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HARSH TRIPATHI

Drama Classics

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HARSH TRIPATHI

Drama Classics

दस्तूर -- भाग-5

दस्तूर -- भाग-5

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कहानी सुनाते-सुनाते यमुना गम्भीर हो गयी, और लम्बी श्वास छोड़ते हुए बोली ".. आदमी की फितरत प्याज़ जैसी होती है। एक छिलके की परत के नीचे दूसरी परत, दूसरी के नीचे तीसरी परत, तीसरी के नीचे चौथी परत...एक-एक करके हर परत निकालते जाओ, नीचे से एक नई परत मिलती ही जाती है।" इतना बोलकर यमुना चुप हो गयी।

शफाक़त ने पूछा "क्या हुआ?। ऐसा क्यों बोला आपने ?"

यमुना ने कुछ चिढ़कर कहा "..और क्या बोलूँ? तुम इंसानों की ज़ात ही ऐसी है। दिखते कुछ हो, बोलते कुछ हो, सोचते कुछ हो, और करते तो कुछ और ही हो।"

शफाक़त मुस्कुराया "...फिर उसके बाद ऐसा क्या किया अब्बू ने?"

यमुना ने कुछ तसल्ली के साथ वहाँ कुछ दूरी पर टहल रहे एक दूसरे लड़के की ओर इशारा कर के कहा "शफाक़त, चाय पी लो पहले तुम कुछ। फिर बताती हूँ आगे।"

वहाँ यमुना के घाट पर ऐसे कई लड़के एक छोटी अँगीठी पर तुलसी के पत्ते मिली हुई चाय का पानी और साथ में नींबू और पापड़ लेकर घूमा करते थे। अंगीठी के निचले हिस्से में कोयला सुलगता रहता था और ऊपर के हिस्से में पानी उबलता रहता था। वे लड़के इसी तरह घाट पर घूमने-फिरने वालों के लिये 'लेमन टी' यानि नींबू की चाय और पापड़ बेचा करते थे। इसी बहाने उनकी भी कुछ आमदनी हो जाया करती थी और घाट पर घूमने वालों को भी अच्छा लगता था।

शफाक़त ने भी उस लड़के को आवाज़ दी। वह पास आ गया और शफाक़त को एक प्लास्टिक की गिलास में नींबू की चाय, और साथ मे एक छोटा पापड़ भी दिया। शफाक़त ने उसे कुछ पैसे दिये और लड़का चला गया।

चाय पीते हुए और पापड़ खाते हुए शफाक़त ने कहा "जी, आगे बताइये।"

यमुना ने बताना शुरु किया "चारबाग स्टेशन से उस दिन देर रात मिर्ज़ा ने दिल्ली की गाड़ी पकड़ ली थी और अगली सुबह बिल्कुल तड़के, करीब 5 बजे वो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन उतरे। उनका बहुत खास आदमी और ड्राइवर, दीवान—जो कहने को तो महज़ एक ड्राईवर था लेकिन असल में उस से कहीं बढ़कर था—कार लेकर वहाँ मौजूद था। मिर्ज़ा को देखकर उसने बड़े अदब से झुककर सलाम किया लेकिन दीवान के पास पहुँचकर मिर्ज़ा ने पहला सवाल यही किया "बरफखाने गये थे तुम? बोला था उनको?"

"जी, वो 10 बजे आ जायेंगे...तब तक आप आराम कर लीजियेगा और ढंग से नाश्ता वगैरह भी।" दीवान ने जवाब दिया।

मिर्ज़ा को लेकर दीवान पहाड़गंज की और निकल पड़ा।

दीवान सिंह सौघरा का ही था। मिर्ज़ा की जब आई.सी.एस. की नौकरी लगी, तो कुछ समय गुज़ारने के बाद ही उनको यह समझ में आ गया था कि हर किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। कोई एक आदमी ऐसा होना ही चाहिये जो हर वक़्त उनके साथ साये की तरह हो, और जिसके ऊपर आँख बंद करके भरोसा किया जा सके, और सिर्फ इतना नहीं, वह आदमी उनका राज़दार हो, जो उनकी हर बात को अपने ही तक रखे। उसी वक़्त मिर्ज़ा की नज़र दीवान पर पड़ी और मिर्ज़ा को वह आदमी अपने काम का लगा। मिर्ज़ा ने उसे ड्राईवर के तौर पर अपने साथ रख लिया और उसके बाद मिर्ज़ा की पोस्टिंग जब-जब और जहाँ-जहाँ हुई उन्होनें हमेशा दीवान को अपने पास रखा। पिछले करीब 10 सालों में दीवान वाकई में बेजोड़ निकला था, और कागज़ पर केवल ड्राइवर होते हुए भी, मिर्ज़ा के लिये वह बड़ा काम का आदमी साबित हुआ था, बिल्कुल वैसा ही जैसा मिर्ज़ा ने सोचा हुआ था। मिर्ज़ा के सारे राज़ दीवान को पता थे और बड़ी ही खूबसूरती से उसने इन सभी पर पर्दा कर रखा था। मिर्ज़ा ने इसी दीवान को लखनऊ सेक्रेटेरियेट से फोन किया था।  

पहाड़गंज पहुँच कर मिर्ज़ा की गाड़ी कई छोटी, घुमावदार और तंग गलियों से गुज़रती हुई एक बड़े गेस्ट हाउस के सामने आकर रुकी। रीगल गेस्ट हाउस पहाड़गंज का नामी गेस्ट हाउस था। कमरे भी काफी महँगे मिला करते थे वहाँ। मिर्ज़ा का वहाँ काफी आना-जाना था और वह उस गेस्ट हाउस के नियमित ग्राहक थे। रिसेप्शन काउँटर पर मिर्ज़ा के पहुँचते ही कारिंदा उठ कर खड़ा हो गया और मिर्ज़ा को झुककर सलाम किया। मिर्ज़ा ने वहाँ काउंटर पर रखे एक लाल रंग के रजिस्टर की ओर अपनी आँखों से इशारा किया और सिर्फ इतना कहा "...ह्म्म्म।"

कारिंदे ने बिना कुछ बोले रजिस्टर खोला और मिर्ज़ा की एंट्री लिखी। ग्राहक के नाम वाले कॉलम मे लिखा – "नूर मलिक।"

फिर एंट्री पूरी करने के बाद वहीं काउंटर पर रखे कई अखबारों में से आज सुबह का हिंदी अखबार उठाते हुए स्टाफ के एक दूसरे आदमी से कहा "ये न्यूज़पेपर लो और साहब को छोड़ आओ कमरे तक", तभी मिर्ज़ा ने उसे टोका "ये नहीं, वो वाला अखबार। " और एक दूसरे अंग्रेज़ी अखबार की ओर इशारा किया। उस कारिंदे ने हिंदी अखबार रखकर मिर्ज़ा की मर्ज़ी का अंग्रेज़ी अखबार उठाते हुए उस दूसरे आदमी से कहा "ये न्यूज़पेपर लो और साहब को छोड़ आओ कमरे तक।" और फिर से झुक कर सलाम किया और मुस्कुराते हुए कहा "कोई ज़रूरत हो तो बुलवा लीजियेगा साहब।" मिर्ज़ा ने फीकी सी मुस्कान के साथ 50 रुपये का नोट काउंटर पर रखा और बिना कुछ बोले दूसरे आदमी के साथ चले गये। दीवान उनका सामान लिये उनके पीछे-पीछे ही था। कमरे के पास पहुँच कर उस आदमी ने ताला खोला जिसके बाद तीनों कमरे के भीतर दाखिल हुए। गेस्ट हाउस के आदमी ने बिजली, पंखा चालू किया और गुसलखाने की ओर बढ़ा, तभी दीवान ने कहा "..आप जाओ, हम देख लेंगे।" वह आदमी ठहर गया। दीवान ने उसे 10 रुपये दिये और अपनी आँखों से ही जाने का इशारा किया। मिर्ज़ा को सलाम करता और खीसें निपोरता हुआ वह आदमी चला गया।

उसके जाने के बाद दीवान ने कमरा बंद किया और मिर्ज़ा से बोला "आप नहा-धो लीजिये, मैं नाश्ता लगवा देता हूँ।" मिर्ज़ा ने जवाब में सिर्फ इतना कहा "ह्म्म्म्म।"

फिर उन्होनें अपनी अटैची खोलकर अपना टूथब्रश, मंजन, और बाकी के सामान निकाले और गुसलखाने की ओर बढ़ गये। दीवान उनके लिये नाश्ता बोलने नीचे रिसेप्शन काउंटर पर चला गया।

सुबह के 6 बज रहे थे। थोड़ी देर बाद मिर्ज़ा नहा-धो कर, और कपड़े बदलकर बाहर आये और बिस्तर पर बैठ गये। उन्होने बिस्तर पर रखा अखबार उठाया और सुबह की सुर्खियों को जाँचना शुरु किया। तभी दीवान कमरे में दाखिल हुआ जिसके पीछे गेस्ट हाउस का एक आदमी एक बड़ी ट्रे में कुछ खाली प्लेटें, दो कप गर्म चाय और कुछ आलू के परांठे और अचार लेकर आया था।

