दीवान ने जवाब दिया.
"हम्म्म्म......ठीक है, मैं देखता हूँ." मिर्ज़ा ने बस इतना कहा और फोन रख दिया.
सैयद साहब की कम्पनी की जयपुर यूनिट पिछले 2-3 साल से काफी मुनाफा दे रही थी. वहाँ प्रोडक्शन भी ज़्यादा हो रहा था और बिक्री भी काफी अच्छी हो जा रही थी. मिर्ज़ा के कहने पर जयपुर में सैयद साहब ने अभी हाल ही में ही कारोबार शुरु किया था. सैयद साहब ने अपने एक बहुत खास आदमी, अपने एक पुराने दोस्त भगवान सिंह कस्तूरिया जी को वहाँ अपना पूरा कारोबार से जुड़ा काम सौंप रखा था. कस्तूरिया जी की ससुराल जयपुर के पास आमेर में ही थी, और वह जयपुर से अच्छी तरह से वाकिफ भी थे. कस्तूरिया जी अपनी जवानी के दिनों में फौज में गनर हुआ करते थे. 50 की उम्र में रिटायर होकर जब वह अपने घर सौघरा आ गये, तब सैयद साहब और अली साहब ने उनसे गुजारिश की कि जयपुर में वो कारोबार जमाने जा रहे हैं और चाहते हैं कि कस्तूरिया जी को जयपुर का पूरा चार्ज दे दिया जाय. कस्तूरिया जी को भी ये प्रस्ताव काफी अच्छा लगा. रिटायरमेंट की पेंशन और दूसरे फायदे तो मिल ही रहे थे, साथ में एक अच्छी आमदनी का और जुगाड़ होता लग रहा था. उनकी ससुराल भी पास में ही थी. फिर सैयद साहब और अली साहब उनके काफी पुराने और अज़ीज़ दोस्त थे, और सैयद साहब और कस्तूरिया जी के बीच एक-दूसरे के लिये बड़ा प्यार और इज़्ज़त थी, सैयद साहब के इस प्रस्ताव को कस्तूरिया जी 'ना' नहीं कर पाये और जयपुर का काम सम्भालने को तैयार हो गये थे.
उन्होनें अपनी पत्नी के साथ जयपुर जाने और ससुराल से अलग रहने की शर्त रखी थी जिसे सैयद साहब ने तुरंत मान लिया था. सैयद साहब ने फरीद को भेज कर कस्तूरिया जी के परिवार के लिये जयपुर में एक अच्छे रिहाइशी इलाके में एक अच्छा सा किराये का घर पता करवाया और यह भी वायदा किया कि कमरे का पूरा किराया सैयद साहब की कम्पनी ही भरेगी, कस्तूरिया जी नहीं. इस तरीके से करीब 3 साल पहले सैयद साहब की कम्पनी ने कस्तूरिया जी के सहारे वहाँ काम शुरु किया था और आज वह जयपुर और आस-पास के इलाकों में काफी अच्छा कारोबार कर रही थी. कस्तूरिया जी ने जयपुर का पूरा मोर्चा सम्भाल रखा था, चाहे सरकारी दफ्तरों में अफसरों से मिलना हो, चाहे डिस्ट्रीब्यूटरों या कारोबारी साझीदारों से बात करनी हो, चाहे ट्रांसपोर्ट, ठेकेदारों या मार्केटिंग से जुड़े मसले हों, कस्तूरिया जी हर मामले पर बारीकी से नज़र रखते और हर मसला उनके हाथ में लेते ही हल हो जाता था. हर 15 दिन में एक बार कस्तूरिया जी सौघरे का एक चक्कर ज़रूर लगा जाते थे और सैयद साहब और अली साहब से मिलकर उन्हें जयपुर के मसलों की सभी ज़रूरी जानकारियाँ देते रहते.
जयपुर यूनिट के मुनाफे की वजह से ही कानपुर और माधवपुर के मामलों में मंज़ूरी न मिलने की वजह से जो देरी हो रही थी, और जो नुकसान हो रहा था, सैयद साहब की कम्पनी उसको भी आसानी से झेल गयी थी.
फरीद भी कस्तूरिया साहब की बड़ी इज़्ज़त करते थे और समय-समय पर उनसे भी राय-सलाह करते रहते थे. जब कभी कस्तूरिया जी सौघरा आते, फरीद उनके साथ घंटों बिताते और कारोबार के गुण ऐसे सीखते जैसे कोई शागिर्द अपने उस्ताद से. सैयद साहब, मिर्ज़ा, फरीद और अली साहब का पूरा ध्यान फिलहाल तो दिल्ली में कारोबार जमाने पर था लेकिन इन सबसे अलग फरीद पंजाब में भी कारोबार जमाना चाहते थे, और इसके लिये उनको जालंधर बड़ी मुफीद जगह लग रही थी. दिल्ली के मामले को तो वे देख ही रहे थे, लेकिन उनकी दिली ख्वाहिश जालंधर में अपने दम पर अपने घर का कारोबार जमाने की थी, और इसी काम के लिये वह कस्तूरिया जी की मदद लेना चाहते थे.
अब फरीद कैसे भी थे, थे तो एक आम इंसान ही.....और एक आम इंसान की तरह ही उनकी भी कुछ अपनी ख्वाहिशें थी. वह हमेशा से जानते और मानते भी थे कि कारोबारी समझ के मामले में, मज़बूती से फैसले लेने के मामले में वह अपने भाई मिर्ज़ा से कमज़ोर थे. फिर इन सब के साथ-साथ मिर्ज़ा एक सीनियर आई.सी.एस. भी थे, जो उनकी ताकत को कई गुना बढ़ा देता था. इस तरह की कोई ताकत भी फरीद के पास नहीं थी, लेकिन फरीद हमेशा से चाहते थे कि अपने भाईयों के बीच उनका भी अलग मुक़ाम हो. वह भी कुछ ऐसा करें कि जो उनके भाईयों ने न किया हो, और उनके अब्बू, उनकी बीवी और बच्चे भी जिस बात पर फख्र करें, और एक सबसे बड़ी बात, कि उनके अब्बू, अली साहब और बाकी सभी लोग उन्हें मिर्ज़ा हैदर से बेहतर समझें. इसीलिये जब परिवार में दिल्ली और पंजाब में कारोबार जमाने की बातें हो रही थी, और फिर दिल्ली पर निशाना लगाने का फैसला किया गया था, तभी फरीद ने अपने मन में यह सोच लिया था कि दिल्ली में तो कारोबार शुरु ही करेंगे, साथ-साथ पंजाब में जालंधर में भी वह अपना काम शुरु करेंगे.
