HARSH TRIPATHI

Drama Classics

4  

HARSH TRIPATHI

Drama Classics

दस्तूर - भाग-3

दस्तूर - भाग-3

39 mins
512


दस्तूर – भाग-3

 कारोबार में मिर्ज़ा की सलाह लेने और मिर्ज़ा के ओहदे और ताल्लुक़ात का इस्तेमाल कारोबार बढ़ाने के लिये करने की अली साहब की सलाह और सैयद साहब, फरीद का इस से राज़ी हो जाना, यह बात शुज़ा और मुराद के गले नहीं उतर रही थी। वह दोनों यह चाहते थे कि मिर्ज़ा अपनी सरकारी नौकरी करें और अपने काम से काम रखें। घर के कारोबार से मिर्ज़ा को दूर ही रहना चाहिये। उनका मानना था कि आखिर मिर्ज़ा की नौकरी में तो शुज़ा या मुराद दखल नहीं कर रहे थे, फिर मिर्ज़ा को क्यों यह छूट दी जा रही थी कि वह कारोबार में दखल करें उन दोनों के ज़ेहन में यह बात बार-बार आ रही थी कि मिर्ज़ा को उन दोनों के ऊपर अहमियत दी जा रही थी। 

हकीक़त में वे दोनों जानते थे कि वे दोनों मिलकर भी कारोबारी समझ के मामले में मिर्ज़ा के बराबर नहीं पहुँच सकते थे। वे जानते थे कि अगर मिर्ज़ा से सलाह ली गयी और मिर्ज़ा ने अली साहब और सैयद साहब के आगे कोई बात रखी तो मिर्ज़ा की बात को कोई भी खारिज नहीं कर सकेगा। उनकी बात तो मानी ही जायेगी। फिर अगर ये सब ऐसे ही चला तो वो दिन दूर नहीं होगा जब अपने ही घर, अपने ही कारोबार में शुज़ा और मुराद हाशिये पर नज़र आयेंगे। इस वजह से उनकी दिली ख्वाहिश थी कि मिर्ज़ा कारोबार से दूर रहें, वैसे ही जैसे वे दोनों मिर्ज़ा की नौकरी से दूर थे। लेकिन फिलहाल तो ऐसा होता नहीं लग रहा था। वे दोनों इस बात को अपने लिये बे-इज़्ज़ती के तौर पर ले रहे थे। उन्हें यही लग रहा था कि इतने वक़्त से कारोबार में उन्होनें जो मेहनत की है, उसे अनदेखा किया जा रहा है, वो भी उस के लिये जो घर, कारोबार से दूर, अपनी नौकरी में ही मशगूल था।

उस बैठक में तो उन दोनों ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन बैठक के बाद वे छत पर पहुँचे और तन्हाई में एक-दूसरे से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। मुराद ने खिन्न मन से कहा "अब मिर्ज़ा भाईजान इसमें क्या करेंगे? "

शुज़ा ने चिढ़कर कहा "पता नहीं, काम तो इतने सालों से यहाँ हम लोग कर रहे हैं और सलाह अब्बा हुज़ूर मिर्ज़ा से ले रहे हैं......अरे, जो काम कर रहा है उसको पूछो ना!!.......हम क्या फालतू बैठे हुए हैं यहाँ पर? "

मुराद ने कहा "फरीद भाईजान को बोलूँ?.... अब्बू उनकी बात ज़्यादा सुनते हैं।"

शुज़ा अभी भी गुस्से में थे ".....हाँ, क्यों नहीं?..... अब्बू फरीद भाईजान की बात ज़्यादा सुनते हैं,.... अब्बू अली साहब की बात ज़्यादा सुनते हैं, अब्बू मिर्ज़ा की बात ज़्यादा सुनते हैं.....बस हमारी बात ही अब्बू नहीं सुनते हैं, जैसे हमारी कोई वक़त ही नहीं"।

गुस्सा मुराद को भी आ रहा था लेकिन उसने खुद पर क़ाबू किया और सलाह दी "....ऐसा करते हैं, कि कल कारखाने से वापस आकर हम लोग फरीद भाई से मिलते हैं और बात करते हैं. थोड़ा देखते हैं कि उनके और अब्बू के मन में क्या चल रहा है। आज की बैठक में तो मिर्ज़ा की बात पर फरीद भाईजान ने भी रज़ामंदी दी थी. कुछ उनकी बात भी सुन लें।" इस पर शुज़ा ने सहमति जताई और दोनों ने अगले दिन फरीद से अपनी नाराज़गी साफ तौर पर ज़ाहिर करने का फैसला किया।

खाने के बाद शुज़ा और मुराद अपने-अपने कमरों में चले गये। नाराज़गी की वजह से उनका बर्ताव कुछ उखड़ा-उखड़ा सा साफ दिख रहा था। शौहर का बर्ताव कभी बीवी से तो छुप नहीं सकता। शगुफ्ता ने शुज़ा को कुछ परेशान देखकर मुस्कुराकर पूछा "क्या हुआ?.... बिगड़े-बिगड़े से मेरे सरकार नज़र आते हैं.....बतायेंगे कुछ?"

"नहीं यार, ऐसी कोई खास बात नहीं है"। शुज़ा ने बात टालने की कोशिश की।

"फिर ऐसी बेरुखी क्यों भई? "

शुज़ा ने आखिरकार अपनी बात कह ही दी "दरअसल आज अब्बा हुज़ूर ने एक बैठक की थी शाम को, कारोबार के सिलसिले में। वहाँ हम तीनों भाई, अली साहब और सरवर मौजूद थे। अब्बा हुज़ूर और हम सभी अब अपने कारोबार को और बढ़ाना चाहते हैं......खास तौर पर उन जगहों पर जहाँ अभी तक हमारी पहुँच नहीं बन पायी है। इसी को लेकर अब्बू ने आज बैठक बुलाई थी"।

"अच्छा, फिर " शगुफ्ता ने पूछा।

"बैठक में अली साहब ने एक बात रखी, कि मिर्ज़ा की भी सलाह ली जाये कारोबार बढ़ाने में.......क्योंकि मिर्ज़ा इंतज़ामियत में सीनियर अफसर हैं, तो उनकी बात सुनने और अमल करने से कारोबार में ज़्यादा फायदा हो सकता है. अब जब पंद्रह दिन बाद मिर्ज़ा सौघरा आयेंगे तब दोबारा बैठक होगी।"

"तो ठीक ही तो है " शगुफ्ता ने कहा। ".......ये तो ठीक है कि तीन से भले चार भाई।आप चारों की सलाह से फैसले करेंगे तो किसी के अंदर यह बात नहीं रहेगी कि मुझसे नहीं पूछा गया "

शुज़ा ने बीच में ही बात काटकर, चिढ़कर कहा " .....ये कोई बात नहीं है. आप समझ नहीं रही हैं. असल बात यह है कि अब्बा हुज़ूर हमें नामुराद और नाकारा और मिर्ज़ा को ज़्यादा काबिल समझते हैं। कारोबार में अपना वक़्त, अपनी एनर्जी और दिमाग हम लोग लगा रहे हैं, मिर्ज़ा तो वहाँ दिल्ली में बैठकर आराम की नौकरशाही काट रहे हैं...... और जब कारोबार बढ़ाने की बात हुई तो राय मिर्ज़ा की ली जायेगी, हमारी नहीं।"

शगुफ्ता ने तुरंत ही बात को ताड़ लिया और बीच में ही कहा "सुनिये, सुनिये मेरे ख्याल से आपको गलतफहमी हुई है कुछ। जहाँ तक इस घर में आने के बाद से मैंने देखा है, अब्बा हुज़ूर ने आज तक आप चारों में कोई फर्क कभी नहीं किया है। ये आप खुद ही देख सकते हैं......अब्बा हुज़ूर मुराद और उसके परिवार को कितनी मदद देते हैं, मुराद के सारे ऐब, सारी बुराईयों के बाद भी। बताइये मुझे, क्या नहीं है ऐसा? "

शुज़ा चुप बैठे थे।

शगुफ्ता ने बोलना जारी रखा "देखिये, कारोबारी बारीकियां तो मै सिरे से ही नहीं समझती मगर इतना ज़रूर जानती हूँ कि अब्बा हुज़ूर कोई भी फैसला कभी ऐसा नहीं ले सकते जिस से परिवार के अंदर ही दरारें पैदा हों। अब्बा हुज़ूर ने शुरु से आज तक घर-परिवार और कारोबार दोनों को बहुत ही बेहतरीन तरीके से सम्भाला है, और इसमें अली साहब ने उनकी जितनी मदद की है, ये हम सभी जानते ही हैं।इसलिये मुझे ये बात गलत लगती है कि अब्बू और अली साहब ने ऐसा कुछ सोचकर ये बात की होगी जैसा आप सोच रहे हैं. मेरी आपसे गुज़ारिश है कि ऐसा न सोचें। मिर्ज़ा वाकई एक बड़े अफसर हैं, और ऐसे लोगों की मदद तो कारोबार के लिये काफी ज़रूरी होती है.....ये तो आप लोग बार-बार ही बात करते हैं। खाने की मेज पर कितनी तो बार सुना हैं मैंने....... तो इस हिसाब से यह तो फायदे की बात है कि ऐसा कोई हमारे घर में ही है"।