दीवान ने उसे नाश्ते की वह ट्रे वहीं कमरे की मेज पर रखने का इशारा किया। वह आदमी ट्रे वहीं रखकर चला गया। दीवान ने उसमें से दो परांठे, अचार और एक कप चाय मिर्ज़ा के पास वहीं बिस्तर पर रख दिये और खुद सामने की ओर कुछ दूर हटकर खड़ा हो गया।

मिर्ज़ा ने अखबार देखते हुए कहा "तुम भी ले लो दीवान।"

"मैं ले लूंगा साहब। आप खा लीजिये पहले।" मिर्ज़ा के वफादार सिपाही ने कहा।

मिर्ज़ा ने अखबार एक ओर रखा और सिर ऊपर करके दीवान की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोले "अरे ले लो दीवान। ऐसे मत खड़े रहो।"

"जी ठीक है साहब" इतना बोलकर दीवान ने एक दूसरी प्लेट मे एक परांठा और चाय का कप रखा और प्लेट लेकर, कुछ दूर हटकर पहले की तरह खड़ा हो गया। मिर्ज़ा अपना नाश्ता शुरु कर चुके थे।

"कब जाओगे उनको लेने?" मिर्ज़ा ने चाय पीते हुए पूछा।

"जी बस अभी, कुछ वक़्त में। " दीवान ने जवाब दिया।

"ह्म्म्म्म। ठीक है।"

फिर कुछ वक़्त तक कमरे मे खामोशी ही छाई रही। सिर्फ चाय की चुस्कियाँ और कटलरी की आवाज़ें ही उस खामोशी को तोड़ती थीं।

चाय और परांठे खत्म करके मिर्ज़ा के कहा "थोड़ा आराम करेंगे दीवान हम" और वहाँ रखी चादर अपने पैरों पर डाल ली और पलंग के सिरे पर एक तकिया रखकर उस पर अपनी पीठ टिका दी, और साथ में अपना अखबार लेकर बैठ गये। दीवान भी तब तक नाश्ता कर चुका था। उसने अपने और मिर्ज़ा के बर्तन उस बड़ी ट्रे में रखे और पूरी ट्रे उठाकर कमरे के बाहर रख दी। मिर्ज़ा से फिर उसने कहा "कुछ काम है साहब, मै चलता हूँ....आते वक़्त बरफखाने से उनको लेता आऊँगा।" अखबार में डूबे मिर्ज़ा ने बिना उसकी ओर देखे कहा "ह्म्म्म्म।" मिर्ज़ा का ये अंदाज़ दीवान के लिये कोई अनजाना नहीं था, और उसे इस बात का बुरा भी कतई नहीं लगा। वह कमरे के दरवाज़े से बाहर निकल गया।

लगभग आधे घंटे तक अखबार पढ़ कर फिर मिर्ज़ा को नींद आने लगी थी। अखबार उन्होनें एक ओर रखा और तकिये पर, जिस पर अभी तक अपनी पीठ टिकाई हुई थी, अब अपना सिर रख कर लेट गये।

धीरे-धीरे मिर्ज़ा की आँखें बंद हो रही थीं लेकिन उनके खयालों की आँखें पूरे तरह से खुली हुई थीं।

कुलसूम बानो से मिर्ज़ा की मुलाक़ात करीब चार साल पहले हुई थी। दिल्ली के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल मे मुदर्रिस थी वह। मिर्ज़ा तब दिल्ली के एजुकेशन विभाग में बड़े अफसर थे। उनके विभाग का एक बड़ा जलसा उस रोज़ सिविल लाइंस के टाउनहॉल में हो रहा था जहाँ अपने स्कूल की तरफ से कुलसूम गयी हुई थीं, वहीं पर दोनों की आँखें चार हुई थीं। लम्बे कद की गोरी और खूबसूरत कुलसूम पर मिर्ज़ा देखते ही दिल हार बैठे थे। धीरे-धीरे कुलसूम भी उनके इश्क़ में गिरफ्तार हो गयी थी। दिल्ली के बाहर भी मिर्ज़ा जहाँ भी रहे, थोड़े-थोड़े वक़्त पर दिल्ली आते रहे, कुलसूम से बराबर मिलते रहे और कुलसूम से उनका इश्क़ परवान चढ़ता गया। इश्क़ इतनी आसान फसल नहीं होती, बराबर खाद-पानी देना ही पड़ता है। इसी दौरान कुलसूम ने मिर्ज़ा को बताया कि वह शादी-शुदा है लेकिन शौहर निहायत ही कमीना, निकम्मा और दारूबाज़ है जिसकी वजह से वह अपनी अम्मी के साथ अपने मायके पुरानी दिल्ली के बरफखाने के पास रहती है। मिर्ज़ा कुलसूम के इश्क़ मे इस क़दर पागल हो गये थे कि उन्होने कुलसूम से शादी तक करने का वायदा कर डाला और कुलसूम को उसके शौहर से तलाक़ दिलवाने मे भरपूर मदद करने का भी भरोसा दिया था।

कुलसूम ने ये सब अपनी अम्मी को भी बता रखा था और वह भी इस बात से काफी खुश थी कि एक बड़े अफसर का दिल उनकी बेटी पर आ गया है, और अब उनकी बेटी को उस नामुराद लड़के से हमेशा के लिये छुटकारा मिल जायेगा और फिर कुलसूम मिर्ज़ा हैदर की बेगम बनेगी। इसी रास्ते से माँ-बेटी की ज़िंदगी से गरीबी का साया हमेशा के लिये हट जायेगा और उनके भी दिन फिर जायेंगे।

कुलसूम के घर की माली हालत काफी खराब थी। उसके अब्बू का इंतक़ाल तब हो गया था जब कुलसूम छोटी ही थी। अम्मी ने दूसरी शादी की थी लेकिन शौहर ने तलाक़ दे दिया था। फिर कुलसूम की अम्मी ने शादी नहीं की और दो बेटियों को अकेले ही पालने का बीड़ा उठाया। बरफखाने के पास एक सँकरी से गली में एक बड़ी पुरानी, बदसूरत सी दो-मंज़िला इमारत की निचली मंज़िल पर उनकी सिलाई और कपड़े प्रेस करने की छोटी से दुकान थी, जबकि ऊपरी मंज़िल में कुलसूम, उसकी अम्मी और छोटी बहन रहते थे। घर का गुज़ारा भी बड़ी मुश्किल से ही चल पाता था। फिर जहाँ दो जवान लड़कियाँ अपनी बेवा माँ के साथ रहती हों, तो आस-पास के लोग भी ताड़ते ही रहते हैं। कुलसूम की शादी बड़े जतन से, बड़े अरमानों से उसकी अम्मी ने दरियागंज के एक परिवार में की थी लेकिन लड़का अब्बास एकदम घटिया ही निकला, और कुलसूम फिर से बरफखाने आ गयी अपनी अम्मी के पास। अब तो फिक़रे कसने के लिये भी मोहल्ले वालों को मौका मिला हुआ था। छोटी बहन पिंकी की शादी की अभी बात चल रही थी लेकिन बात कहीं बनी नहीं थी। पिंकी की पढ़ाई बारहवीं के बाद बंद हो गयी थी और वह माँ के साथ दुकान पर हाथ बटाती थी।

गनीमत यह थी कि कुलसूम पढ़ने-लिखने में काफी अच्छी निकली थी और इसी वजह से पढ़ाई के बाद उसकी नौकरी भी दिल्ली के सरकारी स्कूल में लग गयी थी। नौकरी के बाद अब उसे कुछ अच्छी तनख्वाह मिलने लगी थी और अब उन लोगों के घर की हालत में कुछ बेहतरी आयी थी, फिर भी बरक़त केवल तनख्वाह में ही नहीं, महँगाई में भी होती है, और इसी वजह से कुलसूम की नौकरी के बावजूद घर के खर्चे बस किसी तरह चल पाते थे।

इसीलिये जब कुलसूम ने जब मिर्ज़ा के बारे में अपनी अम्मी को बताया, तो उनकी बाछें खिल गयीं। कुलसूम से उन्होने साफ कहा था "बेटा, ऐसा मौका जाने मत देना। सिर्फ तेरी ही नहीं, हम सबकी ज़िंदगी जो अभी बंजर, उजाड़ सेहरा ही है खुशियों का बाग बन जायेगी अगर उस अफसर की शादी तुझसे हो गयी तो.....इसलिये उस पर ऐसा जादू चला कि तेरे अलावा वह सब कुछ भूल जाये।"

कुलसूम ने पूछा "क्या मुमकिन है ऐसा अम्मी? शादी-शुदा हैं वो, और दो छोटे बच्चे भी हैं ही... मुझे तो सही नहीं लग रहा ये।"