जालंधर का प्रोजेक्ट इसी वजह से फरीद के दिल के बेहद करीब था और इस बाबत उन्होनें सैयद साहब, और अली साहब से अपनी बात भी रखी थी. उन्होनें उन दोनों से यह गुजारिश की थी यह उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है जिसे वह अपने दम पर ही पूरा करना चाहते है. फरीद ने उनसे यह भी इल्तजा की थी कि इस प्रोजेक्ट के बारे में उनके किसी भी भाई को न बताया जाये. फरीद यह काम अकेले करना चाहते थे. फरीद की ऐसी ललक देखकर सैयद साहब और अली साहब दोनों को काफी खुशी हुई थी, और उन्होने फरीद से वायदा किया था कि इस बारे में वह मिर्ज़ा, शुज़ा या मुराद किसी को नहीं बताएंगे.
फरीद ने अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट में साथ देने के लिये कस्तूरिया जी को राज़ी कर लिया था. जब फरीद दिल्ली के लगातार चक्कर लगा रहे थे, लगभग उसी समय कस्तूरिया जी भी लगातार जालंधर आ-जा रहे थे और वहाँ भी ज़मीनें वगैरह देख रहे थे. कस्तूरिया जी फरीद के लगातार सम्पर्क में रहते थे और जालंधर के मोर्चे पर क्या कुछ चल रहा था, पूरी जानकारी फरीद को बराबर देते रहते थे. फरीद भी अपने अब्बू, और अली साहब से लगातार जालंधर से जुड़े मामलों पर राय-मशविरा करते रहते थे, और इस बात का ध्यान वे सभी ज़रूर रखते थे कि फरीद के बाकी तीन भाईयों को इस बाबत कुछ भी पता न चले.
फरीद ने तय किया था कि एक बार दिल्ली वाली ज़मीनों की रजिस्ट्री और दाखिल खारिज हो जाये, और वहाँ फैक्ट्री और गोदाम वगैरह बनने का काम शुरु हो जाये, तब वह अपना पूरा फोकस, अपनी पूरी मेहनत अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर लगाएंगे. तब तक फरीद ने इस राज़ को अपने भाईयों से छिपाये रखना ही मुनासिब समझा था.
इतवार होने की वजह से मिर्ज़ा आज अपने घर पर ही थे. दोपहर का खाना मिर्ज़ा, ज़ीनत और दोनों बच्चों ने साथ में खाया और फिर दोनों बच्चे अपने कमरे में जाकर सो गये. अपने अलग कमरे में ज़ीनत और मिर्ज़ा अब मौजूद थे और बिल्कुल चुप थे. मिर्ज़ा को पिछले 3 दिन से पता था कि ज़ीनत को उनके और कुलसूम नाम की किसी औरत के रिश्ते के बारे में पता चल चुका है, और पिछले 3 दिन से मिर्ज़ा यही सोच रहे थे कि ज़ीनत ने अगर अपने सवाल पूछने शुरु किये तो वह कैसे उन सवालों के जवाब देंगे और इसी वजह से एक किस्म की परेशानी मिर्ज़ा के चेहरे पर नुमायाँ हो रही थी. ज़ीनत पिछले 3 दिन से मुस्कुराई भी नहीं थीं, बिल्कुल ही चुप थीं और मिर्ज़ा से बहुत ही कम बात की थी.
पिछले 3-4 दिनों से अजीब से ज़ेहनी हालात से गुज़र रहीं थीं ज़ीनत. उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा था कि वह किससे कहें और क्या ? शादी को दस साल से भी ज़्यादा हो रहे थे. अल्लाहताला ने दो बड़े ही प्यारे बच्चे भी अता किये थे ज़ीनत और मिर्ज़ा को. बहुत ही खुशहाल ज़िंदगी चल रही थी उनकी, लेकिन अब एक झटके में ही ज़ीनत को ये सब बेईमानी लगने लगा था. उन्हें लग रहा था कि जिसे खुशहाली भरी ज़िंदगी समझकर वो जीती आयीं हैं, वह महज़ एक छलावा ही निकली थी. उन्हें पता ही नहीं चल रहा था कि वह महसूस क्या कर रहीं थीं. क्या वह मायूस थीं और बहुत गुस्से में थीं ? पता नहीं. क्या वह बहुत दु:ख में थीं ? पता नहीं. क्या उनके उम्र भर के भरोसे को बहुत ठेस पहुँची थी ? यकीनन ये तो था ही, पर क्या वो जीना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वो मरना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह किसी को मारना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह सोना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह कुछ खाना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह कुछ पीना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह घर छोड़कर चले जाना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह हँसना चाहती थीं ? पता नहीं. क्या वह किसी के कंधे पर सिर रखकर जी भर कर रोना चाहती थीं ? पता नहीं.
ज़ीनत को अपने बारे में कुछ भी पता नहीं था. उनके ये पिछले 3-4 रोज़ ऐसे ही बीते थे.
पहल मिर्ज़ा ने ही की. बिस्तर पर बैठी, सोच में डूबी ज़ीनत के पास आकर उन्होनें मुस्कुराते हुए पूछा "किस सोच में पड़ी हुई हैं बेगम आप ?"
ज़ीनत ने बिना उनकी ओर देखे, उदास चेहरे के साथ शायराना ढंग से कहा "जिन दरख्तों से थी सहारे की कुछ उम्मीद, उन दरख्तों के तले ही लुटेरे मिले..."
"मतलब ?" मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर पूछा.
"सोच रही हूँ कि अगर किसी पर ज़िंदगी भर का भरोसा किया जाये, और फिर एक झटके में वह भरोसा टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाये, तो भरोसा करने वाले इंसान की क्या हालत होती होगी ?" अब ज़ीनत मिर्ज़ा की ओर देख रही थीं.
मिर्ज़ा की हँसी गायब हो गयी थी. वह सिर्फ इतना पूछ पाये "क्यों ?.....क्या हुआ ?"
बगैर मिर्ज़ा की ओर देखे ज़ीनत ने बड़े दु:खी मन से वह छोटा, सफेद कागज़, जो राणा ज्वैलर्स की रसीद थी, को मिर्ज़ा की ओर बढ़ा दिया.
"क्या है ये ?" बेपरवाही से वह रसीद पकड़ते हुए मिर्ज़ा बोले, लेकिन जैसे ही मिर्ज़ा ने अपने हाथ में लेकर जब वह रसीद देखी तो उनके होश उड़ गये. उनका हमेशा चमकता चेहरा बिल्कुल पीला पड़ चुका था और वह समझ चुके थे कि वह रंगे हाथ पकड़े जा चुके थे. उनके हाथ काँप रहे थे. ज़ीनत के ज़बानी सवालों का तो तब भी शायद वह अपना दिमाग लगाकर कुछ जवाब दे लेते, लेकिन इस छोटे से बेज़ुबान कागज़ ने उनसे जो सवाल पूछ लिया था, उसका कोई जवाब कितना भी दिमाग लगाकर मिर्ज़ा नहीं दे सकते थे. उनकी ज़बान भी जैसे मुँह के अन्दर ही पूरी तरह सिल चुकी थी. ज़ीनत की ओर देखने की भी उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी. उन्होनें छोटी सी वह रसीद बिस्तर पर ही रख दी और ज़ीनत के आगे सिर नीचे करके ऐसे बैठ गये गोया कोई मुल्ज़िम किसी जज के आगे अपने जुर्म का इक़बाल करता हुआ सज़ा सुनने के लिये बैठा हो. ज़ीनत उन्हें एकटक देखे जा रही थीं.