शुज़ा अभी भी चुप थे। शगुफ्ता ने आगे कहा ".....मैं कुछ बोलूँ आपको? अब इसको गलत मत समझियेगा।"

शुज़ा ने कहा "बोलिये......आखिर इतनी देर से आप बोल ही रही हैं"।

"......देखिये, मेरे ख्याल से आपको फरीद भाईजान से बात करनी चाहिये.  वो ज़रूर आपको मुझसे काफी बेहतर समझा सकते हैं"। शगुफ्ता ने कहा।

शुज़ा ने कहा "हम्म्म्म।बात करेंगे फरीद भाई से। देखते हैं कि क्या बोलते हैं वो"।

शगुफ्ता ने आगे कहा " .....और अल्लाह के वास्ते ऐसा ऊँच-नीच मत सोचिये. हमारे परिवार की ताक़त ही यही है कि आप चारों एक साथ हैं और अपने अब्बा हुज़ूर के साथ खड़े हैं.......इस नाते पर शक़ न कीजिये। घर का माहौल बिगड़ता है इससे"।

शुज़ा चुप ही थे।

"...अब सो जाइये, फरीद भाई से बात कर लीजियेगा. पूरी उम्मीद है कि आपके शक़ का इलाज हो जायेगा।" इतना कहकर शगुफ्ता ने शुज़ा के दोनो कंधे पकड़कर बड़े प्यार से उन्हें बिस्तर पर लिटाया, और खुद भी सो गयीं।

मगर शुज़ा की आँखों में नींद नहीं थी। वे यही सोच रहे थे कि अगर यह सिलसिला चलता रहा तो आगे जाकर उनके हिस्से कुछ नहीं आयेगा। लेकिन इस बात को वह शगुफ्ता से नहीं कह सके थे।

थोड़ा वक़्त बात शुज़ा भी सो गये।

उधर बिस्तर पर मुराद को परेशान बैठा देखकर रुबैदा ने भी उनके पार आकर उनकी परेशानी का सबब पूछा "क्या हुआ?..... आज बड़े चुप-चुप हैं आप ?..... सब ठीक तो है? "

मुराद ने छत की ओर एकटक देखते हुए जवाब दिया "अभी तक तो ठीक है......आगे का पता नहीं"।

रुबैदा ने कहा "क्या मतलब? "

मुराद ने रुबैदा को सारी बात बताई और खिन्न होकर यही कहा "मेहनत हम करें और ईनाम मिर्ज़ा को मिले.....अब्बू यही चाहते हैं शायद। उनको और अली साहब को हमारा किया काम नहीं दिखता पता नहीं क्यों"।

रुबैदा ने कहा "मुझे ऐसा नहीं लगता. अब्बू क्यों करेंगे ऐसा ? .....आज तक उन्होनें कभी नहीं सोचा ऐसा"।

मुराद ने चिढ़कर कहा "...आपको कैसे पता कि वह क्या सोचते हैं?"

रुबैदा चौंककर बोली "अरे! हद है मतलब......आप खुद ही बताइये, हर मौके-बे-मौके अब्बा हुज़ूर ने क्या आपकी पुरज़ोर मदद नहीं की है?.... क्या यहाँ तक कि जब किसी काम में आपको या शुज़ा भाईजान को नाकामी मिली तब भी?.....उन्होने हमेशा साथ ही दिया है आपका और शुज़ा भाईजान का"।

मुराद चुप बैठे थे।

रुबैदा ने समझाया "देखिये, अब्बू ने हमेशा अपने कारोबार से ज़्यादा अहमियत अपने परिवार को ही दी है। वह ऐसा तो कुछ भी नहीं करेंगे कि परिवार का माहौल खराब हो"।

मुराद ने कहा ".....वो तो ठीक है लेकिन आप एक बात नहीं समझ रही हैं। इसी तरह से चला तो धीरे-धीरे मुमकिन है कि घर और कारोबार के मामलों में मिर्ज़ा का दखल बढ़ता जायेगाऔर हमारा और शुज़ा भाई का परिवार किनारे पर ही लग जायेगा"।

रुबैदा ने कहा "....नहीं, मुझे कतई नहीं लगता ऐसा। अब्बा हुज़ूर और फरीद भाई, मुझे दोनों पर भरोसा है"।

मुराद खामोश थे।

".....अगर आपके ज़ेहन में कोई सवाल है तो आप सीधे अब्बा हुज़ूर से ही पूछ लीजिये. आपके अब्बू हैं वो, आपकी हर मुश्किल आसान ही की है उन्होनें अभी तक. आगे भी करेंगे ही। जैसे उनके लिये फरीद भाईजान, वैसे ही शुज़ा भाईजान और आप भी हैं.....आप लोगों का बुरा करके मिर्ज़ा को फायदा पहुँचाने वाला काम तो अब्बा हुज़ूर पक्का नहीं करेंगे। माँ-बाप के लिये अपनी सभी औलादें एक सी प्यारी होती हैं"।

मुराद रुबैदा का चेहरा देख रहे थे।

".....और अगर अब्बू से ना पूछ पाएं तो आप फरीद भाई से बात क्यों नहीं करते?...... वो ज़रूर ज़्यादा अच्छा समझा सकते हैं आपको"

मुराद अभी भी चुप थे।

रुबैदा ने कहा ".....चलिये अब सो जाइये, अब्बा हुज़ूर के लिये गलतफहमियां पालना ठीक नहीं है"।

फिर दोनो सो गये। 


शुज़ा और मुराद दो दिन बाद शाम को अपने कारखाने से वापस आकर नहाये-धोये और रसोई में जाकर चाय-नाश्ता फरीद के कमरे में भिजवाने के लिये कहा और खुद फरीद के कमरे में जा पहुँचे।

फरीद ने उन्हें देखकर मुस्कुराते हुए पूछा "अरे!!...... कारखाने के बाद तुम लोग यहाँ मेरे कमरे में?...... खैरियत तो है सब?...... तुम लोगों ने चाय-वाय पी कि नहीं ?"

शुज़ा ने कहा "चाय अभी यहीं आ जायेगी भाईजान!!........फिलहाल तो हमें आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है"।

"हाँ, हाँ पहले आराम से बैठ तो जाओ" फरीद ने उन्हें बैठने का इशारा किया। वे दोनों फरीद के कमरे में मौजूद सोफे पर बैठ गये।

"हाँ शुज़ा, मुराद, अब बोलो" फरीद ने कहा। अब तक शगुफ्ता चाय और दालमोठ लेकर आ गयी थी। उसने चाय मेज पर रखी और चुप-चाप चली गयी।

चाय की चुस्कियों के बीच शुज़ा ने मुराद को देखते हुए, फरीद के आगे हिचकते हुए अपनी बात रखी "भाईजान, बात है एक "

"बोलो" चाय पीते हुए फरीद बोले।

"भाईजान, उस मीटिंग के सिलसिले में बात करनी है, जो अब्बा हुज़ूर मे बुलाई थी कारोबार नई जगहों पर बढ़ाने के लिये "

"हाँ, हाँ आगे तो बोलो.....क्या बोलना है उस मीटिंग को लेकर? " फरीद ने चाय पीते हुए फिर पूछा।

शुज़ा कुछ हिचकिचा रहे थे, यह देखकर मुराद ने सीधे ही पूछा "भाईजान, जब हम तीन लोग यहाँ पर हैं, जब हम लोग कारोबार के लिये भरपूर मेहनत कर भी रहे हैं, फिर कारोबार बढ़ाने के मामले में मिर्ज़ा को शामिल करने का क्या मतलब है?.......मेरा मतलब, इतने वक़्त से मिर्ज़ा कारोबार से दूर हैं, अपनी नौकरी में मशगूल हैं, कभी इस जगह तो कभी उस जगह जबकि हम लोग यहाँ पर हैं, हर रोज़ कारखाने जा रहे हैं.....कारोबार से जुड़े लोगों से रोज़ बातें कर रहे हैं. दस बरस से ऊपर हो गये हैं। ऐसे में मिर्ज़ा से पूछने का क्या तुक है कारोबार के बारे में?....... शायद हम तीन लोग मिर्ज़ा से बेहतर राय दे सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता ऐसा?.... " इतना कहकर मुराद ने अपना चाय का कप उठाकर मुँह से लगा लिया।

फरीद कुछ वक़्त तक मुराद को देखते रहे। फिर धीरे से अपने कप में से चाय का घूँट पिया। शुज़ा भी चाय पी रहे थे।