अम्मी ने डपटते हुए कहा "क्या बात कर रही है तू बेटी?...अरे अपनी ताक़त को पहचान तू... लड़की है तू, और वह भी बला की खूबसूरत...आखिर क्या नहीं कर सकती है तू?.... अरे पागल लड़की, ये मर्द कुत्ते जैसे होते हैं। ये केवल ऊपरी तौर पर दिखने में ही सख्त होते हैं, खूबसूरती और हुस्न पर तो ये ऐसे फिसलते हैं कि दुनिया में इनसे ज़्यादा कमज़ोर कोई इंसान नहीं हो सकता है।"

 "....और क्या कह रही है तू कि वो शादी-शुदा है और बाल-बच्चेदार है?....अरे कुछ फर्क नहीं पड़ता उससे। इस्लाम में एक मर्द आराम से बिना तलाक़ दिये जितनी चाहे उतनी बीवियाँ रख सकता है।" और इस तरीके से कुलसूम की अम्मी ने इस रिश्ते को हरी झंडी न सिर्फ दिखाई बल्कि अपनी बेटी को रास्ता भी बता दिया था।

अपनी माँ की इस सलाह के बाद भी शुरु-शुरु में कुलसूम ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया और थोड़ी हिचकिचाहट भी उसके ज़ेहन में थी। कुलसूम का ईमान उससे ये बार-बार कहता था कि इस रिश्ते पर आगे बढ़ना ठीक नहीं है.... एक शादी-शुदा इंसान का घर अपने फायदे के लिये बर्बाद कर देना सही नहीं है.....लेकिन मिर्ज़ा की शख्सियत ही कुछ ऐसी थी कि कुलसूम खुद को मिर्ज़ा की मोहब्बत में गिरफ्तार होने से रोक न पायी थी। अब वह भी मिर्ज़ा को दिल-ओ-जान से चाहने लगी थी और अपना घर मिर्ज़ा के साथ ही बसाना चाहती थी। इश्क़ कम्बख्त चीज़ ही ऐसी है। एक अदना सा इंसान इश्क़ में कितना हिम्मती हो जाता है और कब हद से गुज़र जाता है, खुद उसे ही पता नहीं चल पाता। कुलसूम के साथ भी इश्क़ में ऐसा ही हुआ था। दिमाग की सुनते-सुनते वह कब अपने दिल की सुनने लगी, उसे इल्म ही नहीं हुआ।  

मिर्ज़ा की ज़ीनत से शादी उनके माँ-बाप के कहने से हुई थी, मिर्ज़ा की मर्ज़ी से नहीं, और इसका मलाल भी पढ़े-लिखे और हिंदुस्तान की सबसे बेहतरीन नौकरी कर रहे मिर्ज़ा को हमेशा रहता था। जबकि कुलसूम को खुद मिर्ज़ा ने ही पसंद किया था और अब मिर्ज़ा कुलसूम से बहुत प्यार करने लगे थे। आये दिन कुलसूम के घर महँगे तोहफे पहुँचने लगे थे। यहाँ तक कि जब मिर्ज़ा दिल्ली से बाहर रहे तब भी उन्होने कुलसूम के घर का पूरा ध्यान रखा था और जब कभी मिर्ज़ा दिल्ली में होते थे तब तो कुलसूम को घर से लेने-छोड़ने बाक़ायदा कार आया करती थी।

ज़ीनत अपने शौहर मिर्ज़ा की इस मेहनत से बिल्कुल बे-खबर थीं।

करीब डेढ़-दो घंटे की नींद पूरी करके मिर्ज़ा उठे और हाथ-मुँह धोकर तरोताज़ा हो गये थे। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। मिर्ज़ा बिस्तर पर बैठे-बैठे ही बोले "कौन है?"

आवाज़ आई "रूम सर्विस सर....आपसे मिलने कोई आया है।"

"भेज दीजिये अंदर।"

और फिर वह आदमी चला गया। थोड़ी देर बाद फिर से दस्तक हुई। मिर्ज़ा ने बिस्तर पर बैठे हुए कहा "आ जाइये अंदर।"

एक बुर्कानशीन खातून दरवाज़े से कमरे के भीतर दाखिल हुई, पीछे-पीछे दीवान भी था लेकिन वह कमरे के अंदर नहीं आया। खातून ने पीछे मुड़कर दरवाज़ा बंद कर दिया और अपना बुर्का निकालकर दरवाज़े के पीछे जड़े एंगल पर टाँग दिया। फिर कुलसूम मिर्ज़ा के बिस्तर की ओर धीरे-धीरे बढ़ चली।

कुलसूम को देखते ही मिर्ज़ा की खुशी का पारावार न रहा और वह उनकी मुस्कुराहट के ज़रिये साफ झलकने लगी। मिर्ज़ा ने सोचा था कि कुलसूम आकर खुशी में झूमकर तुरंत ही उनसे लिपट जायेंगी मगर ऐसा हुआ नहीं। कुलसूम का चेहरा गुस्से से लाल हुआ रखा था और वह चुपचाप बिस्तर पर मिर्ज़ा के बगल ही आकर बैठ गयी। मिर्ज़ा की ओर देखने की बजाय वह सामने दीवार की ओर देख रही थी।

मिर्ज़ा ने हँसते हुए कुलसूम को छेड़ा "अरे क्या बात है मोहतरमा?....आग लग जायेगी अभी यहाँ।" और अपना हाथ कुलसूम के कंधे पर रख दिया।

कुलसूम ने गुस्से मे अपने हाथ से मिर्ज़ा का हाथ अपने कंधे से झटक कर उतार दिया। मिर्ज़ा ने फिर से मुस्कुराकर कहा "अरे!!...इतनी बेरुखी?...और वो भी हमसे?"

कुलसूम ने सामने दीवार की तरफ देखते हुए गुस्से में लेकिन धीमी आवाज़ में कहा "....और किस से होगी?"

"क्यों? उस कम्बख्त अब्बास ने कुछ कहा क्या?...बताइये आप, हम सीधा करवा दें उसको दो मिनट में" मिर्ज़ा ने फिर ठिठोली करते हुए कहा।

"अब्बास क्या कहेगा, जब पूरी दुनिया ही सवाल कर रही हो तो।" कुलसूम अभी भी बेहद गुस्से मे थी।

"क्या मतलब?"

दीवार कि ओर देखती, दाँत पीसते हुए और शब्दों को चबाते हुए कुलसूम बोली "मतलब यह मिर्ज़ा हैदर साहब कि मैं लड़की हूँ....और मुझे यह सब सुनना पड़ता है।" कुलसूम अब चुप हो गयी थी लेकिन उसकी तेज़ साँसों की चलने की आवाज़ कमरे में साफ सुनाई दे रही थी और उसकी आँखों से धारे निकलकर उसके गालों पर लुढ़क रहे थे।

मिर्ज़ा की मुस्कान अब खत्म हो चुकी थी। उन्होने फिर से कुलसूम के कंधे पर हाथ रखा और बोले "हमारे रहते आपकी आँखों में आँसू अच्छे नहीं लगते कुलसूम, चुप हो जाइये आप, और पूरी बात बताइये....आपकी हर तक़लीफ हमारी तक़लीफ है। बताइये क्या बात है?" यह कहते हुए मिर्ज़ा कुलसूम के आँसू पोछने लगे।

कुलसूम ने सुबकते हुए कहा "तक़लीफ तो वही पुरानी है मिर्ज़ा जो हम आपसे पिछले तीन सालों से कह रहे हैं।" यह कहकर कुलसूम मिर्ज़ा से लिपट गयी।

मिर्ज़ा खामोश थे और कुलसूम की पीठ पर हल्की थपकियाँ दे कर उसे शांत करने की कोशिश कर रहे थे।

कुलसूम मिर्ज़ा से अलग हुई और मिर्ज़ा ने उन्हें बगल में गिलास में रखा पानी पीने को दिया। पानी पीकर वह कुछ शांत हुई। मिर्ज़ा अब भी उसे देख रहे थे।

कुलसूम ने अब वह सवाल पूछा जिसे मिर्ज़ा पिछले तीन बरसों से गोल-गोल घुमाते आ रहे थे "मिर्ज़ा, हम शादी कब कर रहे हैं?....आज अम्मी फिर से पूछ रही थीं।"

"क्या बगैर शादी किये हम आपसे मोहब्बत नहीं करते? या आपको शक है हमारे इश्क़ पर?.....क्या आपको लगता है ऐसा कि हमारा इश्क़ महज़ एक तारीख और एक बूढ़े, खूसट क़ाज़ी का मोहताज है?" मिर्ज़ा ने पूछा।