दोनों बिल्कुल खामोश थे. बड़ी कोशिशों के बावजूद ज़ीनत की आँखे, आँसुओं का ज़ोर सम्भाल नहीं पा रही थीं. कुछ वक़्त बाद कमरे में उनकी धीमी-धीमी सी सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं.
मिर्ज़ा अब भी सिर नीचे किये बैठे थे.
ज़ीनत उठीं और बगल में रखी ऊँची सी आलमारी खोली. उसमें से एक छोटा सा, चौकोर सा मखमली बॉक्स निकाला और बॉक्स का एक हिस्सा खोलकर उसे मिर्ज़ा के आगे, बिस्तर पर रख दिया और पहले की तरह बैठकर मिर्ज़ा को देखने लगी.
वह बॉक्स दरअसल उसी खूबसूरत से हार का केस था, और अब वह हार मिर्ज़ा के आगे रखा था. मिर्ज़ा बिल्कुल चुप और आँखें नीचे किये बैठे थे.
"ये क्या है ?" ज़ीनत ने पूछा.
जवाब न उन्हें मिलना था, और न ही मिला.
"....एक बार आप कह कर तो देखते हमसे, कि आप हमसे खुश नहीं हैं.......आप शौहर हैं हमारे, आप गुरूर हैं हमारा.....आप की खुशी के लिये तो हम कुछ भी कर गुज़रते...." रोते हुए ज़ीनत कह रही थीं. मिर्ज़ा अभी भी बुत की तरह खामोश थे.
"....अगर आप कहते तो हम तलाक़ भी दे देते आपको........आज़ाद कर देते आपको अगर आपको लगता था कि आप बँधे हुए थे हमारी ज़ंजीर से.......एक दफा केवल कह कर तो देखते आप..........हम शर्तिया मायूस न करते आपको, मगर ये ?..." ज़ीनत काफी दु:खी थीं.
मिर्ज़ा ने किसी तरह हिम्मत करके ज़ीनत के हाथ पर अपना हाथ रखा. थोड़ी देर वह चुप रहे फिर धीरे से अपना सिर ऊपर उठा कर ज़ीनत को देखा. उनकी आँखे लाल थीं और बस किसी तरह अपने आँसू सम्भाल रखे थे उन्होनें. रूंधे गले से मिर्ज़ा बोले "अल्लाह जानता है, हम कभी नहीं चाहते थे कि ऐसा हो.......आपकी कसम खा कर कहते हैं हम ज़ीनत, हमनें कभी ख्वाब में भी नहीं चाहा ये.......मगर हो गया यह हमसे....न चाहते हुए भी यह हो गया और फिर होता ही चला गया"
"क्यों ?....हमारी मोहब्बत में कुछ कमी रह गयी थी ?.....आपने बताया क्यों नहीं हमें कभी ?" ज़ीनत ने पूछा.
"नहीं, नहीं ज़ीनत....आपकी मोहब्बत तो बेदाग रही है.....कोई भी कमी कभी भी नहीं रही उसमें.....शायद हम ही आपकी मोहब्बत के काबिल नहीं निकले.......ये गुनाह-ए-अज़ीम हमसे ही हो गया."
"हमारी जाने दीजिये.....दो बच्चे भी हैं आपके, और इनकी भी नहीं सोची आपने ?......अपने अब्बू का ज़िक्र आने पर ये बच्चे आपकी तरफ क्या सोचकर देखेंगे, और देखकर क्या सोचेंगे, क्या आपके दिमाग में एक पल के लिये खयाल भी नहीं आया ?"
मिर्ज़ा सिर नीचे करके बैठे थे.
"कुछ तो बोलिये."
बड़ी मेहनत के बाद मिर्ज़ा के लब कुछ बोलने के लिये खुले "ज़ीनत, हर इंसान की कुछ ख्वाहिशें होती हैं, मगर कई बार हालात ऐसे होते हैं कि ख्वाहिशें पूरी नहीं हो पाती. ख्वाहिशों को दफन करना पड़ता है, मगर वो दिल में अंदर, किसी कोने में, कहीं दबी होती हैं......वही हुआ हमारे साथ.
ज़ीनत सुन रही थीं.
"...ज़ीनत, आपसे हमारी शादी असल में हमारी मर्ज़ी से नहीं हुई थी.....बहुत छोटे थे हम उस वक़्त, और लिखे-पढ़े ज़रूर थे लेकिन दुनियादारी से भी कतई अनजान थे......अब्बू-अम्मी ने हमें बुलाकर कहा कि हमारी शादी आपसे होनी है, और हमने सिर झुकाकर मान लिया......हमसे उस वक़्त इतनी हिम्मत नहीं हुई थी कि हम कह सकें कि हमें जब कोई लड़की पसंद आयेगी तब अपनी पसंद की लड़की से हम शादी करेंगे.....हमने कुछ भी नहीं कहा, बस उनकी बात मान ली. शादी के बाद भी हमने ईमानदारी से यही मान लिया कि अब हमें अपने घर-परिवार, अपने बीवी-बच्चों के लिये वफादार रहना है, और अब हमें कोई लड़की वगैरह पसंद नहीं करनी है. अब हमें इसी शादी-शुदा ज़िंदगी में खुश रहना है........बेवफाई या किसी किस्म की दगाबाज़ी की बात तो ख्याल में दूर-दूर तक भी नहीं थी."
ज़ीनत अभी भी सुन रही थीं.
"....मगर अब से करीब 3-4 साल पहले हमारी कुलसूम से मुलाक़ात हुई एक जलसे में.....फिर आगे और भी मुलाकातें हुईं.....और कब ये बात इतनी आगे बढ़ गयी, कि हम दोनों एक दूसरे को दिल दे बैठे, हमें पता भी न लग पाया."
"क्या ?.....3-4 साल पहले ?....मतलब आप इतने लम्बे वक़्त से....." ये कहते हुए ज़ीनत फफक कर रो पड़ीं.
मिर्ज़ा चुप थे मगर उनके आँसू उनकी हालत की गवाही दे रहे थे.