कुछ पलों के बाद अब शुज़ा ने कहा ".....भाईजान, पिछले दस बरस से ज़्यादा वक़्त हो गया है हमें और आपको कारोबार सम्भालते हुए......अब अगर कारोबार बढ़ाने की बात है तो मेरे ख्याल से हम तीनों से बात किया जाना अच्छा होगा, बजाय कि मिर्ज़ा से बात करने के जो दस दिन भी इस कारोबार में शामिल नहीं रहे हैं"।

फरीद ने अपनी चाय खत्म करके कप सामने की मेज पर रखा और तसल्ली से उन दोनों से बोले "देखो, शायद तुम लोग गलत समझ रहे हो। बात मिर्ज़ा को तवज्जो देने कि है ही नहीं। तुम लोगों ने शायद अली साहब की बात या तो पूरी सुनी नहीं, या अगर सुनी तो समझी नहीं"।

"क्या मतलब? " मुराद ने चाय का कप मेज पर रखते हुए पूछा।

".....अली साहब ने जो बात रखी जिसे अब्बू ने मान लिया, वो ये थी कि हमारे भाई मिर्ज़ा इंतज़ामियत में एक सीनियर अफसर हैं, जो पिछले 10 साल से कुछ ज़्यादा वक़्त में कई बड़े शहरों में, और कई बड़े ओहदों पर काम कर चुके हैं, उनकी अफसरशाही में अच्छी पकड़ होगी ही......इसका मतलब यह था कि आने वाले वक़्त में कारोबार से जुड़े सरकारी नियम-कानूनों और पॉलिसियों में जो भी कुछ बदलाव होने वाले होंगे, मिर्ज़ा को उसकी सही, पुख्ता खबर होगी। इस तरह से हमें वो बातें पहले ही पता लग जायेंगी और हम उसी हिसाब से अपने कारोबार को आगे बढ़ा सकेंगे और ज़रूरी जोखिम उठा सकेंगे ......तुम लोगों को तो पता ही है, कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, सेक्रेटरी इन सभी का साथ हमारे कारोबार को चलाने के लिये कितना ज़रूरी होता है, …ज़मीन के मामलात, लेबर लॉज़, ट्रांसपोर्ट, और भी पता नहीं पचासों तरह के क्लीयरेंस.......इनकी एक कलम से हमारे लाखों के वारे-न्यारे हो जाते हैं, और जो इनकी निगाह तिरछी हुई, वो भी अंजाम देख ही चुके हो तुम उस कानपुर और माधवपुर वाले मामलों में. हम चाहकर भी वहाँ अपना माल अभी तक नहीं बेच पा रहे हैं.......इसी के मद्देनज़र अली साहब का यही मशविरा था कि ये किस्मत की बात है कि हमारे घर का ही कोई आदमी ऐसी पोजीशन पर है, कि हम आगे चलकर तमाम तरह के होने वाले नुकसानों से बच सकते हैं। जिन नियम-कानूनों और पॉलिसियों के बारे में हमारे बाकी कारोबारियों को आठ-नौ महीने बाद पता लगेगा, हमें उसके बारे में आठ महीने पहले ही पता चल जायेगा, और इस तरह से हम खुद को आने वाले वक़्त के लिये ज़्यादा बेहतर ढंग से तैयार कर सकेंगे और हमेशा कारोबार में उन लोगों से आगे ही बने रहेंगें......यही मतलब था अली साहब का." फरीद ने पूरी बात समझायी।

"....लेकिन भाईजान " शुज़ा ने फिर चाय पीते हुए कहा "....ऐसे ही फिर आगे कई मसलों पर मिर्ज़ा से राय ली जायेगी. फिर एक हालत ऐसी न हो जाये कि जिस कारोबार के लिये हमने इतनी मेहनत की, हमारी ही उसमें कोई जगह न रह जाये"।

तभी मुराद ने अचानक वह कहा जो न वो कहना चाहते थे, न वहाँ मौजूद कोई शख्स इसे सुनना चाहता था ".....बिल्कुल, मतलब कि मेहनत हम करें और मलाई मिर्ज़ा खायें। जब मिर्ज़ा की नौकरी में हम लोग दखल नहीं करते हैं, तो हमारे काम में मिर्ज़ा का दखल क्यों हो रहा है ?.....वो अपनी नौकरी देखें, और हम अपना काम; इसमें क्या दिक्कत है? "

अभी तक अपनी बात को नर्म तरीके से रखने की कोशिश कर रहे शुज़ा यह सुनकर मुराद की तरफ कुछ गुस्से से देखने लगे। फरीद भी कुछ सख्त निगाहों से मुराद को देख रहे थे। मुराद को अभी एहसास हुआ कि उनकी ज़बान से कुछ ऐसा निकल गया है जो कि नहीं निकलना चाहिये था ,मगर बात तो निकल ही गयी थी।

मुराद से झेंपते हुए सिर नीचे कर लिया और धीरे से अपना चाय का कप उठा लिया।

फरीद ने फिर बड़े ज़हीन ढंग से बात सम्भालने की कोशिश की और बोले "नहीं मुराद, ऐसा नहीं है मेरे भाई.....मिर्ज़ा की राय लेने का यहाँ मतलब सिर्फ इतना ही है कि सरकार में ऊपर के लेवल पर क्या चल रहा है, या क्या होने वाला है, हमें ये बात पता चलती रहे"।

शुज़ा और मुराद फरीद को देख रहे थे।

फरीद ने आगे कहा " ....और ज़रूरी भी तो नहीं है कि अब्बू मिर्ज़ा की सारी बातें मान ही लें। पिछले 50 साल से कुछ ज़्यादा वक़्त से अब्बा हुज़ूर कारोबार कर रहे हैं। दो कमरों से कारोबार शुरु कर के यहाँ तक पहुँचाया है। इस पूरे वक़्त में मिर्ज़ा तो थे नहीं ना उनके साथ....... मेरा मतलब यह कि मिर्ज़ा की सभी बातें आँख बंद करके नहीं मानी जायेंगी .....और फिर तुम्हे ऐसा क्यों लगता है कि अब्बा हुज़ूर को तुम्हारी मेहनत नहीं दिख रही है या फिर तुम्हारी कीमत पर वह मिर्ज़ा को ज़्यादा अहमियत देंगें? " फिर फरीद ने मुराद से पूछा "क्यों मुराद, क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है "

मुराद के पास जवाब नहीं था। शुज़ा भी खामोश बैठे थे।

" .....और वैसे भी, मिर्ज़ा की एक कमी है जो कारोबार के लिहाज़ से ठीक नहीं है और जो हम सभी जानते हैं. अब्बू भी इस बात से वाक़िफ हैं"

"क्या? " शुज़ा ने पूछा।

"वो ये कि मिर्ज़ा सबको साथ लेकर नहीं चल सकते हैं। कारोबार में सबसे ज़रूरी यही बात है। कारोबार लोगों को जोड़ने से बनता है, उन्हें तोड़ने से नहीं। मिर्ज़ा अपनी बातों को लेकर ज़िद्दी हैं... ऐसे कारोबार नहीं चलता"। फरीद ने गम्भीरता से कहा।

दोनों भाई फरीद को देख रहे थे।

फरीद ने फिर उनसे कहा "देखो, अब्बू के बारे में इतना तो हम सभी ने देखा है कि वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिस से कारोबार या हमारे परिवार, दोनों में से किसी को किसी तरह का नुकसान हो. उन्होने आज तक ऐसा कभी नहीं किया है; और अगर, कभी खुदा न करें ऐसे हालात आये भी तो भी अब्बू हमेशा अपने परिवार को अहमियत देंगे क्योंकि अब्बू हमेशा यही समझाते हैं कि रुपया-पैसा आता-जाता रहता है, लोगों का भरोसा और प्यार सबसे बड़ी और सबसे मुश्किल से मिलने वाली दौलत है जो अगर गयी तो वापस नहीं आती। ताज्जुब नहीं है कि अम्मी के इंतकाल के बाद वो 2-4 साल जब अब्बू बुरी तरह से बीमार थे, उस दौर में भी हमारा कारोबार बिगड़ा नहीं, पता है क्यों?.....क्योंकि हमने अपने स्टाफ का भरोसा और प्यार कमाया था। किसी इंसान का प्यार, भरोसा और इज़्ज़त माँगने से नहीं मिल सकती, यह सिर्फ कमायी जा सकती है...... सोचो, स्टाफ के बारे में जब अब्बू ऐसी सोच रखते हैं, तो अपने बेटों के बारे में क्या सोच रखते होंगे ?"