".....लेकिन मिर्ज़ा, इश्क़ अंजाम तक भी पहुँचना चाहिये।" गुस्से में कुलसूम बोली।

मिर्ज़ा अभी भी चुप थे।

".....और इश्क़-विश्क़ की ये फालतू की लफ्फाज़ी छोड़िये....हमें अच्छी तरह से पता है कि इस हुनर में मानिंद हैं आप.....असल बात ये है कि लोग सवाल करते हैं, और हमारे पास कोई जवाब नहीं होता....और जानते हैं, सबसे बुरी हालत तब होती है जब बाहर लोग हमारी अम्मी और हमारी बहन से सवालात करते हैं, और वो लोग घर में आकर हमसे सवाल पूछती हैं। न हम अपनी अम्मी और बहन से कुछ कह पाते हैं, और न वो लोग बाहर कुछ कह पाती हैं।" कुलसूम ने बोलना जारी रखा।

मिर्ज़ा कुलसूम को चुपचाप देख रहे थे।

"...घर पर महँगे तोहफे भिजवाना और लेने-छोड़ने के लिये कार भिजवाना कभी शादी की जगह नहीं ले सकता है मिर्ज़ा।" कुलसूम रोते हुए बोलीं।

मिर्ज़ा चुप ही थे।

कुलसूम ने फिर दु:खी होकर कहा "आज फिर अम्मी ने पूछा कि हम लोग शादी कब करेंगे?....और हम हमेशा की तरह ही कोई जवाब नहीं दे सके।"

मिर्ज़ा ने कुछ देर और खामोश रहने के बाद कहा "इंशाअल्लाह, बहुत जल्द होगी हमारी शादी।"

"ये मैं तीन सालों से सुन ही रही हूँ।" कुलसूम ने कहा।

मिर्ज़ा ने मुस्कुराकर कहा "आप रोना बंद कीजिये और पहले आप आराम से बैठ तो जाइये।" ये कहकर मिर्ज़ा ने बिस्तर के सिरहाने पर बड़ी सी एक तकिया रखी और कुलसूम से कहा "यहाँ बैठिये आप।" कुलसूम उसी जगह पर जाकर बैठ गयी।

इतने मे दरवाज़े पर दस्तक हुई। मिर्ज़ा ने कहा "अन्दर आ जाओ दीवान।"

दीवान एक ट्रे में दो चाय और एक प्लेट में नमकीन लेकर अन्दर दाखिल हुआ और बिस्तर के बगल में रखी मेज पर ट्रे रखकर चला गया। मिर्ज़ा ने एक चाय कुलसूम को पीने को दी, और एक चाय खुद लेकर बिस्तर पर कुलसूम के बगल में ही एक दूसरी बड़ी तकिया के सहारे बैठ गये। दोनो के बीच में उन्होने नमकीन की प्लेट रख दी थी।

चाय की चुस्कियों के बीच मिर्ज़ा ने कुलसूम से कहा "आपको शायद कुछ डर लगता हो कि हम अपने वादे के पक्के नहीं है, और आपको बीच मझधार में छोड़कर ही, बिना आपसे शादी किये, अपने रास्ते चलते बनेंगे.....ऐसा नहीं है कुलसूम। आप हमारी ज़िंदगी हैं, और आपको छोड़कर या आपको कोई तक़लीफ पहुँचाकर हम ज़िंदा भी नहीं रह सकते....अल्लाह जानता है कुलसूम, हमने पूरी ईमानदारी से आपसे मोहब्बत की है, और इस मोहब्बत को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिये भी हम पूरी तरह से वाबस्ता हैं।"

"लेकिन कब?" कुलसूम ने सीधे सवाल किया।

"आप हमारी सच्ची मोहब्बत हैं कुलसूम, और आपको अपनी शरीक़-ए-हयात बनाने से पहले हम खुद को इस हालात में मुकम्मल कर लेना चाहते हैं कि ताउम्र आपको और हमारे बच्चों को किसी तरह की कोई भी तक़लीफ छू न सके.... और फिलहाल तो हम उसी हालात में पहुँचने की जद्दोजहद में मसरूफ हैं, और अब ऐसा लगता है कि अल्लाह भी इसमें हमारी मदद ज़रूर करता हुआ नज़र आ रहा है।"

"क्या मतलब?"

"हमारे घर पर बात चल रही है कुलसूम, अपना खानदानी कारोबार दिल्ली और पंजाब में बढ़ाने के लिये। ।और इसके लिये हमारे अब्बू और हमारे भाइयों ने हम पर काफी भरोसा भी जताया है। सीधे-सीधे कहूँ तो सरकारी अमले में मेरी पोजीशन और ताक़त की मदद से हमारे अब्बू दिल्ली और पंजाब में अपना कारोबार फैलाना चाहते हैं।" मिर्ज़ा ने बताया।

"तो?"

मिर्ज़ा ने आगे समझाया "इसका मतलब यह है कि दिल्ली और पंजाब में कारोबार पर हमारी यानि मिर्ज़ा हैदर की मज़बूत पकड़ होगी। दिल्ली में कारोबार का मतलब है कि सोने की फसल काटना....और इसका मतलब यह कि आने वाले कुछ वक़्त में बेशुमार दौलत और ताक़त के मालिक होंगे हम यानि मिर्ज़ा हैदर....और यानि कि आप।"

कुलसूम मिर्ज़ा को देख रही थी।

"....और तब हम आपसे शादी करेंगे। हमारे ज़ेहन में अब यही बात चल रही है कि जल्द से जल्द इस कारोबारी मंसूबे को अमली जामा पहनाया जाये और हम दोनों अपने इस रिश्ते को उसकी मंज़िल पर पहुँचा सकें।" हँसते हुए मिर्ज़ा ने कहा।

चाय पीते हुए कुलसूम बोली "लेकिन मिर्ज़ा, दौलत और ताक़त की कोई कमी तो आपको अभी भी नहीं है। इस मुल्क की सबसे बेहतरीन नौकरी कर रहे हैं आप और वो भी पिछले 10 सालों से भी ज़्यादा वक़्त से.... फिर एक अदना सा कारोबारी मंसूबा पूरा करने की इतनी बेचैनी क्यों है?"

मिर्ज़ा मुस्कुराये। अब तक उनकी चाय खत्म हो चुकी थी। अपना कप बिस्तर के नज़दीक रखी मेज पर रखे ट्रे पर उन्होने रखा और उस बड़ी सी तकिया के सहारे बिस्तर पर अधलेटे हुए कुलसूम को समझाया "कुलसूम, आपकी बात सही है कि हम एक मानिंद नौकरी कर रहे हैं, और अब एक सीनियर अफसर भी हैं, लेकिन है तो यह एक नौकरी ही। महीने के आखिर में गिने-चुने ही पैसे मिलते हैं.....न एक पैसा ज़्यादा, न एक पैसा कम..... ऐसे में केवल एक अदद सरकारी नौकरी के सहारे हम अपने बीवी-बच्चों को, आप लोगों को कभी वह ज़िन्दगी नहीं दे सकते जो हम देना चाहते हैं..."

कुलसूम सुन रही थी।

"...... लेकिन कारोबार की तो बात ही निराली है। कारोबार की दुनिया का तो कोई ओर-छोर ही नहीं है। जितनी मेहनत कीजिये, उतना मुनाफा, और जितना मुनाफा, सब आपका। "

कुछ चिढ़ते हुए मिर्ज़ा बोल रहे थे "....सरकारी नौकरी में है क्या? 60 बरस तक की नौकरी और उसके बाद गिनी-चुनी, एकमुश्त पेंशन, बस यही न?..... नौकरी के बाद आपको आपके हाल पर छोड़ दिया जायेगा....बस एक फेयरवेल होगा आपके दफ्तर में आपकी नौकरी के आखिरी दिन, जहाँ आपको फूल-मालाएं पहनाई जायेंगी और कहा जायेगा कि आपने इस सर्विस को 35 साल दिये और आपने बहुत अच्छा काम किया। उसके बाद क्या?....उसके बाद झाँकने नहीं आयेगा कोई। और कारोबार में?....पहली बात तो कारोबार आपका अपना होता है, और आप उसमें मालिक होते हैं, नौकर नहीं। फिर कुलसूम, संस्कृत में कहा भी गया हैं कि "उद्यमेन वसति लक्ष्मी", मतलब कारोबार में ही बरकत है, पैसा है और बेपनाह पैसा है.....और आज की दुनिया में जिसके पास पैसा है, उसी के पास ताक़त है…। "

कुलसूम सुन रही थी।

"....नौकरी तो एक पर्दा है जो ज़रूरी है बस। इस से ज़्यादा कुछ और नहीं।" मिर्ज़ा ने कहा।

कुलसूम ने फिर पूछा "मिर्ज़ा आप घर-बार वाले हैं। कहीं आपकी बीवी और आपके ससुराल वालों ने हमारी शादी पर ऐतराज़ किया तो?"