मिर्ज़ा बोले "हम असल में अपने वालदेन को अपने दिल की ये बता नहीं पाये, कि हम जब कभी भी शादी करेंगे, अपनी पसन्द की लड़की से करेंगे.....हम नहीं चाहते थे कि हमारी ज़िंदगी का इतना अहम फैसला बस यूँ ही, बिना हमसे पूछे कर लिया जाये और फिर हम पर थोप दिया जाये........हम चाहते थे कि जिस से भी हमारी शादी हो, कम से कम उस से मिलें तो सही……..उसको देखें तो सही. उस से हमारी कुछ जान-पहचान तो हो. लेकिन हमने सोचा कि ये बात अगर वालदेन को बताई तो उनको काफी अफसोस होगा कि उनका बच्चा उनकी बात नहीं सुनता जबकि सभी के बच्चे अपने माँ-बाप की बात मानते हैं…..इसलिये उस वक़्त हम चुप रह गये."
ज़ीनत सब कुछ सुनती चुपचाप बैठी थीं, फिर कहा "....देखिये तो आपसे हमारी शादी भी तो ऐसे ही हुई. हमसे भी हमारे अम्मी और अब्बू ने भी तो यही कहा था कि सैयद साहब के बेटे मिर्ज़ा से आपकी शादी तय कर दी गयी है.......हमसे भी तो कुछ नहीं पूछा गया था. हमारी ज़िंदगी का भी तो ये अहम फैसला था जो हम पर थोप दिया गया था……….वरना सच पूछिये तो चाहत तो हमारी भी रही ही होगी कि शादी से पहले उस इंसान के बारे में जान-समझ तो लें जिसके साथ हमें पूरी ज़िंदगी बितानी है......लेकिन हमें वो मौका नहीं मिला. फिर शादी के बाद तो हमने आपको ही अपना खुदा मान लिया था. लेकिन....." ज़ीनत फिर चुप हो गयीं.
मिर्ज़ा बिल्कुल खामोश थे.
"तो तलाक़ क्यों नहीं लिया आप ने हमसे ?" ज़ीनत ने पूछा.
मिर्ज़ा के पास कोई जवाब नहीं था.
"शायद सोचा होगा आपने कि इस्लाम में तो एक मर्द कई शादियाँ कर सकता हैं.....फिर तलाक़ की क्या ज़रूरत है ?......बोलिये, यही बात रही होगी ना आपके ज़ेहन में ?"
मिर्ज़ा अब भी चुप थे. असल में बात तो यही थी कि मिर्ज़ा के दिमाग में बिल्कुल यही बात चल रही थी, इसीलिये वह कुलसूम के साथ उस डगर पर इतना आगे बढ़ गये थे. लेकिन ये बात वह ज़ीनत से कह नहीं सकते थे.
मिर्ज़ा ने कहा "पता नहीं ज़ीनत, लेकिन आपको हम सच बताते हैं......आपकी जगह कोई नहीं ले सकता है. आपका ओहदा हमेशा....."
ज़ीनत ने गुस्से से उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा "....बस कीजिये आप!!....ओहदे की बात तो बिल्कुल ही मत कीजिये."
मिर्ज़ा ज़ीनत की ओर देख रहे थे. ज़ीनत के चेहरे पर गुस्सा और तकलीफ साफ नज़र आ रही थी. यह साफ दिख रहा था कि इस दगाबाज़ी से उनके भीतर कितना गहरा ज़ख्म लगा है. ज़ीनत ने गुस्से में ही कहा "अभी और कितना झूठ बोलेंगे आप ?"
मिर्ज़ा ने फिर से निगाहें नीची कर लीं.
अपने गुस्से को काबू करते हुए, और लम्बी साँस छोड़ते हुए ज़ीनत ने कहा "अच्छा ठीक है, अब आप ही बताएं......कि क्या करना चाहिये हमें ?"
मिर्ज़ा खामोश थे.
"बताएं हमें आप.....अब आप क्या चाहते हैं हमसे ?.....आपकी खुशी के लिये हम कुछ भी करने को तैयार हैं."
"आपके गुनहगार हैं हम ज़ीनत. आप जो भी मुनासिब समझें, सज़ा दीजिये हमें." मिर्ज़ा बोले.
"नहीं, नहीं,…..सज़ा तो हम कतई नहीं दे सकते आपको. आपसे दिल-ओ-जान से मोहब्बत करते हैं हम......हम तो किसी हाल में सज़ा नहीं देंगे आपको. निकाह के वक़्त वायदा किया था आपसे हमनें, कि आपकी खुशी में ही हमारी खुशी है....आपकी खुशी और गम में भी आपके साथ रहेंगे हम. आपको सज़ा देना मतलब खुद को सज़ा देना.....वो नहीं करेंगे हम."
मिर्ज़ा अभी भी खामोश थे.
"चलिये ठीक है, हम आप और आपकी खुशियों के बीच नहीं आयेंगे......आप अपनी मोहब्बत के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो हम रोकेंगे नहीं, आप शौक से आगे बढ़िये.....लेकिन एक शर्त है हमारी." ज़ीनत ने कहा. मिर्ज़ा उनकी ओर सवालिया निगाहों से देख रहे थे.
"आप उस दूसरी लड़की को अपनी शरीक-ए-हयात बनाना चाहते हैं, तो ठीक है, मगर एक बात सुनिये, आपकी शादी पहले हमसे हुई है......और आप पर सबसे पहल हक़ हमारा और सिर्फ हमारा ही होगा......"
मिर्ज़ा सुन रहे थे.
"....वो लड़की सौघरा में रानी की मंडी वाली कोठी पर नहीं रहेगी. हम वहाँ ब्याह कर आये थे, और वो घर हमारा है.......वहाँ सिर्फ हम रहेंगें. उस दूसरी बीवी को आप कहाँ और कैसे रखेंगे, ये आपको सोचना है."
अभी भी मिर्ज़ा खामोश थे.
"और एक बात……जब कभी भी और जहाँ कहीं भी हम रहेंगे आपके साथ, वो लड़की……क्या नाम बताया आपने ?.....हाँ, कुलसूम......वो कुलसूम वहाँ नहीं होगी. आपके साथ एक वक़्त पर हम दोनों में से कोई एक ही होगा. अगर वो होगी, तो मैं नहीं और अगर मैं रहूँगी तो वो नहीं."
मिर्ज़ा ने ज़ीनत की सभी शर्तें मान ली थीं.
उसके बाद मिर्ज़ा और ज़ीनत इस बात पर रज़ामंद हुए कि अबकी बार छुट्टियों में जब वो सौघरा जायेंगे तो सैयद साहब और घर के और लोगों को अपने इस फैसले की जानकारी देंगे. उन्होनें आपस में सलाह की थी कि सैयद साहब को यह बात मिर्ज़ा खुद बताएंगे और ज़ीनत अपने मायके वालों को इस बाबत समझायेंगी. इस तरह से वह दोनों ही इस मामले को, दोनों परिवारों के बीच बिना किसी लड़ाई-झगड़े के सुलझाने की राह पर चलेंगें.