शुज़ा और मुराद चुप बैठे थे।

".... इसलिये कह रहा हूँ, इस तरह का शक-शुबहा दिमाग में मत रखो। ऐसा कुछ नहीं होगा जिस से तुम लोगों का रत्ती भर भी नुकसान हो।और फिर अपने बड़े भाई पर भरोसा करो, मैं ऐसा कुछ होने नहीं दूँगा कभी।" फरीद ने उन्हें आश्वस्त किया।

दोनों भाईयों ने फिर बेफिक़्र होकर फरीद से और कुछ दूसरी बातें की और थोड़ी देर बात उन्हें सलाम करके वापस अपने कमरों में चले गये।

फरीद ने यह देख कर राहत की साँस ली।

हिंदुस्तान की हवा उस वक़्त कुछ अजीब सी चल रही थी। 1962 में चीन के साथ जंग हुई थी जिसमें हिंदुस्तान को शिकस्त का सामना करना पड़ा था। चीन पर भरोसा करने की बड़ी कीमत इस मुल्क ने चुकायी थी। इसी के तुरंत बाद मुल्क पर एक और अज़ाब नासिर हुआ जब मुल्क के वज़ीर-ए-आज़म और सबसे अज़ीज़, सबसे बड़े लीडर पंडित नेहरु जी का अचानक दिल का दौरा पड़ने से इंतक़ाल हो गया। आज़ाद हिंदुस्तान कैसे अपनी तरक्की की राह बनायेगा, और पूरी दुनिया में अपना खोया हुआ रुतबा हासिल करेगा, यह सपना जिन निगाहों में था वे निगाहें हमेशा के लिये बंद हो चुकी थीं। सैंतालीस में आज़ादी के तुरंत बाद गाँधी जी की हत्या हो चुकी थी। 2-3 साल के भीतर सरदार भी कूच कर चुके थे। 1958 तक आते-आते हरदिलअज़ीज़ मौलाना आज़ाद को भी अल्लाह ने अपने पास बुला लिया था। अब ऐसे में हिंदुस्तान की एकमात्र उम्मीद जवाहरलाल नेहरू ही बचे थे। नेहरू जी ने हिंदुस्तान की अवाम को मायूस भी नहीं किया था, और उस 50 करोड़ की आबादी, जिसका एक बहुत बड़ा हिस्सा गुरबत, भुखमरी, तंगहाली में अपना जीवन गुज़ार रहा था, की उम्मीदों पर खरा उतरने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे।

अंग्रेज़ों ने 350 बरस की अपनी हुक़ूमत में कभी 'सोने की चिड़िया' कहे जाने वाले इस मुल्क को बिल्कुल खोखला बनाकर रख छोड़ा था। यह मुल्क कभी भी उनके लिये एक गुलाम से ज़्यादा कुछ भी नहीं रहा। मालिक गुलाम के साथ जैसे रहता है, वे हिंदुस्तान के साथ वैसे ही रहे। उन्होनें सिर्फ इसका इस्तेमाल किया अपनी जेबें भरने में। ब्रिटिश हुक़ूमत एक ऐसा बादल थी जो 350 साल तक गंगा के मैदानों से नमी सोखकर टेम्स के किनारे पर बारिश करती रही थी। हर वो कुछ जिसके लिये हिंदुस्तान दुनिया भर में जाना जाता था मसलन बेहतरीन किस्म के हाथ के बने सूती और रेशमी कपड़े जिनकी पूरे यूरोप और अमेरिका में बड़ी माँग थी (ढाके के मलमल के बारे में तो ऐसा कहा जाता था कि 6 गज़ की साड़ी एक अंगूठी में से निकल जाये), कपड़ों, चादरों पर खूबसूरत कढ़ाई का काम जैसे बंगाल की मशहूर जामदानी कारीगरी, घरों में लगाये जाने वाले हाथ के बने सजावटी सामान, और भी बहुत कुछ, वो सब कुछ अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने तहस-नहस कर दिया और हिंदुस्तान के किसान, बुनकरो, मजदूरों को मरने के लिये छोड़ दिया। इन सबकी कीमत पर उन्होनें अपने यहाँ ब्रिटेन में इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन चलाया, और उनसे तैयार मालों से हिंदुस्तानी बाज़ारों को भर दिया। रेलवे ने इसमें और इज़ाफा किया और लंदन, लिवरपूल और मैनचेस्टर के कारखानों में मशीनों से बने सस्ते सामानों को हिंदुस्तान के गाँव-गाँव, शहर-शहर में पहुँचा दिया। कभी बेहतरीन सूती और रेशमी कपड़ों की माँ कहे जाने वाला हिंदुस्तान अब विदेशी कपड़े खरीदने को मजबूर था। यह सब कुछ 350 सालों तक चलता रहा …बिना रुके, बिना थके।

लाखों क़ुर्बानियों के बाद जब आज़ादी मिली भी तो वह भी मज़हब की बुनियाद पर हुए बँटवारे की कीमत पर मिली जिसमें लाखों की आबादी दंगों में मारी गयी या बेघर हुई। आज़ादी के वक़्त 40 करोड़ की आबादी वाला यह मुल्क हिंदुस्तान दुनिया में भूखे, नंगे और सपेरों के देश कहा जाता था। ये तो वे थे जो पहले से ही अपने मुल्क में रह रहे थे, तिस पर एक बहुत बड़ी तादात पाकिस्तान से आने वाले रिफ्यूजियों की भी हो गयी थी जो इस सफर में अपना सब कुछ गँवा कर आये थे। दुनिया के नामचीन अखबार मुल्क के ऐसे हालात के बारे में लिख रहे थे और ताज्जुब कर रहे थे कि आखिर कब तक हिंदुस्तान एक आज़ाद मुल्क बना रहेगा और कब तक किसी खानाजंगी (सिविल वॉर) से बचा रह सकेगा लंदन से प्रकाशित साप्ताहिक 'दि संडे ऑब्ज़र्वर' ने लिखा था "इट्स ए कम्प्लीट केऑस इन इंडियाए टिपिकल शिप-टू-माऊथ सिचुएशन इज़ परसिस्टिंग देयर " ऐसी बदहाल स्थिति में नेहरू, पटेल और आज़ाद ही की तरफ हर कोई देखता था। पटेल और आज़ाद के इंतक़ाल के बाद नेहरू मुल्क की अवाम के सपनों की आखिरी उम्मीद थे। सपने, जिनकी कोई सीमा नहीं थी। सपने, जो साढ़े तीन सौ सालों से दबे-कुचले थे और अब खुद को एक आज़ाद मुल्क में पाकर कुलाँचे भर रहे थे, बिना यह जाने कि सपनों की इस उड़ान के लिये जो ईंधन चाहिये वह इस मुल्क के पास बहुत कम था, लेकिन फिर भी पंडित नेहरू पर मुल्क की अवाम बे-इंतेहा भरोसा करती थी, और शायद ये गलत भी साबित नहीं हुआ था। आज़ादी के बाद के 15 सालों में बिना थके, बिना रुके नेहरू ने जिस तरह से इस मुल्क की बेहतरी के लिये दिन-रात काम किया था, उस से अवाम के भरोसे को और ज़्यादा ताक़त मिल रही थी।

लेकिन तभी 1962 में जंग छिड़ गयी, जिसमें हिंदुस्तान की हार हुई। नेहरू को न इस जंग की उम्मीद थी, न इस हार की। शायद वह चीनी मंसूबों को समझ पाने में नाकाम साबित हुए थे। पटेल के न होने से उन्हे कोई रास्ता दिखाने वाला भी नहीं था। फौज के आला अधिकारियों द्वारा बार-बार दी जा रही चेतावनियों को भी उन्होनें नज़रंदाज़ किया और चीन की दोस्ती पर भरोसा किया जो अंत में एक धोखा ही साबित हुई। उन्हें खूब पता था कि चीन के साथ उनकी आँख बंद कर की गयी दोस्ती का ही यह नतीजा था और इस इल्ज़ाम से वह बरी नहीं हो सकते थे। इस जंग के कुछ वक़्त बाद ही नेहरू जी की मौत हो गयी थी। अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहे हिंदुस्तान के लिये यह किसी सदमे से कम नहीं था। यह मुल्क गाँधी, पटेल और आज़ाद का जाना देख चुका था और नेहरू का जाना कतई गँवारा नहीं कर सकता था, लेकिन फिर भी, अब नेहरू नहीं थे, और यह एक हक़ीक़त थी। हिंदुस्तान उस वक़्त जिन सवालों का सामना कर रहा था, उन सबसे भी बड़ा एक सवाल अब अचानक सामने आकर अपना जवाब माँग रहा था जिस से कोई आँखे चुरा नहीं सकता था – "नेहरू के बाद कौन " 'दि संडे ऑब्ज़र्वर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा था "हू इज़ आफ्टर नेहरू "