मिर्ज़ा ने हँसते हुए कहा "पहली बात तो ये कि आपसे शादी करने से हमें दुनिया की कोई ताक़त नहीं रोक सकती। आपसे मोहब्बत की है हमने, और वो भी अपनी मर्ज़ी से.....हमारी पहली शादी हमारी मर्ज़ी से नहीं हुई थी। वो अब्बू और अम्मी की मर्ज़ी से हुई थी, और हम पर ज़बरदस्ती थोपी गयी थी.....फिर यह भी तो एक बात ही है, कि खुद अल्लाहताला ने फरमाया है कुलसूम....इस्लाम में एक मर्द की कई बीवियाँ हो सकती हैं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। "

कुलसूम मिर्ज़ा को गौर से सुन रही थी।

"....ज़ीनत और उनके घर वालों में इतनी ताब नहीं है, कि वो हमारे किसी भी फैसले पर ऐतराज़ कर सकें।"

कुलसूम ने फिर पूछा "कहीं कोर्ट-कचहरी का चक्कर हुआ तो?"

मिर्ज़ा ने मुस्कराते हुए कहा "पहली बात तो यह कि होगा नहीं ऐसा। मैं उन लोगों को अच्छी तरह जानता हूँ। दूसरी बात यह कि अगर ऐसा हुआ भी, तो भी फैसला हमारे हक़ में ही आयेगा……। आपने वो सूरनपेट वाला मुकदमा....रशीदा नक़वी वाला, सुना नहीं है क्या? हाईकोर्ट ने भी उन्हे कोई राहत देने से इंकार कर दिया है, अब वो खातून सुप्रीम कोर्ट में जायेंगी.....और ऐसा बहुत ही कम हुआ है अब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटा हो.....मतलब यह कि उन्हें वहाँ भी मुँह की खानी पड़ेगी। सीधा सा मतलब है यह कि कोर्ट किसी इंसान के ज़ाती मामलों में किसी तरह का कोई दखल नहीं कर सकती, और कम से कम इस्लाम के ज़ाती मामलों में तो कतई नहीं। अब अगर ज़ीनत और उनके घर वाले अदालत जाते भी हैं तो सिवाय वक़्त और पैसों की बरबादी के और कुछ भी उनके हाथ नहीं आयेगा।" 

कुलसूम को सूरनपेट केस या रशीदा नक़वी के बारे में न तो कुछ पता था, न तो उसे उस बारे में कुछ जानने की दिलचस्पी थी। वह मिर्ज़ा की बनाई दुनिया में खुश थी। उसे मिर्ज़ा की हर बात सही लगती थी। "फिर आप सीधे तलाक़ ही क्यों नहीं दे देते?" कुलसूम ने सवाल किया।

"....क्योंकि हम अपने अब्बू और मरहूम अम्मीजान का दिल दुखाना नहीं चाहते। । उनके फैसले की इज़्ज़त रखना चाहते हैं।"

"यह तो तब भी होगा मिर्ज़ा, जब आप हमसे शादी करेंगे। । दिल तो दुखेगा ही उनका। फिर क्या कीजियेगा?"

"जब तक ऐसा नहीं हो रहा है, तब तक नहीं हो रहा है। । जब ऐसा होने का मौका आ ही जायेगा तो ये भी होगा ही।" मिर्ज़ा ने कुलसूम की आँखों में देखते हुए बहुत साफ जवाब दिया। बिल्कुल ऐसे ही थे मिर्ज़ा हैदर बचपन से ही। अपने किसी काम के अंजाम की एक हद से ज़्यादा परवाह तो कभी की ही नहीं थी उन्होने।

"और अगर आपके भाईयों या अब्बू ने कुछ कहा तो?" कुलसूम ने फिर पूछा।

मिर्ज़ा रौबीली मुस्कान के साथ कुलसूम की आँखों में देखते हुए बोले "औक़ात ही नहीं है किसी की उस घर में मिर्ज़ा के बराबर में खड़े होने की,......ऐतराज़ तो बहुत दूर की बात है। ।"

कुलसूम चुपचाप सुन रही थी।

"....अपने भाईयों को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कुलसूम....नाकारा और निकम्मे हैं सब। जो लोग खुद ज़िंदगी में कभी कुछ हासिल नहीं कर सके हों, किसी लायक नहीं हों, मिर्ज़ा हैदर से नज़रें मिलाने की कुव्वत ही नहीं है उनमें। "

"....और रही बात अब्बू की, तो अब उनकी उम्र हो चली है। फिर मेरे ही दम पर वो कारोबार दिल्ली और पंजाब में बढ़ाने का मंसूबा बाँध रहे हैं…। अब्बू को भी बिल्कुल सही तरीके से पता है कि उनके किस बेटे में कितना दम है और कौन कितना क़ाबिल है। मेरी बात की खिलाफत तो वो नहीं ही करेंगे ……। और अगर करते भी हैं, तो भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। मिर्ज़ा हैदर वही करेंगे जो उनकी मर्ज़ी होगी बस।" मिर्ज़ा ने बड़े भरोसे से अपनी बात खत्म की।

कुलसूम मिर्ज़ा को देख रही थी और मिर्ज़ा के हौसले, और खुद-ऐतमादी पर दंग थी। मिर्ज़ा के लिये कुलसूम के दिल में मोहब्बत और भी मज़बूत होती जा रही थी।

उस शाम को कुलसूम जब घर पहुँची तो खुश नज़र आ रही थी। ऐसा होता भी था कि जब कभी भी वह मिर्ज़ा से मिलकर आती थी तो खुश दिखाई देती थी। उसे देखकर उसकी अम्मी ने चिढ़ते हुए सवाल किया उससे "क्या बात है? बड़ी खुश दिख रही है तू....क्या बोला उस हरामी ने? फिर से गच्चा दिया होगा ना उसने जैसे तीन साल से दे रहा है?"……नवाबज़ादा है न वह बड़ा अफसर....खाली बिस्तर सजाने के लिये ही बुलाता है न बस?.... तुझे देखकर लग रहा है कि तुझे भी बस वही चाहिये....हम लोगों का तो खयाल भी नहीं है न तुझे?"

कुलसूम फट पड़ी "अम्मी चुप रहिये आप!!.... जब आपको कुछ नहीं पता तो खुदा के वास्ते न बोला कीजिये"।

कुलसूम कपड़े बदलकर आयी और अपनी अम्मी के पास पानी क एक गिलास लेकर बैठी। अम्मी काफी नाराज़ थी और उसकी ओर देख भी नहीं रही थी। कुलसूम ने उनको समझाया "देखिये अम्मी, मिर्ज़ा ने हमें आज पूरी बात बताई है कि वो शादी में देर क्यों लगा रहे हैं.... वो शादी करेंगे और ज़रूर करेंगे, बस कुछ वक़्त की बात है।"

"क्या बोला उसने? बता?" अम्मी ने पूछा।

कुलसूम ने मुस्कुराते हुए कहा "मिर्ज़ा ने कहा है कि आने वाले कुछ वक़्त में उनके पास बेशुमार दौलत और ताक़त आने वाली है, और इसका फायदा यह होगा कि तब जब वह हमसे शादी करेंगे तो किसी से भी हमें या हमारे बच्चों को कोई खतरा नहीं होगा और हम लोग एक आलीशान ज़िंदगी जियेंगे"।

अम्मी ने पूछा "क्या मतलब?"

 "दरअसल उनके परिवार में दिल्ली और पंजाब में कारोबार बढ़ानी को लेकर बात चल रही है.....और उसको बढ़ाने का ज़िम्मा मिर्ज़ा पर ही डाला गया है, क्योंकि मिर्ज़ा इन्तज़ामियत में बड़े ओहदे पर, एक सीनियर अफसर हैं, और कारोबार बढ़ाने में मिर्ज़ा का रुतबा और ताक़त काफी काम आयेगी। एक बार जब दिल्ली मे कारोबार जम जायेगा तब उसका सबसे ज़्यादा फायदा मिर्ज़ा को ही होगा, और हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में कारोबार बढ़ने और चमकने का मतलब बेहिसाब दौलत और शोहरत। मिर्ज़ा इस वक़्त इसी काम में लगे हुए हैं और ये काम होते ही हम लोग शादी कर लेंगे।"

अम्मी ने पूछा "कितना वक़्त अभी और लगेगा इसमे?"

कुलसूम ने कहा "बड़ा काम है अम्मी, बड़े काम में वक़्त तो लगता ही है....फिर भी मिर्ज़ा ने कहा है कि घर पर बात हो गयी है, और अब जल्द ही दिल्ली में कारोबार के लिये जगह-ज़मीन वगैरह देखी जाने वाली है.....पूरी उम्मीद है कि शादी जल्द होगी"।

अम्मी ने कहा "चल, इसको भी देखते हैं"।

कुलसूम ने कहा "अम्मी, अब ये उनकी दूसरी शादी होगी। वैसे तो अल्लाहताला ये फरमाते हैं कि इस्लाम में मर्द कितनी भी शादियाँ कर सकता है, लेकिन एक बात तो यह भी है कि दूसरी शादी से उनके घर वाले खुश तो नहीं होंगे, और उनके ससुराल वाले तो कतई नहीं.....ऐसे में ये बहुत ज़रूरी ही होगा कि दूसरी शादी से पहले हम लोग ऐसी हालत में पहुँच जायें जहाँ कोई लाख बुरा चाह कर भी हमारा बाल बाँका न कर सके और हम महफूज़ भी रहें, और खुश भी.....इसलिये ये कारोबारी मंसूबा पूरा होना ज़रूरी है।"

अम्मी ने भी 'हाँ' में सिर हिलाया। 

शफाक़त चुपचाप बैठा यमुना में बनती-बिगड़ती लहरें देख रहा था। यमुना ने हँसते हुए पूछा "कहाँ खो गये शफाक़त तुम?"