इस बीच बैंक से लोन वगैरह का काम फरीद ने पूरा करा लिया था और अब दिल्ली के रजिस्ट्रार के दफ्तर में दोनों ज़मीनों की रजिस्ट्री के लिये अर्ज़ी दी जा चुकी थी. करीब 3-4 महीने इस पूरी प्रक्रिया में लगने थे और इसके बाद वहाँ फैक्ट्री और गोदाम के बनने का काम शुरु होना था. फरीद ने अब अपना ध्यान जालंधर की ओर लगाया और जहाँ कस्तूरिया साहब पहले ही काफी सस्ती कीमत पर दो जगह ज़मीनें तय कर चुके थे. बैंक से कर्ज़ लेकर उन ज़मीनों की रजिस्ट्री की अर्ज़ी भी जालंधर के रजिस्ट्रार ऑफिस में दी जा चुकी थी.
अब कहीं जाकर फरीद, अली साहब और सैयद साहब ने जालंधर के इस प्रोजेक्ट के बारे में शुज़ा, मुराद और मिर्ज़ा को जानकारी दी थी. शुज़ा और मुराद को तो खास फर्क नहीं पड़ा, अलबत्ता मिर्ज़ा और रुखसार के कान ज़रूर खड़े हो गये थे. खासतौर पर मिर्ज़ा पूरी तरह से दंग थे, लेकिन वह किसी से कह भी नहीं सकते थे. ऊपरी तौर पर, सबके सामने तो मिर्ज़ा ने अपने बड़े भाई के गले लगकर उन्हें खूब बधाई दी और उनकी बेशुमार कामयाबी की दुआ की लेकिन अंदरूनी तौर पर उन्हें काफी झटका लगा था. पहले तो उन्हें यह बात काफी बुरी लगी थी कि फरीद, अली साहब और सैयद साहब तक ने उनसे ये बात इतने लम्बे वक़्त तक छिपा कर रखी, लेकिन इस से ज़्यादा गुस्सा और ताज्जुब उन्हें इस बात पर था कि बचपन से ही शर्मीले, डरपोक, दबे-दबे और सहमे-सहमे से रहने वाले फरीद, ने बिना किसी की मदद के, खासतौर पर बिना मिर्ज़ा हैदर की मदद के कैसे जालंधर में दो-दो ज़मीनें, इतने सस्ते दामों पर खरीदने के मुश्किल काम को अंजाम दिया. ये सुनकर वह और भी अचरज में पड़ गये थे कि फरीद ने बिना जालंधर के ज़्यादा चक्कर लगाये, सिर्फ कस्तूरिया जी की मदद से यह काम कर लिया था, और सभी सरकारी दफ्तरों, कागज़ों और मंज़ूरियों से जुड़ी तमाम अड़चनों से पार पाते हुए, ज़मीनों की रजिस्ट्री की अर्ज़ी लगा दी थी.
उधर पिछले करीब 6 महीनों में रशीदा नक़वी के मामले में सुप्रीम कोर्ट में जल्दी ही सुनवाई खत्म हो गयी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि हाईकोर्ट का फैसला सही था, और इस्लाम के शरीयत कानून के मुताबिक गुलाम हसन द्वारा दिया गया तलाक़ बिल्कुल जायज़ है, और अब रशीदा, गुलाम हसन की बीवी नहीं है. देश भर के उलेमाओं, मौलवियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीफ की और रशीदा को लताड़ लगाई.
मुकदमा हारकर सूरनपेट वापस लौटी रशीदा और उसके अब्बू से शहर के कई लिखे-पढ़े लोग, कई मानवाधिकार कार्यकर्ता, जिसमे कई शिक्षित मुसलमान विद्वान भी शामिल थे, फिर से मिले और कहा कि तलाक़ हुआ तो क्या हुआ, तलाकशुदा बीवी को उसके शौहर द्वारा गुज़ारा-भत्ता तो ज़रूर दिया जाना चाहिये. ये गुज़ारा भत्ता तब तक दिया जाये जब तक बीवी दूसरी शादी न कर ले. इसी बात को लेकर उन तमाम लोगों ने रशीदा और उसके अब्बू से हाईकोर्ट में अर्ज़ी दाखिल करने को कहा और इसके लिये रुपये-पैसे से भी मदद करने का भरोसा दिया था. कई लोगों ने बाप-बेटी को यह भी भरोसा दिलाया कि तलाक़ के बाद बीवी को गुज़ारा-भत्ता देने का ज़िक्र इस्लाम के शरीयत कानून में भी है और इस बार वे मुकदमा ज़रूर जीतेंगे. एक मुकदमा बाप-बेटी हार चुके थे इसलिये शुरुआत में तो उन्होनें इस बात को बिल्कुल खारिज कर दिया था लेकिन बार-बार जब उन्हें समझाया गया कि वो सही हैं, और गुलाम हसन गलत, और कोर्ट में रशीदा अबकी बार जीत जायेगी तो उनके अन्दर फिर से भरोसा जगा और रशीदा ने इस बार हाईकोर्ट में गुलाम हसन से 1000 रुपये प्रति माह के गुज़ारे-भत्ते की माँग करते हुए अर्ज़ी दाखिल कर दी थी. देश भर के उलेमा और मौलवी एक बार फिर से रशीदा के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे.
गुलाम हसन और उसके परिवार की हैसियत के मुताबिक 1000 रुपये प्रति माह तो क्या, 200 रुपये प्रति माह भी गुज़ारा भत्ता वो लोग रशीदा को नहीं दे सकते थे. गुलाम हसन के परिवार ने मौके की नज़ाक़त को समझते हुए अदालत के बाहर ही मामला सुलझाना चाहा, और इस बाबत सूरनपेट के कुछ मौलवियों और उलेमाओं से मदद माँगी थी, लिहाज़ा इस बार सुलह की पहल गुलाम हसन के परिवार की तरफ से हुई. गुलाम हसन की तरफ से कहा गया कि वह अब रशीदा से दोबारा शादी करने को तैयार है, और हलाले की रस्म उसके छोटे भाई से एक दिन के लिये रशीदा की शादी करके पूरी कर ली जायेगी. फिर अगले दिन रशीदा से गुलाम हसन शादी कर लेगा और मामला सुलझ जायेगा. लेकिन इस बार खासतौर पर रशीदा ने अपना रुख काफी कड़ा रखा था. उसने सीधे कहा कि अब किसी भी हाल में वह न तो गुलाम हसन के छोटे भाई, और न ही गुलाम हसन से शादी करेगी बल्कि 1000 रुपये प्रति माह का गुज़ारा-भत्ता लेगी और अपना पेट पालने के लिये खुद से ही कोई काम-धंधा वगैरह शुरु करेगी. उलेमा और मौलवियों के बार-बार समझाने पर भी रशीदा टस से मस नहीं हुई और बातचीत टूट गयी.