शास्त्री जी ने नेहरु जी के बाद मुल्क की बागडोर सम्भाली थी, और धीरे-धीरे इस बड़े सवाल "हू इज़ आफ्टर नेहरु " का जवाब मिलने लगा था। शास्त्री जी धीरे-धीरे मगर मज़बूती से उस काम को आगे बढ़ा रहे थे जो नेहरू जी छोड़ कर चले गये थे। लेकिन उसी वक़्त जनवरी 1965 से ही मुल्क की पश्चिमी सरहद से परेशान करने वाली खबरें आनी शुरु हो गयी थीं। आए दिन हिंदुस्तान और पाकिस्तान की फौजों के बीच झड़पें हो रही थीं और कभी कश्मीर, कभी पंजाब और यहाँ तक कि कई बार राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके और कच्छ के दलदली इलाके से भी गोलीबारी की खबरें अवाम तक पहुँच रही थीं। 1947 में आज़ादी के तुरंत बाद पाकिस्तान से एक जंग हो चुकी थी, बासठ में चीन से जंग हो चुकी थी और मुल्क हार चुका था, ऐसे में इतनी जल्दी एक और जंग हिंदुस्तान बर्दाश्त नहीं कर सकता था। पाकिस्तान के फौजी जनरल और सियासतदान भी शायद यही सोच रहे थे और लगातार सरहद पर दबाव बढ़ा रहे थे। आलमी सियासत में भी गोलबंदी शुरु हो रही थी और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के ज़रिये रूस और अमेरिका अपने-अपने फायदे देख रहे थे। अप्रैल तक आते-आते यह लगने लगा था कि न चाहते हुए भी हिंदुस्तान फिर एक जंग के लिये तैयार हो रहा था।

इन हालातों ने हिंदुस्तान के आगे, और खास तौर पर यहाँ की मुस्लिम अवाम के आगे एक बार फिर से वही पुराना सवाल खड़ा कर दिया था जो हमेशा से आम हिंदुस्तानी मुसलमानों के दिल में चुभता था और पिछले 25-30 सालों से जिसका सामना करते-करते वे थक चुके थे। बँटवारे के पहले से ही यह सवाल उन्हे परेशान करता रहा था और बँटवारे के बाद तो यह किसी राक्षस की तरह मुँह फैलाए और भी बड़ा हो गया था।। और वह बड़ा सवाल था – 'हिंदुस्तानी मुसलमान, अपने मुल्क हिंदुस्तान के लिये कितने वफादार हैं ।और हैं भी कि नहीं ' उनसे उनकी वफादारी का सर्टिफिकेट फिर से माँगा जा रहा था। यह तब था जबकि 1947-48 की जंग में कश्मीर के नौशेरा-झाँगर में ब्रिगेडियर उस्मान, जिनको मरणोपरांत महावीर चक्र और बडगाम में मेजर सोमनाथ शर्मा, जिनको मरणोपरांत परमवीर चक्र मिला था, एक साथ शहीद हुए थे। ये वो ब्रिगेडियर उस्मान थे जिनको जिन्ना ने पाकिस्तान का आर्मी चीफ तक बनाने की पेशकश की थी लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान ने हिंदुस्तान से दग़ा नहीं की और हिंदुस्तानी फौज में ही रहे। जिस तरह से उन्होने नौशेरा और झाँगर में लड़ाई लड़ी थी, पाकिस्तानी फौज ने उनका सिर काट कर लाने वाले को 50000 रुपये का ईनाम देने का ऐलान किया हुआ था। उस्मान की पलटन के लोग उनको 'नौशेरा का शेर' कहते थे। लेकिन ऐसा लगता था कि ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत भी शायद वह सर्टिफिकेट नहीं ला पायी थी। आज फिर से वह सर्टिफिकेट माँगा जा रहा था।    

उमड़ते-घुमड़ते इन्हीं बादलों के बीच, अपनी आदत के मुताबिक इस इतवार को भी हर छुट्टी के दिन की तरह फरीद शाम को 5:30 बजे अपने उस्ताद, मतलब हशमत क़ाशनी के पास पहुँच गये थे।  

क़ाशनी साहब की भी उम्र हो रही थी और वो साठ पहुँचने वाले थे। तबियत भी थोड़ी नासाज़ ही रहती थी। उनकी बीवी गुलफिशाँ बेगम उनका भरपूर खयाल रखती थीं लेकिन उम्र तो आखिर उनकी भी बढ़ ही रही थी और उसके साथ-साथ बीमारियाँ भी। इन दोनों बुज़ुर्ग लोगों की मदद करने के लिये ही गुलफिशाँ बेगम अपने मायके से ही अनीसा को कई साल पहले ले आई थीं और अब अनीसा इस परिवार का अहम हिस्सा थी। अनीसा को उसकी शादी के बाद शौहर ने जल्द ही तलाक़ दे दिया था और एक दफा उसने खुदकुशी की भी कोशिश की थी, यही सब देखकर गुलफिशाँ बेगम ने अनीसा की अम्मी से बात की और अनीसा को अपने साथ ले आयी। अनीसा भी क़ाशनी साहब और गुलफिशाँ बेगम को अपने माँ-बाप जितना ही प्यार और इज़्ज़त देती थी। 

क़ाशनी साहब और गुलफिशाँ बेगम के दो बेटे थे जो अपनी शादी-शुदा ज़िंदगी में परिवार के साथ खुश थे.  एक जयपुर में सिंचाई विभाग का इंजीनियर था तो दूसरा भोपाल में रहता था जहाँ वह सरकारी स्कूल में मुदर्रिस था। क़ाशनी साहब की एक बेटी भी थी जो शादी के बाद अपने शौहर के साथ पहले हैदराबाद, फिर वहाँ से तुर्की चली गई थी। सौघरे के अपने घर में केवल मियाँ-बीवी ही बचे हुए थे जो अपनी ज़िंदगी काट रहे थे। ख्वाहिश तो उनकी काफी थी कि दोनों मे से कम से कम एक बेटा तो अपने बीवी-बच्चों के साथ, उनके पास सौघरा में ही रहता, लेकिन साथ मे वो ये भी समझते ही थे कि जिसको जहाँ दाल-रोटी-सब्ज़ी लिखी है, वह तो वहीं जायेगा, और फिर ये भी क्या कम बड़ी बात थी कि दो बेटे और दोनों ही सरकारी नौकरियों में!!

इस हक़ीक़त को भी क़ाशनी साहब और गुलफिशाँ बेगम ने हँसी-खुशी अपना लिया था। बच्चे छुट्टियों में, त्योहारों पर घर आया करते थे, और बेटी 2 साल में एक बार आती थी।

फरीद के पहुँचने पर बैठक में अनीसा ने ही मुस्कुराते हुए उसका स्वागत किया "आइये फरीद भाई।मैं समझ ही रही थी कि आज इतवार की शाम तो फरीद भाई आते ही होंगे।" फरीद भी मुस्कुराकर बोले "जी, जी, बिना क़ाशनी साहब से मिले तो दिल और दिमाग दुरुस्त नहीं रह पाता।कैसी हैं आप अनीसा "

"मैं बिल्कुल ठीक हूँ फरीद भाई। आप यहाँ बैठिये"

फरीद ने उसको टोका "नहीं, नहीं, अनीसा.....बैठक में नहीं, यहीं बाहर बरामदे में कुर्सी लगा दीजिये। मैं यहीं बैठता हूँ।" यह कहकर फरीद बैठक से बाहर बरामदे में आ गये।

अनीसा हँसने लगी "अरे, मै तो भूल ही गयी.....उस्ताद और शागिर्द तो बरामदे में ही बैठकर गप करना पसंद करते हैं. मैं यहीं लगा देती हूँ कुर्सियाँ।" फिर वह कुर्सियाँ और एक छोटी मेज बाहर निकालकर रखने लगी।

फिर अनीसा ने कहा "वैसे मैं बताऊँ आपको फरीद भाई, आपके उस्ताद अभी घर पर हैं नहीं.....वो यहीं पास की नर्सरी में पौधे लेने गये हैं, थोड़ी देर में आ जायेंगे। तब तक आपको अकेले बैठना पड़ेगा "

अनीसा बात खत्म भी नहीं कर पाई थी कि पीछे से किसी बुज़ुर्ग महिला की खरज़दार आवाज़ सुनाई दी " ....अरे अकेले कैसे बैठेंगे फरीद ? वो भी हमारे रहते हुए?.... एक तो वैसे ही इनसे बात करने के मौके मुश्किल से मिलते है, फिर आज अभी जब इनके उस्ताद बाहर हैं तो ये तो बड़ा ज़बर्दस्त मौका है।" फरीद और अनीसा ने देखा कि दरवाज़े के परदे के पीछे से हँसते हुए गुलफिशाँ बेगम बरामदे में आ गयी थीं।

फरीद ने बड़ी तहज़ीब से झुककर, मुस्कुराते हुए उनको सलाम किया, जवाब में गुलफिशाँ बेगम ने भी सलाम करते हुए कहा "खूब खुश रहिये फरीद!! आइये, तशरीफ रखिये।" फिर अनीसा की ओर मुखातिब होकर बोलीं "चार चाय कर देना अनीसा, दो फीकी, दो मीठी.....तब तक क़ाशनी साहब भी आ ही जायेंगे।"

