दो घड़ी का हमसफ़र

दो घड़ी का हमसफ़र

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देखो!
मैं न
तुमसे प्यार कर बैठा था
जैसे किसी गहरी गली में
रौशनी का रास्ता ढूंढ रहा था 

मदहोशी में लबरेज़
मैं तो बस ख्वाब ही बुनता रहा 
होश में होता तो खुद को याद दिलाता
कि ट्रेन की एक बर्थ में बैठे दो मुसाफ़िर बस सीटें बाँट सकते हैं
ज़िन्दगी नहीं !
होश में होता तो सोचता
किसी अजनबी से प्यार का अंजाम क्या होता है !
लेकिन जो होश में होता तो प्यार कहाँ होता !

दो घड़ी के हमसफ़र के लिए
इस कशिश को प्यार कहना...
कोई पुख़्ता वजह नहीं है मेरे पास ।
पर मोहब्बत वजहों के रास्ते चलती कहाँ है ।

कहने को तो दोस्तों-किताबों के साथ रहता
मगर होता नहीं कभी भी ।
ऐसा लगता
साधना में लीन हूँ
सारी ऊर्जा- सारी शक्तियां
तुम्हारा ध्यान करने में जातीं ।
सजदे में भी होता
तो इतना ईमान न होता !

मैं जानता था
तुम किसी उपन्यास के उन पन्नों की तरह हो
जिसका न कहानी से सारोकार है
न कहानी से वास्ता !
ये पन्ने तो बस अनुभव के लिए होते हैं ।
जिन्हें मैं छू लेने की ख्वाहिश रखता
पागल था!

मानो या न मानो
एक रिश्ता-सा बन गया था हमारे बीच ।
लेकिन कुछ रिश्तों की म्याद इतनी-सी ही होती है ।
जितने छोटे रिश्ते
उतने ही खूबसूरत ।
पाक
मगर बेनाम !

बस मेरी एक बात मान लो
अपने चाँद-से चेहरे को
यूँ ही मुस्कुराने देना ।
क्या पता
- किस अजनबी की स्याह रातें
इस चेहरे से रोशन होती हों !
और हाँ,
प्यार तो मुझे तुमसे आज भी है !


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