शफाक़त ने कुछ बोलने के लिये अपने होंठ खोले थे, मगर फिर उसके होंठ खुद-ब-खुद बंद हो गये। शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहा जाये। वह बिल्कुल खामोश बैठा था लेकिन उसकी बेचैनी साफ नज़र आ रही थी। यमुना ने ठिठोली की "आगे नहीं सुनना क्या?...क्या सोच रहे हो तुम?.....अरे भाई, तुम इंसानो की बिरादरी ही ऐसी है। जब से इंसान इस ज़मीन पर आया है, तब से ही दग़ाबाज़ी और धोखाधड़ी, बेईमानी उसके हमसफर रहे हैं।"

शफाक़त ने धीरे से कहा "अजीब बात है। क़ाशनी साहब जैसे इंसान के शागिर्द होकर भी अब्बू इस तरह की सोच रखते थे।"

यमुना ने कहा "इश्क़ और जंग में सब जायज़ है शफाक़त..... और तुम्हारे अब्बू को इश्क़ भी हुआ था, और अपने घर के भीतर ही अपने भाईयों से एक किस्म की अनकही जंग में भी वो मुब्तिला थे। । "

शफाक़त अभी भी खामोश था।

"....और शफाक़त, थोड़ा बताना तो मुझे कि तालीम और सोच में कोई मेल हो, क्या ये ज़रूरी है?.....किसने कहा तुमसे ये?"

यमुना ने आगे हँसते हुए कहा "....और रही बात क़ाशनी साहब की, तो हर इंसान की तरह उनकी भी कुछ कमज़ोरियां थी....तभी तो मैंने कहा कि इंसान प्याज़ की तरह होता है, एक परत के नीचे दूसरी परत, दूसरी के नीचे तीसरी, फिर चौथी..... और ये परतें प्याज़ के साथ ही खत्म होती हैं।" 

शफाक़त ने पूछा "मतलब?"

यमुना ने बताना शुरु किया "सौघरा कॉलेज के ही हिंदी विभाग के एक प्रोफेसर हुआ करते थे उन दिनों, डॉ. अखिलानंद नाम था उनका। जिस तरह से उर्दू में क़ाशनी साहब की धाक थी उसी तरह हिंदी में डॉ. अखिलानंद का मुक़ाम था। क़ाशनी साहब के लंगोटियायार थे डॉ.  अखिलानंद और दोनों ने ही इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एक साथ अपनी बी.ए., एम.ए., और पी.एचडी. तक की पढ़ाई पूरी की थी और एक साथ ही सौघरा कॉलेज में उर्दू और हिंदी डिपार्टमेंट में ज्वाइन किया था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पहले भी यहाँ सौघरा में भी स्कूल में दोनो साथ ही पढ़े थे। इस तरह से उन दोनों का बहुत पुराना याराना था। क़ाशनी साहब प्यार से डॉ. अखिलानंद को 'माई डियर अखिल' कहकर बुलाते थे और डॉ. अखिलानंद से मिलकर खुद बिल्कुल बच्चे ही बन जाया करते थे। दोनों ही एक दूसरे की ज़िंदगी की अब तक की सभी तक़लीफों, और सभी खुशियों में बराबर के साझीदार थे। बस दोनों में दो ही फर्क थे, एक तो यह कि क़ाशनी साहब मुसलमान थे, और डॉ. अखिलानंद हिंदू, और दूसरा यह कि डॉ. अखिलानंद ने अभी तक शादी नहीं की थी।"

"क्यों?" शफाक़त ने पूछा।

"क्योंकि उन्हें कोई लड़की अब तक पसंद ही नहीं आई थी।" यमुना ने कहा।

"अजीब है ये। नहीं?....साठ की उम्र तक कोई लड़की ही नहीं पसंद आई उन्हें?" शफाक़त ने ताज्जुब किया।

यमुना ने कहा "क्यों? अरे कोई लड़की अब नहीं पसंद आई तो नहीं आई…। इसमें अजीब क्या है?"

शफाक़त चुप ही था।

यमुना ने फिर कहा "दरअसल, बात यही थी कि डॉक्टर साहब को लड़कियाँ कभी पसंद नहीं आईं.... उन्होनें अपने लिये लड़का पसंद किया था।"

शफाक़त झल्ला उठा "क्या वाहियात बात कर रही हैं आप?...आप का मतलब कि डॉ. अखिलानंद ने लड़का पसंद किया था, और इस वजह से शादी नहीं की थी?...क्या ये कहना चाहती हैं आप?"

"मैं यह कहना नहीं चाहती शफाक़त, बल्कि हक़ीक़त ही यही थी।" यमुना ने कहा।

"ऐसा कैसे हो सकता है?....किसी मर्द को मर्द ही कैसे पसंद आ सकता है?" शफाक़त ने चिढ़कर पूछा।

"क्यों नहीं आ सकता है?....कोई इंसान किसी दूसरे इंसान को पसंद कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता है। इसमें कौन सी बड़ी बात है? जिस तरह से किसी लड़के को कोई लड़की पसंद आ सकती है, या फिर किसी लड़की को कोई लड़का, ठीक उसी तरह से किसी लड़के को कोई लड़का भी पसंद आ सकता है और किसी लड़की को कोई लड़की.... तो इंसानी जज़्बात हैं शफाक़त....इंसान कोई लोहे-पीतल-ताँबे, और स्विच और तार से बना मशीनी पुतला तो है नहीं जिसके चलने के कुछ पक्के नियम-कानून हों, वह तो एक जीता-जागता इंसान है...हर इंसान की अपनी पसंदगी और नापसंदगी होती ही है। कुदरत ने उसे ऐसा ही बनाया हुआ है।"

"घिन आती है मुझे आपकी बातें सुनकर....छि:!" शफाक़त ने प्रतिक्रिया व्यक़्त की।

यमुना मुस्कुराई "तुम्हारे नाक-भौं सिकोड़ने से किसी इंसान की सच्चाई बदल तो नहीं जायेगी।"

"आगे बताएं आप।" शफाक़त ने कहा।

यमुना ने फिर कहा "डॉ. अखिलानंद और क़ाशनी साहब की बचपन से चली आ रही यह दोस्ती इतनी गहरी थी कि वो दोनों एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे, और कब यह दोस्ती, दोस्ती के दायरे को पार करके कुछ और ही शक्ल अख्तियार कर चुकी थी, उन दोनों को पता भी नहीं चला।"

"क्या?" शफाक़त यह सुनकर बिल्कुल अवाक़ रह गया था और बे-ऐतबारी से उसका मुँह खुला का खुला रह गया था।

यमुना इसे देखकर मुस्कुरा रही थी। फिर कुछ वक़्त बाद गम्भीर होकर बोली "उन्हें एहसास ही नहीं हुआ था कि उनका दोस्ती का रिश्ता कब एक ऐसे दायरे में दाखिल हो चुका था जहाँ माशरे में उन दोनों के लिये कोई जगह नहीं थी। लेकिन उन्हे यह इल्म बखूबी था कि जिस दिन उनका यह राज़ दुनिया के सामने आया, उन्हें सड़कों पर घसीटकर मौत के घाट उतार दिया जायेगा, और इसलिये उन्होने अपने इस रिश्ते को पूरी दुनिया से छुपाकर ही रखा था।"

शफाक़त ने पूछा "ये सब कुछ कब से चल रहा था?"

"बहुत पहले से ही, क़ाशनी साहब की शादी के भी काफी पहले से ही।" यमुना ने जवाब दिया।

"फिर शादी कैसे कर ली क़ाशनी साहब ने?"

"माँ-बाप और रिश्तेदार जब बार-बार अपने सवालों की सुईयाँ चुभोते हैं, तो थक-हारकर इंसान झुक ही जाता है। क़ाशनी साहब की शादी भी ऐसे ही हुई। । अब आखिर अपने घर वालों से तो वह कह भी नहीं सकते थे कि उनकी पसंद क्या है, इसलिये उन्होनें चुप-चाप गुलफिशाँ बेगम से शादी की रज़ामंदी दे दी थी।"

"और डॉक्टर साहब?... क्या सवालों की सुईयाँ उन्हें नहीं चुभीं?"