"चार चाय या तीन? " अनीसा ने चौंककर पूछा।

"क्यों अपने लिये नहीं बनायेगी क्या? " बेगम ने हँसकर पूछा।

अनीसा शर्माते हुए अंदर चली गयी।

" और सुनाइये फरीद, कैसे हैं आप? " बेगम ने पूछा।

"बिल्कुल ठीक हूँ मैं. आप अपनी सुनाएँ बीबी जी, आप कैसी हैं? " फरीद ने फिर पूछा।

"ठीक ही हैं हम तो। बस गाड़ी चलती जा रही है,  देखते हैं कब तक चलती है" लम्बी साँस लेते हुए बेगम ने कहा।

"बेटे-बेटियों की क्या खोज खबर? " फरीद ने पूछा

"सब अपनी-अपनी ज़िंदगियों में मस्त हैं, आबाद हैं। परसों ही चिट्ठी आई है भोपाल से.  बोर्ड के इम्तिहान हो जायें तो मुबारक आयेंगे यहाँ"।

"चलिये अच्छा है, नाती-पोतों के साथ फिर 1-2 महीने तो शानदार वक़्त बितायेंगे आप लोग"

बेगम ने आँखे बड़ी करते हुए, और गोल-गोल घुमाते हुए कहा "शानदार वक़्त!!!।अरे पूरी सिरदर्दी हो जाती है फरीद इन छोटे-छोटे पटाखों को सम्भालने में. ये हमेशा फटते ही रहते हैं।"

यह सुनकर फरीद मारे हँसी के लोट-पोट हो गये और ठहाका लगाते हुए बोले "पटाखे!!"

"और नहीं तो क्या.....पटाखे ही तो हैं ये!.....एक तो हम लोगों की उमर भी हो चली है, फिर इस उम्र में हम कबड्डी और खो-खो तो नहीं खेल सकते ना.....लेकिन फिर भी हमें यही करना पड़ता है....साँस फूलने लगती है हमारी तो....." गुलफिशाँ कुछ चिढ़ते हुए बोलीं।

"क्या हुआ बीबी जी? आखिर आपकी शुगर कंट्रोल में तो रहती है...." फरीद ठिठोली करते हुए बोले। फिर उन्होने आगे कहा "....बच्चों की आवाज़ से घर बड़ा गुलज़ार सा लगता है बीबी जी"

लम्बी साँस छोड़ते हुए गुलफिशाँ मुस्कुराकर बोलीं "ह्म्म्म्म। ये भी सही बोल रहे हैं आप फरीद......इसी बहाने ये इमारत कुछ दिनों के लिये तो बस जाती है।"

ये सब बातें चल ही रही थी कि लोहे का गेट खोलकर लॉन में अंदर आते क़ाशनी साहब दिखाई दिये। बरामदे में बैठे दोनो शख्स उनके सम्मान में खड़े हो गये। क़ाशनी साहब के हाथ में कुछ हरी पत्तियों वाले गर्मी के मौसम के पौधे, और कुछ कैक्टस के पौधे थे।

फरीद ने झुक कर बड़ी तहज़ीब से उन्हे सलाम किया। अब तक वह इन दोनो के पास आ चुके थे, फरीद के कंधे पर हाथ रख कर मुस्कुराते हुए बोले "बैठिये, बैठिये फरीद....अल्लाह खैर करे।"

फरीद ने कहा "आप बैठे यहाँ। मै दूसरी कुर्सी निकाल देता हूँ" फिर फरीद बैठक में गये और तीसरी कुर्सी निकाल कर ले आये और क़ाशनी साहब के बगल मे रख दी। क़ाशनी साहब उसी कुर्सी पर बैठ गये। फरीद अपनी पुरानी कुर्सी पर ही बैठ गये।

क़ाशनी साहब कुर्सी पर बैठ कर सुस्ताने लगे। उनकी थोड़ी साँस फूल रही थी। पौधों की थैली अभी भी उनके हाथ में थी। इसे देख कर गुलफिशाँ तुनककर बोलीं "ये क्या काँटों वाले पौधे ले आये आप?  ये भी घर मे लगाता है क्या कोई?.... मनहूसियत नज़र आती है इनसे। फूल वाले पौधे या और दूसरे पत्तियों वाले ले आये होते।"

क़ाशनी साहब ने मुस्कुराते हुए फलसफी अंदाज़ में कहा "ये भी तो ज़िंदगी की हक़ीक़त है न बेगम!! खुशी के साथ गम, उजाले के साथ अंधेरा......फूलों के साथ काँटे, आराम के साथ तकलीफें..... ये तो होना ही होता है, और ऐसा होना भी चाहिये, वरना बताइये कि अच्छाई की अहमियत समझेगा कौन?  गम न हो तो खुशी के मायने किसको समझ आयेगा?  अंधेरा ना हो तो उजालों की कद्र कौन करेगा ? रावण न होता तो राम को क्यों पूजते हम सब?  इसी तरह ये कैक्टस के पौधे भी तो हैं।"

बेगम साहिबा कुर्सी पर बैठे अपने माथे के बायें कोने पर हाथ रखे हुए उन्हें देख रही थी, और उनकी निगाहों में साफ दिख रहा था कि, जैसे कह रही हों "इस आदमी से बहस करना अपना सिर फोड़ने जैसा है।" क़ाशनी साहब भी इसे भाँप गये थे और होठों पर उँगलियां रखे उनकी ओर देख कर मुस्कुरा रहे थे।

फिर क़ाशनी साहब ने गर्दन पीछे घुमा कर अनीसा को आवाज़ दी "अरे बेटी अनीसा!!"

बेगम साहिबा ने बीच में ही चिढ़ते हुए उनको टोका "....अरे बोला है उसको चाय लाने को,  ला रही होगी। आपसे आराम से बैठते नहीं बनता है क्या? "

"...अरे, मुझे थोड़ी पता था" क़ाशनी साहब ने जवाब दिया।

फिर क़ाशनी साहब फरीद की ओर मुखातिब होते हुए बोले "....और कहिये फरीद, कैसे हैं आप?  दिमाग-ताकत सब? "

"सब अल्लाह कि मेहर और आप बड़ों की दुआएं हैं। अच्छा है जनाब सब" मुस्कुराते हुए फरीद ने जवाब दिया।

इतने में अनीसा चाय ले आयी थी। फरीद कुर्सी से उठे और चाय की ट्रे सीधे खुद ही पकड़ ली "लाइये मुझे दे दीजिये", और मेज पर रखने लगे। अनीसा ने बीच मे ही कहा "वो दो काले वाले कपों में फीकी चाय है फरीद भाई"। ये सुनकर फरीद ने वो दो काले कप क़ाशनी साहब और बेगम साहिबा के आगे रख दिये। एक सफेद कप मेज पर अपनी कुर्सी की ओर रखा और दूसरा सफेद कप अनीसा के हाथों में थमा दिया। अनीसा अपनी चाय लेकर अंदर चली गयी।

"और क्या चल रहा है कॉलेज में जनाब? " फरीद ने क़ाशनी साहब से पूछा।

"चलना क्या है, ऐसा लग रहा है कि जंग वहाँ सरहद पर नहीं, यहीं हो रही है......अपने सौघरा कॉलेज में" हँसते हुए क़ाशनी साहब बोले।

"हम्म्म्म। माहौल में गर्मी बढ़ ही रही है आजकल" फरीद ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

गुलफिशाँ बेगम चाय पीते हुए और आँखे नीचे किये हुए थोड़ा खिन्न स्वर में बोलीं "क्यों गर्मी बढ़ा रहे हैं ये लोग?  सीधे-सीधे अमन-ओ-चैन से रहा नहीं जा सकता क्या?  हमेशा लाशें बिछाना क्या ज़रूरी है? पहले सैंतालीस, फिर बासठ और अब ये पैंसठ में फिर से वही.....20 साल भी नहीं बीते हैं आज़ादी को, और तब से ये तीसरी बड़ी जंग की तैयारी होते देख रहे हैं हम सब।" फिर वह सिर ऊपर करके क़ाशनी साहब और फरीद की ओर देखते हुए बोलीं "भाई, हमें क्या चाहिये ? एक आदमी रोज़ सुबह उठे, नहा-धो कर नाश्ता करके अपने काम पर जाये, उसके बच्चे स्कूल जायें, दोपहर में बच्चे स्कूल से वापिस आ जायें, और शाम को वो आदमी सब्ज़ी-तेल-मसाला लेते हुए अपने काम से वापिस आ जाये। रात में सभी लोग एक साथ बैठ कर खाना खाएं और फिर हँसी-मज़ाक करते हुए सो जायें, ज़रा बताइये कि क्या खराबी है इस तरह की ज़िंदगी में?.... हमारे जैसे बुज़ुर्गों का अस्पतालों में वाजिब कीमत पर इलाज हो जाये, और हमारे बच्चों की लिखाई-पढ़ाई का खयाल किया जाये जिस से आगे चलकर वे लोग अपनी ज़िंदगी में कुछ अच्छा, कुछ बेहतर कर सकें ।बताइये और क्या चाहिये इस मुल्क की अवाम को? "

वे दोनों बेगम साहिबा की ओर चुपचाप देख रहे थे।

बेगम साहिबा ने फिर क़ाशनी साहब से पूछा "....मेरे ख्याल में कुछ गलत तो नहीं कहा मैंने?"