अगले कुछ महीने इस मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में चली और अदालत ने सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के अनुसार फैसला सुनाया कि गुलाम हसन का तलाक़ हो चुका है, और अब रशीदा उसकी बीवी नहीं है, लिहाज़ा रशीदा तब तक, जब तक कि उसकी दूसरी शादी नहीं हो जाती, गुलाम हसन से 600 रुपये प्रति माह का गुज़ा भत्ता पाने की हक़दार है. इस तरह से हाईकोर्ट ने अबकी बार रशीदा के पक्ष में फैसला सुनाते हुए गुलाम हसन को उसे 600 रुपये प्रति माह का गुज़ारा भत्ता रशीदा की दूसरी शादी तक देते रहने का आदेश दिया.
हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अब देश भर में मौलवियों और उलेमाओं का धरना-प्रदर्शन शुरु हो गया था. उनका कहना था कि कोई भी अदालत इस्लाम के शरीयत कानून में दखल नहीं दे सकती. उनका कहना था कि इस्लाम में तलाक़ के बाद केवल इद्दत की अवधि तक ही शौहर बीवी को गुज़ारा-भत्ता देता है और यह इद्दत का समय 90 दिन का है. इसके बाद बीवी के प्रति शौहर की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. हाईकोर्ट के आदेश को वे लोग मुस्लिम धर्म पर हमला मान रहे थे.
उधर हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ गुलाम हसन ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दाखिल की थी कि रशीदा अब उसकी बीवी नहीं है, लिहाज़ा इद्दत के अलावा गुज़ारा-भत्ता देने की उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, और गुज़ारे-भत्ते की रकम भी उसकी आर्थिक स्थिति के अनुसार ही रखी जाये.
अगले बरस अप्रैल-मई में मुल्क में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होने थे. इस वजह से इस साल के खत्म होते-होते आखिरी के महीनों में सरकारी दफ्तरों में काफी काम करने को था, लिहाज़ा मिर्ज़ा और ज़ीनत पिछले 5 महीने से दिल्ली में ही थे और घर नहीं जा पाये थे. खैर दीपावली पर 3 दिन की छुट्टी मुश्किल से मिली थी और अब मिर्ज़ा, ज़ीनत के साथ घर जा रहे थे. ज़ीनत से किये गये वायदे के मुताबिक उन्हें सैयद साहब और सभी घरवालों को अपनी दूसरी शादी की बात बतानी थी. ज़ीनत की जो शर्तें थीं, उन्ही के मद्देनज़र मिर्ज़ा ने सौघरा के अपने कुछ खास लोगों को, जिसमें दीवान भी शामिल था, उनकों सौघरा में एक अच्छी रिहाईश खोजने के लिये कहा था, जहाँ शादी के बाद कुलसूम को रहना था. अब रानी की मंडी वाली पुश्तैनी कोठी में तो उनको जगह बिल्कुल नहीं मिलनी थी, और मिर्ज़ा अपने दिल के हाथों मजबूर थे. उन लोगों ने भी 2-4 जगह पर कुछ घर देखे थे, और अब मिर्ज़ा को वहाँ जाकर उन्हीं घरों में से एक घर चुनना था. इस तरह से सौघरा में भी मिर्ज़ा के लिये काफी काम इंतज़ार कर रहे थे.
उस रोज़ रात का खाना खाकर सैयद साहब अपने कमरे में चले गये थे और फरीद, मुराद और शुज़ा भी अपनी बीवियों के साथ अपने कमरों में सोने चले गये. इसी वक़्त पर मिर्ज़ा और ज़ीनत सैयद साहब के कमरे में दाखिल हुए. सैयद साहब आँखें बंद कर के लेटे हुए थे मगर सोये नहीं थे. कदमों की आहट सुनकर उन्होनें आँखें खोलीं तो सामने मिर्ज़ा और ज़ीनत खड़े थे. "अरे मिर्ज़ा, ज़ीनत!!....आप लोग यहाँ इस वक़्त ?, सब खैरियत तो है ?" बिस्तर से उठते हुए ,अलसायी हुई आवाज़ में मुस्कुराकर सैयद साहब ने पूछा.
"जी, अब्बू. ठीक है सब." ज़ीनत ने कहा. मिर्ज़ा चुप थे अभी.
"कहिये, कैसे आना हुआ हमारे पास ?"
मिर्ज़ा की हिम्मत नहीं हो रही थी कुछ कहने की. ज़ीनत ने अपनी कुहनी से उनके हाथ पर धीरे से धक्का दिया और धीमी आवाज़ में बोलीं "कहिये तो."
अभी भी मिर्ज़ा चुप ही थे.
सैयद साहब ने कहा "क्या फुसफुसा रहे आप लोग ?.....अरे क्या बात है भाई ?....बताइये तो सही ?"
मिर्ज़ा ने एक बार ज़ीनत की ओर देखा फिर सैयद साहब की ओर देखकर हिचकते हुए कहा "कुछ ज़रूरी बात है अब्बू,……आपसे करनी है."
"हाँ, हाँ, हम सुन रहे हैं…..आप बोलिये."
मिर्ज़ा ने कहा "अब्बू.....हमने सोचा है कि हम.....हम...." मिर्ज़ा पूरी बात बोल नहीं पा रहे थे.
"अरे आगे बोलियेगा ?" सैयद साहब चिढ़ गये थे.
मिर्ज़ा ने अबकी बार हिचकते हुए लेकिन कह दिया ".....हम.....हम दूसरी शादी....करना चाहते हैं."
सैयद साहब ने शायद ठीक से सुना नहीं होगा. उन्होनें फिर से पूछा "क्या ?......क्या कहा आपने ?......हम सुन नहीं पाये आपकी बात......ज़रा फिर से बोलियेगा क्या बोले आप ?"
मिर्ज़ा ने फिर से कहा "अब्बू....हमने कहा कि हम दूसरी शादी....करना चाहते हैं."
सैयद साहब बिल्कुल बुत की तरह बिस्तर पर बैठे थे और उन दोनों को देख रहे थे. उन्होनें जो सुना, उन्हें यकीन ही नहीं हुआ था. वह समझ ही नहीं पा रहे थे कि वह क्या बोलें. कुछ पलों की खामोशी के बाद उन्होनें पूछा "आप जो बोल रहे हैं, क्या वो आपके कानों में जा रहा है ?.....ऐसा तो नहीं कि केवल हम ही सुन पा रहे हैं ?"
"जी अब्बू, आप वही सुन रहे हैं जो हमने कहा है,…..कि हम दूसरी शादी करना चाहते हैं." अब तक मिर्ज़ा का डर जा चुका था.
सैयद साहब ने ज़ीनत से पूछा "बेटी, क्या बोल रहे हैं ये ?" वह अभी भी समझ नहीं पा रहे थे.
ज़ीनत ने बिल्कुल सपाट चेहरे से कहा "अब्बू, ये दूसरी शादी करना चाहते हैं. इन्हें कोई दूसरी लड़की पसंद है."