"डॉक्टर साहब, क़ाशनी साहब से कहीं ज़्यादा ज़िद्दी, बेहया और बहादुर साबित हुए। अपने घर वालों को कई सालों तक गोल-गोल घुमाते ही रहे, और इतने में शादी की उम्र निकल ही गयी....फिर एक वक़्त के बाद लोग भी कहना छोड़ ही देते हैं।" यमुना ने मुस्कुराते हुए कहा।

"क्या क़ाशनी साहब की शादी के बाद भी यह रिश्ता बना रहा?" शफाक़त ने पूछा।

"....न सिर्फ बना रहा बल्कि और मज़बूत, दर-मज़बूत होता गया।"

"और गुलफिशाँ बेगम?"

"क़ाशनी साहब ने आखिर तक किसी पर भी, यहाँ तक कि गुलफिशाँ बेगम पर भी यह राज़ ज़ाहिर नहीं किया था। वो आखिर तक इस पर पर्दा करने में कामयाब ही रहे।"

"लेकिन फिर गुलफिशाँ बेगम से निबाह कैसे किया क़ाशनी साहब ने इतने सालों तक?"

"वैसे ही जैसे कोई शौहर अपनी बीवी से करता है। एक शौहर के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने में क़ाशनी साहब कभी भी, कहीं से ही कमज़ोर साबित नहीं हुए। गुलफिशाँ बेगम को शादी के बाद करीब 50 सालों तक क़ाशनी साहब ने ज़िंदगी की तमाम मुमकिन खुशियाँ दी और कभी शिक़ायत का मौका नहीं दिया।"

"मतलब एक साथ दो रिश्ते कैसे निभा सके वो?" शफाक़त ने सवाल किया।

"बस ऐसे ही शफाक़त.... वैसे ही जैसे तुम्हारे अब्बू कई रिश्ते एक साथ निभा रहे थे..." यमुना ने तुरंत ही पलटकर शफाक़त को टका सा जवाब थमा दिया।

शफाक़त को यह बात लग गई थी लेकिन वह चुप ही रहा। यमुना समझ गयी थी कि शफाक़त को उसकी ये बात खल गई है। यमुना ने उसे आगे समझाते हुए कहा "...इंसान बेहद शानदार नस्ल होती है और कुछ भी कर सकती है। क़ाशनी साहब थे तो आखिर इंसान ही।  न सिर्फ उन्होनें दो रिश्ते निभाये, बल्कि क्या खूब निभाये।"

शफाक़त अभी भी चुप था।

यमुना ने कहा "देखो शफाक़त, हम लोग गलती यह करते हैं कि हम हमेशा किसी भी बात को सिर्फ अपने नज़रिये से ही देखते हैं, और उसी को हमेशा सही मानते हैं……जबकि हकीकत में ऐसा नहीं होता है। किसी दूसरे की सोच जो हमसे बिल्कुल अलग हो, ज़रूरी नहीं कि वह गलत ही हो। जो बात हमारे लिये गलत है, शायद किसी और के लिये सही हो। जो किसी और के लिये गलत है, शायद वह हमारे लिये सही हो। ।"

"....इंसान बेशक इस क़ायनात की सबसे उम्दा बशर है, लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं होता कि वह कमज़ोर नहीं होता। । हर इंसान की कुछ कमज़ोरियाँ होती ही हैं, और देखो तो इसी वजह से वह इंसान है, नहीं तो क्या वह खुदा न हो जायेगा?"

शफाक़त ने केवल इतना कहा "जी।"

".... तुम्हारे अब्बू, कुलसूम बानो, क़ाशनी साहब, डॉ. अखिल, ये सभी लोग आखिर हाड़ माँस के बने इंसान ही तो थे, जो अपनी-अपनी कमज़ोरियों के आगे बेबस थे, बाकी बाहरी दुनिया के लिये ये चाहे जैसे रहे हों।"

"फिर क्या हुआ?" शफाक़त ने पूछा।

यमुना बताने लगी "फिर हुआ यह कि तब तक हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बाकायदा जंग छिड़ चुकी थी। करीब अगले 6-7 महीने इस मुल्क पर भारी गुज़रे थे। उसके बाद सोवियत रूस ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के लीडरों को मुलाक़ात करके इस समस्या का हल निकालने के लिये ताशकंद बुलाया। हमारे यहाँ से हमारे वज़ीर-ए-आज़म शास्त्री जी गये थे। वहाँ पर सीज़फायर पर दस्तखत हो गये थे और लड़ाई बंद हो गयी थी। लेकिन इसके तुरंत बाद वहीं ताशकंद में शास्त्री जी कि मौत हो गयी। यह खबर आते ही यहाँ हिंदुस्तान में आनन-फानन में रूलिंग पार्टी की मीटिंग हुई जिसमें पंडित नेहरू जी की बेटी इंदिरा गाँधी को वज़ीर-ए-आज़म के ओहदे के लिये चुना गया। अब किसी नाज़ुक सी गुड़िया जैसी दिखने वाली इंदिरा गाँधी हिंदुस्तान की वज़ीर-ए-आज़म थीं।"

यमुना ने अपनी बात जारी रखी "जब दिल्ली के माहौल में थोड़ा सुधार हुआ, तब फरीद ने अपने अब्बू सैयद साहब, अली साहब और मिर्ज़ा से सलाह की और दिल्ली में कारोबार जमाने के मकसद से लोगों से मिलना-जुलना, बात करना, डिस्ट्रीब्यूटर्स की खोज करना और सही जगह की तलाश करना शुरु कर दिया था। इन सभी कामों में मिर्ज़ा साये की तरह उनके साथ रहे थे...."

"....ये सब जब चल ही रहा था, उसी समय सैयद साहब के ज़ेहन में बार-बार एक बात आ रही थी। इसका ज़िक्र तो उन्होनें किसी से किया नहीं था लेकिन इसे लेकर वो कुछ परेशान ज़रूर थे। अली साहब जो पिछले करीब 40-45 बरसों से सैयद साहब के हमसफर रहे थे, वो तुरंत ही इस बात को ताड़ गये कि सैयद साहब के मन में कुछ चल रहा है। एक दिन दफ्तर में अकेले में उन्होने पूछ ही लिया "पिछले कुछ दिन से देख रहा हूँ सैयद साहब आपको....आप, आप नहीं लग रहे हैं। मालूम होता है कि अपने दिल में आप किसी उलझन से परेशान हैं। अगर आप हमें बताना सही समझें, तो हमारे साथ अपनी उलझन साझा कर सकते हैं आप। आपको ऐसे तक़लीफ में देखकर हमें अच्छा नहीं लगता है।"

सैयद साहब ने मुस्कुराकर जवाब दिया "क्या बात करते हैं आप अली साहब?... अपनी उलझन आपसे जो साझा नहीं करेंगे तो और किससे करेंगे?....पिछले 40-45 सालों से हम आपके ऊपर खुद से भी ज़्यादा भरोसा करते आये हैं अली साहब और हम तो बिल्कुल कहेंगे कि हर मुसीबत और हर खुशी के वक़्त में हमने आपको अपने साथ खड़ा पाया है। बेगम के इंतक़ाल के बाद अगर जो आप हमारे साथ न होते तो न जाने क्या होता?.... हमारी तो सोच के रूह काँप जाती है अली साहब। "

अली साहब खामोशी से सुन रहे थे।

"....आपको अपनी उलझन हम ज़रूर बतायेंगे और आपसे ही उसका हल भी पूछेंगे, लेकिन दफ्तर उसके लिये सही जगह नहीं है। कल आप हमारे घर आयें शाम 4 बजे, तब आपको हम तफ्सील से बतायेंगे।" सैयद साहब ने कहा।

अली साहब ने पूछा "क्यों?.....कल शाम 4 बजे क्यों सैयद साहब? कारखाना और दफ्तर तो शाम के 6 बजे बंद होता है, तब तक तो हम लोग यहीं रहते हैं। फिर दो दिन बाद इतवार है, हम लोग और सभी बच्चे भी आराम से आपके घर पर मिलते हैं। जो भी उलझन है, वह सुलझ ही जायेगी।"

सैयद साहब हँसकर बोले "नहीं, नहीं अली साहब। बच्चों के आगे वह बात नहीं करनी है। सिर्फ आपसे ही करनी है। थोड़ा बात ही कुछ ऐसी है।"

अली साहब ने फिर ज़्यादा कुछ नहीं कहा और अगले दिन शाम के 4 बजे सैयद साहब के घर मिलने की हामी भर दी।

शाम को घर पहुँचकर सैयद साहब ने अपनी बड़ी बेटी जहाँआरा के ससुराल टेलीफोन किया और ये कहलवाया कि कल शाम को जहाँआरा को कुछ वक़्त के लिये मायके भेज दें, कुछ ज़रूरी काम है। जहाँआरा के घर वालों ने उसे जाने की मंज़ूरी तुरंत ही दे दी और कहा कि उसका देवर सुबह 10-11 बजे ही उसे अपने मायके छोड़ देगा। सैयद साहब ने उनका शुक्रिया अदा किया और फोन नीचे रख दिया।