क़ाशनी साहब ने यह सुनकर पहले फरीद की ओर देखा फिर मुस्कुराते हुए बेगम से कहा "गलत कभी कहाँ कहती हैं आप?  चालीस साल से ज़्यादा गुज़र गये मगर मजाल है कि आपकी ज़बान से कोई गलत बात भी फूटी हो!!" यह बोलते हुए वह फिर से चाय पीने लगे।

फरीद और बेगम खामोशी से उन्हे देख रहे थे। चाय की चुस्की लेकर फिर क़ाशनी साहब ने एक फीकी सी हँसी के साथ अपनी बात कही "....असल बात ये है बेगम कि जो बात आपकी समझ में ज़्यादा ज़रूरी लगती है, शायद दिल्ली और इस्लामाबाद में कुर्सियों पर बैठे लोगों को वह बात वाहियात और गैर-ज़रूरी लगती है।"

फरीद भी मुस्कुराकर बोले "....इस्लामाबाद कहाँ जनाब?.... रावलपिंडी से चलती है वहाँ की हुक़ूमत।"

क़ाशनी साहब ने हँसते हुए कहा "...हाँ, अब ये भी अलग ही ज़हर है।" 

चाय पीते हुए फिर वह बेगम साहिबा से बोले "....बेगम, तारीख गवाह है कि फौजी हुक़ूमत जहाँ भी और जबी भी रही है, उसके आस-पास के पड़ोसी हमेशा उस से त्रस्त ही रहे हैं। ऐसा मुल्क कभी भी सुकून से नहीं रह सकता जिसके पड़ोसी मुल्क में फौजी हुक्मरान हों। अब किस्मत की ही बात है कि हमारे पड़ोस में पाकिस्तान है.....और वहाँ अभी फिलहाल फौजी हुक़ूमत ही है, लिहाज़ा परेशानी तो हमें भी उठानी ही होगी।"

"ऐसा होना क्यों ज़रूरी है? " बेगम ने सवाल दागा।

क़ाशनी साहब समझाने लगे "...सीधी सी बात है....देखिये बेगम, जम्हूरियती हुक़ूमत जो अवाम के वोट से चुनी जाती है, उस की बाबत बात ये है कि जो हमारे लीडर होते हैं, भले ही कितने भी नाकारा, निकम्मे और बेईमान होते हों, लेकिन वे अवाम की परेशानियों, अवाम से जुड़े मुद्दों से बखूबी वाक़िफ होते हैं......और भले ही वोट के लिये ही सही, लेकिन उन तकलीफों को दूर करने की कोशिश, चाहे कम या ज़्यादा, लेकिन करते भी हैं।"

बेगम और फरीद सुन रहे थे।

" ....लेकिन फौजी हुक़ूमत एक बिल्कुल ही अलग किस्म का जानवर है। फौजी अफसरान जो होते हैं, पूरी ज़िंदगी भर वे लोग अवाम से कट कर ही रहते हैं.....पूरी ज़िन्दगी वो अपनी वर्दी में, अपने उस फौजी डिसिप्लिन में, अपने आग उगलने वाले हथियारों और अपनी बटालियन के साथ ही गुज़ारते हैं फिर चाहे वह इलाका किसी खौफनाक जंगल का हो या फिर सौघरा कैंट जैसे इलाकों में......उनकी ट्रेनिंग ही कुछ इस तरीके की होती है..... ऐसे में न चाहते हुए भी उनकी हालत कुछ ऐसी हो जाती है कि अवाम की तकलीफों, अवाम से जुड़े मुद्दों को एक तो वे समझ ही नहीं सकते और अगर समझते भी है, तो भी उन्हें सुलझाने का कोई रास्ता नहीं निकाल पाते।"

बेगम ने पूछा "फिर? "

"....फिर यह होता है कि उस मुल्क की अवाम परेशान होने लगती है, और इस परेशानी का कोई हल नहीं निकल रहा होता है. ऐसे में उस फौजी हुक्मरान के पास सबसे बेहतरीन रास्ता यही बचता है कि वह अपने किसी पड़ोसी मुल्क की ओर निगाह डालता है और अपनी अवाम को यह चिल्ला-चिल्ला कर बताता है कि उसका पड़ोसी मुल्क ही उसके अपने मुल्क की अवाम की सारी तकलीफों, सारी परेशानियों की जड़ है। वह अवाम को समझाता है कि उसका पड़ोसी मुल्क ही उसका दुश्मन है और इस दुश्मन से अवाम की हिफाज़त के लिये, अवाम की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिये, और अपने मुल्क की सरहदों का दिफा करने के लिये उस फौजी हुक़ूमत का उस मुल्क मे बने रहना निहायत ज़रूरी है। वह यही बताता रहता है कि कोई भी जम्हूरियती हुक़ूमत दुश्मन मुल्क से अपने अवाम की हिफाज़त नहीं कर सकती, सरहदों का दिफा नहीं कर सकती, और इसीलिये फौजी हुक़ूमत ज़रूरी है।"

बेगम सुन रही थीं।

"... और फिर अवाम अपनी सारी तकलीफें, सारी परेशानियाँ भूलकर अपने उस फौजी हुक्मरान के पीछे हाथ जोड़कर चलने लगती है, और पड़ोसी मुल्क को बरबाद करने की कसमें खाने लगती है भले ही अवाम के अपने घरों में ठंडे चूल्हों पर खाली, ठंडी पतीली रखी हो, बच्चों के स्कूलों का नामोनिशान न हो और भले ही शहर में अस्पताल न बना हो...... इस तरह से फौजी हुक्मरान अपनी अवाम का ध्यान उनके बुनियादी मुद्दों से हटाकर फिज़ूल के और गैर-ज़रूरी मुद्दों की ओर बहका देते हैं, और इसी तरह से अपनी कुर्सी, अपनी ताक़त कायम रखते हैं......सालों-साल....लगातार।"

फरीद ने अब कहा "....बिल्कुल सही फरमा रहे हैं आप, अब देखिये ना, यूरोप में हिटलर और मुसोलिनी और स्टालिन ने भी तो यही किया था। उन्होनें अपने मुल्कों हर एक समस्या के लिये दूसरे मुल्कों को ही ज़िम्मेदार बताया और जंगें लड़कर ही अपनी प्यास बुझाई.  वैसे जनाब, जर्मनी में इत्तेहाद के लिये तो बिस्मार्क ने भी यही चाल चली थी और फ्राँस, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क से जंगें लड़ीं थीं।"

क़ाशनी साहब हँस कर बोले "....और पहले जाओ मियाँ!......हिटलर, स्टालिन से बहुत पहले नेपोलियन ने भी ठीक यही काम किया था। उसने तो साफ कहा था "मैं जंग की पैदाइश हूँ, और अपने आपको फ्राँस की अवाम की नज़र में चहेता बनाये रखने के लिये मुझे लगातार जंगों की ही ज़रूरत होगी।"

फरीद ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

क़ाशनी साहब ने अपनी बात जारी रखी "....पाकिस्तान में अयूब खान का भी यही हाल है। 1958-58 में तख्तापलट करके वो पाकिस्तान के सर्वेसर्वा बने। आज करीब 7-8 बरस बीत गये हैं, और उनके पास अपनी अवाम को दिखाने के लिये किया गया अपना कोई काम नहीं है। अभी जो जनवरी में वहाँ प्रेसिडेंशियल इलेक्शन हुए , वहाँ भी खान साहब बड़ी ही मुश्किल से, बस किसी तरह से जीत पाये हैं। कराची, लाहौर जैसे शहरों में उनकी पार्टी हार गयी और ईस्ट पाकिस्तान में तो सूपड़ा साफ हो गया उनका......वह तो खैर मनाएं गाँव-देहात के वोटरों की जिनकी बदौलत खान साहब को बमुश्किल जीत नसीब हुई है। अब ऐसी हालत में उनको गद्दी पर पकड़ मज़बूत बनाए रखने और अवाम की नज़र में खुद को पाक साफ रखने का सिर्फ एक रास्ता नज़र आ रहा है और वह है हमारा मुल्क हिंदुस्तान..... वहाँ भी वह यही कह रहे हैं कि पाकिस्तान की तमाम परेशानियों की वजह केवल हिंदुस्तान है। पाकिस्तान की सरहदें हिंदुस्तान के रहते महफूज़ नहीं हैं और हिंदुस्तान को सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है और ये नेक काम केवल वही कर सकते हैं, कोई दूसरा नहीं....... मतलब यह वही बात है कि लोगों का ध्यान बिजली-पानी-रोटी-सड़क-तालीम जैसी बुनियादी बातों से हटाकर फालतू की बातों की ओर लगाना।"