बिल्कुल चुप बैठे थे अभी तक सैयद साहब. अचानक ही उनके भीतर का ज्वालामुखी फट पड़ा "अरे कतई कमीना है ये लड़का!!!.......दूसरी शादी करेगा ?.....और आप ?.....आप ये मुझे बता रही हैं ?....अरे बीवी हैं आप इनकी, समझ में आ रहा है आपको ?" इतनी ज़ोर से और बेहद गुस्से में चिल्लाने के बाद वह हाँफ रहे थे, उनकी साँसे तेज़ चल रही थीं, नथुने फड़क रहे थे और हाथों की उँगलियाँ और होंठ काँप रहे थे. मिर्ज़ा और ज़ीनत बिल्कुल खामोशी से खड़े थे.
सैयद साहब की आवाज़ सुनकर सबसे पहले रुखसार दौड़ती हुई उनके कमरे में आईं. "क्या हुआ अब्बू ?" वह हाँफ रही थीं.
बाकी के तीनों बेटे अपनी बीवियों के साथ भागते हुए कमरे में आ गये थे. सबने देखा कि मिर्ज़ा और ज़ीनत खड़े हैं और बिस्तर पर सैयद साहब बेहद गुस्से में हैं. फरीद ने पूछा "क्या हुआ अब्बू ?"
"क्या हुआ है ?.....ये पूछिये कि क्या नहीं हुआ है......इस सुअर ने जीते जी मार दिया है हमें." मिर्ज़ा की ओर इशारा करते हुए सैयद साहब बोले. वह अभी भी बहुत गुस्से मे थे "...यही दिन देखने के लिये ज़िंदा रह गये थे हम ?"
सैयद साहब ने मिर्ज़ा की तरफ देखकर कहा "बताइये इनको कि क्या हुआ है ?....सबको बताइये.....बताइये सबको कि क्या गुल खिलाया है आपने ?"
उनके तीनों भाई मिर्ज़ा की ओर देख रहे थे. उन सबकी तरफ देखते हुए मिर्ज़ा ने कहा "हम ये कह रहे थे कि हम दूसरी शादी करना चाहते हैं……और ज़ीनत को इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं है."
यह सुनकर मिर्ज़ा के भाईयों, भाभियों, और रुखसार के चेहरे की हवाइयां उड़ गयी थीं. यह खबर सुनने को वो लोग कभी तैयार ही नहीं थे. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था.
सैयद साहब ने गुस्से में चीखकर पूछा "क्यों करनी है दूसरी शादी ?......अपने भाईयों को देखिये, अपने बाप को देखिये, अपनी बहनों को देखिये.....क्या की किसी ने दूसरी शादी ?...."
मिर्ज़ा और ज़ीनत चुपचाप थे.
"....अरे मियाँ-बीवी में खटपट कहाँ नहीं होती है ?....लेकिन क्या इसका यह इलाज होता है कि दूसरी शादी कर ली जाये ?......बैठ कर बात करने से दुनिया-जहान का कौन सा मसला है जो हल नहीं होता है ?.....आप दोनों समझदार है, दो बच्चों के माँ-बाप हैं, क्या आप लोग अपने मामले हल नहीं कर सकते ?......अरे हमें देखिये मिर्ज़ा!!!, आपकी अम्मी के साथ 45 बरस का साथ था, 45 बरस का....और सिर्फ मौत ही अलग कर सकी हमें...." ये कहते हुए सैयद साहब फफक कर रोने लग गये थे. फरीद और रुखसार उन्हें दिलासा देने और चुप कराने की कोशिश कर रहे थे.
"...मर क्यों नहीं गये हम यह देखने से पहले ?....बेगम हमें भी ले चलतीं अपने साथ.....हमें क्यों छोड़ दिया यहाँ ?" सैयद साहब रोये जा रहे थे.
फरीद ने सख्त लहज़े में पूछा "क्या है मिर्ज़ा ये सब ?"
मिर्ज़ा ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की "देखिये, हम हमेशा से यह चाहते थे कि हमारी शादी हमारी पसंद की लड़की से हो. हमारी ज़िंदगी का इतना अहम फैसला हम खुद लेना चाहते थे.......हम चाहते थे कि जिससे शादी हो, उसे हम जान लें, पहचान लें, उस से कुछ बात तो कर लें.......लेकिन सच्चाई ये रही कि एक अजनबी से हमारी शादी का फैसला हमसे बिना पूछे लिया गया और हम पर थोप दिया गया...."
वे सभी चुपचाप सुन रहे थे.
"...हम बहुत छोटे थे तब, और ऐसे कोई समझदार भी नहीं थे.....अब्बू-अम्मी की बात मान ली हमने, लेकिन अब जबकि किसी और से हमें मोहब्बत है और हम उससे शादी...." मिर्ज़ा अपनी बात पूरी नहीं कर पाये थे, कि सैयद साहब ने बीच में ही चीखकर कहा "बस कर नामुराद!!! बस कर!!......आगे एक लफ्ज़ न बोलना वरना तेरी ज़बान खीच लूँगा.....इस बूढ़े जिस्म में अभी भी इतनी जान बाकी है.." सैयद साहब बेहद गुस्से में थे. वह हाँफ रहे थे, और ऐसा लग रहा था कि उनकी तबियत बिगड़ सकती थी. फरीद ने उन्हें शांत कराने की कोशिश की "चुप हो जाइये अब्बू, तबियत खराब हो जायेगी आपकी...."
सैयद साहब ने फरीद का हाथ झटक कर कहा "अरे चुप रहिये फरीद!!!...ये नालायक….इसकी हिम्मत देखिये......अरे मौत क्यों नहीं आ जाती मुझे ?...." फिर वह मिर्ज़ा की ओर देखकर बोले "...अरे कमीने ये बता, कि कौन सा लड़का है जो शादी तय करने में अपने वालदेन की बात नहीं मानता है ?.....क्या हमने नहीं मानी थी अपने वालदेन की बात ?......क्या आपकी अम्मी को हम जानते-पहचानते थे ?.....क्या आपके भाई-बहनों ने नहीं मानी हमारी बात ?.....क्या ये लोग अपनी बीवियों को पहले से जानते-पहचानते थे ?"…….क्या वाहियात बात कर रहे हो तुम ?......चार किताब पढ़ कर आई.सी.एस. क्या बन गये तुम, तुम्हारा दिमाग सातवें आसमान पर जा पहुँचा ?.....अरे औकात में रह लड़के, औकात में!!.......इतना बड़ा नहीं हुआ है तू अभी!!!......अरे अल्लाह से डर मिर्ज़ा!!!....अल्लाह से डर!!!.....सब देख रहा है वो जो भी तू कर रहा है!!!" सैयद साहब आग उगल रहे थे.
मिर्ज़ा ने तुरन्त ही उनसे कहा "इस्लाम में मंज़ूरी है इस बात की...." लेकिन वह फिर से अपनी बात पूरी नहीं कर पाये थे, सैयद साहब फिर से चीख उठे "...चुप रह तू, बस चुप ही हो जा!!!.....मुसलमान है तू ?.....मुसलमान का मतलब भी जानता है तू ?......अरे मुसलमान वो है जिसका ईमान मुकम्मल होता है, जिसका आमाल पाक होता है.......और तू ?.....अरे कभी सोचा है तूने कि इस प्यारी सी ज़ीनत के बूढ़े माँ-बाप को हम इस उम्र में आकर क्या मुँह दिखाएंगे ?.....अरे लानत है तुझ पर!!"
उस रात काफी बहस हुई. मिर्ज़ा अपनी बात पर कायम थे और सैयद साहब अपनी. लेकिन अंत में बाप को बेटे की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा. सैयद साहब इस बात के लिये तैयार थे लेकिन कुछ बेहद कठिन शर्तें भी उन्होनें जोड़ दी थीं. उन्होनें साफ कहा "इस घर में हमारे चार बेटे हैं और हमारी चार बहुएं नादिरा, शगुफ्ता, रुबैदा और ज़ीनत हैं. इन चार बहुओं के अलावा हमारी न कोई बहू है, न थी और न ही कभी होगी.......ये घर ज़ीनत का है, और ज़ीनत का ही रहेगा. आपकी दूसरी बीवी वो जो भी है, वो कभी रानी की मंडी की इस कोठी की दहलीज़ पर नहीं आयेगी.....और यही नहीं, उससे पैदा जो भी बच्चे होंगे, वो आपके ही होंगे मिर्ज़ा, सैयद सरफराज़ बेग के खानदान के बच्चे नहीं होंगे वो......हमारा न आपकी दूसरी बीवी से रिश्ता होगा ना उसके बच्चों से, और यहाँ इस घर से उन्हें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी..."
मिर्ज़ा खामोश थे.
"...आप इस घर के बेटे हैं, आप यहाँ ज़रूर आ सकते हैं ,लेकिन जब भी आइयेगा, अकेले ही आइयेगा.....लाव-लश्कर के साथ नहीं." सैयद साहब ने मिर्ज़ा की ओर उँगली दिखाते हुए अपनी बात खत्म की और मिर्ज़ा और बाकी सभी को तुरंत ही कमरे से चले जाने के लिये कहा.
अगले दिन ज़ीनत भी अपने मायके गयीं. वहाँ उन्होनें जब सारी बात कह सुनाई तो उनके भी वालदेन को बहुत बुरा लगा. उनके वालदेन ने कहा "फिर बेटी, आप सीधे तलाक़ ही क्यों नहीं दे देती मिर्ज़ा को ?......ये भी कोई तरीका है शादी निभाने का ?"
ज़ीनत ने साफ कहा "नहीं, बिल्कुल नहीं....माना कि वो दूसरी शादी कर रहे हैं लेकिन है तो वो 'दूसरी' ही, वह कभी 'पहली' नहीं हो सकती है........मेरी जो चीज़ है वो सिर्फ मेरी है. मेरी शादी हुई है उनसे, और मेरे शौहर पर सबसे पहला हक़ मेरा ही है. मैं यह हक़ कभी नहीं छोड़ सकती.....कभी किसी हाल में नहीं!!!....वो मेरे हैं."
फिर इसके आगे ज़ीनत के माँ-बाप ने भी कुछ नहीं कहा. ज़ीनत ने भी उन्हें समझा दिया था कि वे सैयद साहब से कुछ नहीं कहेंगे.
जिस दिन ज़ीनत फीरोज़ाबाद गयीं थीं, उसी दिन मिर्ज़ा ने अपने कुछ लोगों के साथ सौघरा के भयाना मोहल्ले में अपने और कुलसूम के लिये रिहाईश देखने गये थे. उन्हें वह जगह और वह घर पसंद आ गया था. उन्होनें मकानमालिक को साफ कर दिया था कि अभी वह इसे किराये पर ले रहे हैं, लेकिन आगे जाकर वह इसे खरीद लेने का भी इरादा रखते हैं, और बदले में मुँहमाँगी कीमत उसे मिल जायेगी, इसलिये वह कहीं और ग्राहक न देखे.
दिल्ली वापस आकर मिर्ज़ा ने कुलसूम से तैयार रहने को कहा कि जब भी छुट्टी मिलेगी, 1-2 दिन के लिये सौघरा जायेंगे और निकाह की रस्म पूरी कर लेंगे. उन्होनें कुलसूम से कह दिया था कि वह, उसकी बहन और उसकी अम्मी भयाना के नये घर में रहेंगी, और दिल्ली की नौकरी उसे छोड़नी होगी, क्योंकि मिर्ज़ा अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके उसे वहीं सौघरा में, भयाना के पास के ही स्कूल में टीचर की नौकरी दिलवा देंगे. अब्बास से कुलसूम का तलाक़ भी मिर्ज़ा ने करवा ही दिया था.
करीब डेढ़ महीने बाद मिर्ज़ा कुलसूम के परिवार के साथ सौघरा आये, लेकिन सीधे भयाना वाले घर गये, अपने रानी की मंडी वाले घर नहीं. आनन-फानन में उन्होनें निकाह की सभी रस्में पूरी की. निकाह और वलीमे में रानी की मंडी से न किसी को आना ही था, न कोइ आया ही. केवल कुछ चुनिंदा लोगों की मौजूदगी में ही बहुत जल्दी से सब कुछ निपटाया गया. मिर्ज़ा ने कुलसूम से कहा था कि दिल्ली में बच्चों के इम्तिहान के बाद सर्दी की छुट्टियां पड़ जायेंगी तब ज़ीनत बच्चों के साथ ही सौघरा आयेंगी. उसी वक़्त कुलसूम मिर्ज़ा के साथ रहने दिल्ली आ जायेंगी, तब वे दोनों कहीं घूमने जायेंगे. इस तरह से अपने मामले सुलझा कर मिर्ज़ा कुलसूम, उसकी अम्मी, और बहन को भयाना छोड़कर दिल्ली निकल लिये थे.
उस दोपहर ज़ीनत दिल्ली के अपने घर के अपने कमरे में बिस्तर पर उदास बैठी थी. बच्चे उनके आगे खेल रहे थे और रेडियो चालू था. बिनाका गीतमाला पर किसी ने फरमाईश की थी, वह गाना धीरे-धीरे बज रहा था –
मदद चाहती है, ये हव्वा की बेटी,
जसोदा की हमजिन्स, राधा की बेटी;
मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी,
जसोदा की हमजिन्स, राधा की बेटी;
पयम्बर की उम्मत, ज़ुलैखा की बेटी,
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं ?
कहाँ हैं ?.......कहाँ हैं ?......कहाँ हैं ?