टेलीफोन पर की गयी इस बातचीत से घर में तो बाकी किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ा लेकिन एक इंसान था जिसके कान खड़े हो गये थे, और वो थी सैयद साहब की छोटी बेटी रुखसार। "अब ये जहाँआरा यहाँ क्यों आ रही है?... अब्बू ने खास तौर पर फोन करके उसको क्यों बुलवाया है?" रुखसार के दिमाग में अब यही सवाल घूम रहा था।

मिर्ज़ा से उस मुलाक़ात के करीब बीस-एक रोज़ बाद जब स्कूल में कुलसूम अपनी मित्र अध्यापिकाओं के साथ गप्प लड़ा रही थी, तभी उनमे से कई ने सूरनपेट के रशीदा नक़वी वाले मामले का ज़िक्र किया। ये सुनते ही कुलसूम को याद आया कि पिछली मुलाक़ात में मिर्ज़ा ने भी इसी मामले की बात की थी और कुलसूम को इस बात का भरोसा दिया था कि उनकी शादी को कोइ खतरा नहीं है। कुलसूम स्टाफ रूम से सीधे उठकर स्कूल की लाईब्रेरी में पहुँची और पिछले एक-डेढ़ महीने के पुराने अखबार और न्यूज़ मैगज़ीन उठा ली।

कुलसूम के घर अखबार या न्यूज़ मैगज़ीन नहीं आया करती थी, क्योंकि कुछ पैसे बच जायें इस गरज़ से वो लोग अखबार वगैरह नहीं मँगाते थे। देश-दुनिया की जानकारी के लिये वो गाहे-ब-गाहे रेडियो वगैरह सुन लेती थी, लेकिन ज़्यादा गहराई से नहीं। कुलसूम अखबारों की उस कमी को यहाँ लाईब्रेरी में बैठकर पूरा कर लेती थी और हर 2-3 दिन पर सुबह यहाँ आकर अखबारों की सुर्खियों पर एक नज़र डाल लेती थी। कभी बहुत गौर से अखबार नहीं पढ़ा करती थी वह लेकिन आज बड़ी बारीकी से वह पिछले 30-40 दिन के सभी अखबारों और न्यूज़ मैगज़ींस को खंगाल रही थी। आज उसने इस वजह से अपने दो पीरियड भी छोड़ दिये थे और खराब तबियत का बहाना करके अपनी जगह अपनी दोस्त को जाने को कह दिया था।

अखबारों और मैगज़ींनों को डेढ़-दो घंटे तक मेहनत से खंगालकर कुलसूम को जो समझ में आया वह यह था कि उन दिनों दक्कन के एक छोटे से शहर सूरनपेट का रशीदा नक़वी का मामला बड़ी सुर्खियों में था। बात यह थी कि शहर की एक खातून रशीदा नक़वी का निकाह शहर के ही एक आदमी गुलाम हसन से हुआ था। लड़की वालों की तरफ से दी जाने वाली दहेज की रक़म शादी के वक़्त शायद कुछ कम थी जिसकी वजह से लड़के वालों का मुँह टेढ़ा ही रहा था, और इसी वजह से रशीदा के घरवालों ने लड़के वालों से वायदा किया था कि आगे वह यह रक़म बढ़ाकर दे देंगे। शादी के बाद रशीदा के अब्बू, जो पेशे से एक बैंक में चपरासी ही थे, उनको बाकी की रक़म लड़के वालों को देने में काफी दिक्कत पेश आ रही थी। धीरे-धीरे ससुराल में रशीदा को परेशान किया जाने लगा। शुरुआत ताने सुनाने से हुई और फिर बाद में उसके पति गुलाम हसन, सास और ससुराल के दूसरे लोग उसको बिना बात पीटने भी लगे। गुलाम हसन, जो शहर की अनाज मंडी में बेलदारी करता था, हद दर्जे का घटिया आदमी था। रात को अक्सर ही बीवी से गाली-गलौज करना फिर मार-पीट करना उसकी आदत थी। घरवाले भी उसी की तरफ रहते थे जिस से रशीदा अकेली पड़ जाती थी।

एक रोज़ वो काम करके घर वापस आया। उस दिन रशीदा की तबियत कुछ खराब ही थी, जिसकी वजह से रात के खाने में कुछ देर हो रही थी। गुस्से में भरे गुलाम हसन के मुँह से रशीदा और उसके अब्बू के लिये गालियाँ निकलने लगी। इस बात से रशीदा गुस्से में आ गयी और मियाँ-बीवी में गंदी वाली बहस शुरु हो गयी। घर के दूसरे लोग भी गुलाम हसन की तरफ से ही रशीदा को उल्टा-सीधा बोलने लगे और रशीदा की आवाज़ भी तेज़ होती जा रही थी। इसी दौरान गुलाम हसन ने रशीदा को एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया और तीन दफा 'तलाक़, तलाक़, तलाक़' कहकर एक झटके में तलाक़ दे दिया। उसी रात रशीदा रोती हुई अपने मायके चली गयी जहाँ सारी बात कह सुनाई। अगले कुछ दिन बाद ही दोनो परिवारों के लोग बात-चीत से मसला सुलझाने बैठे लेकिन गुलाम हसन के घरवाले पहले से दिमाग बनाकर आये थे। उनकी साफ बात थी, कि इस्लाम के मुताबिक़ अब रशीदा और गुलाम हसन का तलाक़ हो चुका है। अब हलाले की रस्म पूरी होकर ही दोबारा शादी हो सकेगी। इसी बात पर बात-चीत टूट गयी। गुलाम हसन के घरवालों ने आगे कोई भी बात करने से इंकार कर दिया और कहा कि ये शर्त पूरी हों, तभी रशीदा अपने ससुराल वापिस आ सकेगी।

अपने दफ्तर में रशीदा के अब्बू ने जब अपने साथियों और कुछ अफसरों को दु:खी होकर यह सारी बात बताई, तो उनकी सलाह थी कि कोई वकील कीजिये और कोर्ट में केस कीजिये। यह उस बैंक के मामूली से चपरासी के बस के बाहर की बात थी कि वह कोर्ट-कचहरी का खर्च उठा पाता। धीरे-धीरे यह बात जब फैलने लगी तो शहर के कुछ पढ़े-लिखे, भले मानुस लोग, जिसमें कुछ शिक्षित मुसलमान भी शामिल थे वो सामने आये और कहा कि वो रुपये-पैसे से रशीदा और उसके अब्बू की पूरी मदद करेंगे अगर वो कोर्ट में गुलाम हसन और उसके परिवार के खिलाफ केस करेंगे। उनका हौसला पाकर रशीदा ने सूरनपेट कोर्ट में केस कर दिया कि गुलाम हसन का दिया गया तलाक़ गलत है, और अभी भी वह उसकी बीवी है। दहेज की बात को लड़की वाले जानबूझ कर छुपा लिया था और इस मुद्दे को कोर्ट में नहीं ले गये। मामले की सुनवाई के बाद सूरनपेट कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा कि इस्लाम के शरीयत कानून के मुताबिक़ तलाक़ बिल्कुल सही है। यह मियाँ-बीवी का आपसी मामला है और कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी।

फिर इस फैसले के खिलाफ रशीदा ने हाईकोर्ट में गुहार लगाई लेकिन अभी कुछ दिन पहले ही हाईकोर्ट का फैसला इस पर आ गया था कि इस्लामी शरीयत कानून के मुताबिक़ दोनों का तलाक़ हो चुका है और अब रशीदा गुलाम हसन की बीवी नहीं है, और इस तरह से सूरनपेट कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट ने बरक़रार रखा था। अब तक ये मुक़दमा सूरनपेट के दायरे को पार कर के काफी सुर्खियों में आ चुका था और कई मौलवियों और इस्लामी मामलों के जानकारों ने भी सूरनपेट कोर्ट और फिर हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया था। उनका कहना था कि गुलाम हसन द्वारा दिया गया तलाक़ सही है और लड़की को हलाले की रस्म पूरी करनी होगी अगर उसे गुलाम हसन से फिर से निकाह करना है तो। उनमें से कइयों का कहना यह भी था कि किसी भी कोर्ट को इस्लाम के शरीयत कानून से छेड़-छाड़ करने का कोई हक़ नहीं है। यही नहीं, कई लोगों ने रशीदा के इस मामले को कोर्ट में ले जाने को लेकर उसकी कड़ी मज़म्मत तक की थी और कहा था कि एक सच्ची मुस्लिम औरत ऐसा नहीं कर सकती।

फिलहाल अब ये खबरें आ रही थी कि रशीदा अब हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी।

मिर्ज़ा उस दिन कुलसूम से इसी मामले की बात कर रहे थे। इस मुकदमे को गहराई जानने, और मिर्ज़ा की हैसियत और ताक़त पहचानने के बाद कुलसूम समझ गई थी कि मिर्ज़ा और उसकी शादी को कोई खतरा नहीं होगा।             


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