" .....फिर वह यह भी देख रहे हैं कि नेहरू जी अब नहीं हैं। गाँधी जी और सरदार पहले ही जा चुके हैं। मौलाना आज़ाद भी नहीं हैं। बासठ की जंग भी हिंदुस्तान हार ही चुका है, और शास्त्री जी अभी नये हैं और शख्सियत में नेहरू जैसे नहीं हैं। इसलिये अयूब खान यहाँ अपने सियासी फायदे के लिये मौका देख रहे हैं..... बस इतनी सी बात है।"

अब तक इन तीनों की चाय खत्म हो चुकी थी और तीनों ने अपने खाली कप मेज पर रख दिये थे। तभी अनीसा की आवाज़ आयी " बेगम साहिबा!......!" गुलफिशाँ जो अब तक गम्भीरतापूर्वक बातें सुन रही थीं, दु:खी मन से तीनों कप अपने हाथ में लेकर उठी और जाते-जाते उनकी धीमी आवाज़ सुनाई दी " .....देखती हूँ किसलिये बुला रही है अनीसा?.....अजीब जानवर है यह सियासत, जिसकी प्यास सिर्फ बच्चों के खून से ही बुझती है ", और वे पर्दा हटाते हुए बैठक के अंदर चली गयीं।

उस्ताद और शागिर्द बात कर ही रहे थे कि थोड़ी देर मे अनीसा और बेगम साहिबा बाहर आईं। अनीसा के कंधे पर खादी का एक कुछ बड़ा सा थैला लटक रहा था। उन्हे देखकर फरीद अपनी जगह पर खड़े हो गये। बेगम साहिबा ने सिर पर हिजाब सही करते हुए कहा "आप लोग बातें कीजिये. हम कुछ सब्ज़ी ले आएं अनीसा के साथ बाज़ार जाकर...... अभी इसने देखा कि घर मे सब्ज़ियाँ खत्म हैं।" फिर उन दोनों ने क़ाशनी साहब और फरीद का अभिवादन किया और बाज़ार के लिये पैदल ही निकल गयीं।

फरीद फिर से कुर्सी पर बैठ गये और बात आगे चली। फरीद ने कहा ".....वो सब तो ठीक है जनाब, लेकिन अभी जो सूरत-ए-हाल बन रहे हैं, उसने हम लोगों के आगे फिर से वही पुरानी मुश्किल खड़ी कर दी है.......फिर से वही ज़हरीला सवाल पूछा जा रहा है"

क़ाशनी साहब ने उनकी ओर देख कर पूछा "क्या मतलब? "

फरीद ने अपनी बायीं कुहनी को कुर्सी के हत्थे पर टिकाकर और बायें हाथ की उँगलियों से अपने होंठ सहलाते हुए क़ाशनी साहब की ओर देखते हुए खिन्न स्वर में कहा " वही पुरानी बात......वही पुरानी बहस, कि हिंदुस्तानी मुसलमान क्या हैं और क्या नहीं?.....क्या वो इस मुल्क के वफादार ही हैं या फिर गद्दार ही? "

क़ाशनी साहब खामोशी से सामने रखी मेज की ओर देख रहे थे।

".....वही दसियों साल पुराना सवाल फिर से किसी राक्षस की तरह मुँह फैलाये हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है, मानो हमे निगलने को तैयार बैठा हो......और हम फिर से हर किसी को जवाब देते फिरें कि हम तो वैसे नहीं , हम तो ऐसे हैं।" फरीद ने दु:खी होकर कहा।

क़ाशनी साहब अभी भी चुप ही थे।

"......और वह भी तब है जनाब जबकि हमारे बाप-दादाओं ने भी इस मुल्क की आज़ादी की लड़ाई बराबर से लड़ी है, जेल गये हैं, और शहादत भी दी है.....और सिर्फ जंग-ए-आज़ादी की ही बात क्यों करूँ, आज़ादी के तुरंत बाद इसी पाकिस्तान के साथ क्या सैंतालीस की जंग हमने हमारे हिंदू भाईयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं लड़ी?.... क्या 'नौशेरा के शेर' ब्रिगेडियर उस्मान जंग में शहीद नहीं हुए और उसके बाद भी जनाब, क्या चीनी फौज से नहीं लड़े हम?......मगर फिर भी, वह सवाल तो सवाल ही है हमारे आगे "

इतना बोलकर फरीद चुप हो गये। शायद उनके अंदर का गुबार निकल गया था।

क़ाशनी साहब फरीद की ओर देखते हुए अपने अलहदा और फलसफी अंदाज में कुछ भारी आवाज़ के साथ मुस्कुराते हुए बोले "अब जिन्ना साहब जो भी कुछ यहाँ करके गये हैं, उसकी कीमत तो हमें चुकानी ही होगी फरीद मियाँ!.......बाप-दादा की गलतियों की सज़ा बच्चे ज़रूर भुगतते हैं।"

फरीद की आँखे सवाल पूछ रही थीं लेकिन ज़बान चुप थी।

क़ाशनी साहब ने बोलना जारी रखा ".....याद है वो गंगा नदी के ज़मीन पर आने की कहानी ?.....राजा सगर के बच्चों ने किसी ऋषि के साथ बेहद घटिया हरकत की थी जिस से नाराज़ होकर ऋषि ने उन्हे श्राप दे दिया था। फिर उन बच्चों के पीछे उनकी तीन पीढ़ियों ने बड़ी तकलीफें उठाते हुए घनघोर तपस्या की। राजा भागीरथ उन बच्चों के पीछे की तीसरी पीढ़ी के इंसान थे, और इन्हीं की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा इस धरती पर आयीं, ऐसा कहानियों में माना-पढ़ा जाता है. अगर कुछ वक़्त के लिये इसे सिर्फ कहानी ही समझ लो, फिर भी एक सबक तो है ही कि बड़े लोगों की गलतियों की सज़ा उनके पीछे के छोटे भुगतते हैं। सोचो ज़रा, अगर राजा शांतनु ने अपनी नाजायज़ ख्वाहिशों पर काबू रखा होता और वह सत्यवती से शादी न करते, और पितामह भीष्म ने बिना सोचे-समझे वह प्रतिज्ञा न की होती तो क्या महाभारत होता? क्या इतने लाखों लोग मारे जाते? "

फरीद अभी भी खामोश थे।

"बात ये है फरीद कि कभी भी, और कहीं भी, मज़हब की बुनियाद पर ज़मीन के टुकड़े नहीं होने चाहिये। अव्वल तो यही है कि पहले तो ज़मीन बँटनी ही नहीं चाहिये…महाभारत के पहले जब लड़ाई रोकने की कोशिशें चल रही थीं तब एक दफा अर्जुन किसी बात को लेकर पितामह भीष्म के पास गये थे, जहाँ उन दोनों में कुछ बहस हो गयी थी। तब भीष्म ने अर्जुन से यही कहा था कि "अर्जुन, राजकाज चाहे जैसे चलाना, चाहे जो भी कदम उठाना लेकिन कभी भी मातृभूमि का बँटवारा न होने देना". क्योंकि वह जानते थे कि ज़मीन का बँटवारा केवल आगे के झगड़ों की नींव ही तैयार करता है। मगर फिर भी एक बार को मान लिया जाये कि अब ज़मीन बँटनी ही है, नया मुल्क बनाना ही है तो भी कभी भी मज़हब की बुनियाद पर कोई भी मुल्क तकसीम नहीं होना चाहिये...... बाकी चाहे किसी भी वजह से कोई भी मुल्क, कहीं भी तकसीम हो, उस पर कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन वह वजह मज़हब तो कतई नहीं होना चाहिये।"

"....तारीख उठाकर देख लीजिये फरीद.... दुनिया की अब तक की तारीख में सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान ही इकलौता ऐसा मुल्क है जो मज़हब की बुनियाद पर बना है। क्या कहते थे जिन्ना और इक़बाल साहब ?.....यही न कि हिंदू और मुसलमान दो अलग क़ौम हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकते. मुसलमानों के लिये हमें हमारा अलग मुल्क, अलग पाकिस्तान चाहिये.......तो बन गया पाकिस्तान। अब इस पाकिस्तान के बनने का खामियाज़ा सरहद के दोनों तरफ के लोगों को उठाना होगा, और इनमें वे मुसलमान भी आयेंगे जिन्होनें हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया, बे-शक उन्होनें यह अपनी मर्ज़ी से और अपनी दिली ख्वाहिश से किया और आपकी बात सही है कि इस मुल्क को बनाने में उनकी बराबर की हिस्सेदारी रही है लेकिन ये तकलीफ तो उन्हें उठानी ही पड़ेगी और सिर्फ अभी नहीं, आगे आने वाले बहुत लम्बे वक़्त तक उठानी पड़ेगी.  ये तपस्या इतनी आसान नहीं होगी फरीद।" क़ाशनी साहब मुस्कुरा रहे थे।

"आखिर क्यों " फरीद ने पूछा


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama