दण्डकारण्य वन की उत्तपत्ति कथा
दण्डकारण्य वन की उत्तपत्ति कथा
महाराज इक्षवाकु का पुत्र दंड अत्यंत ही शूरवीर , पराक्रमी था। महाराज ने उसे रहने के लिए विंध्यगिरी के दो शिखरों के बीच मे स्थान दे दिया। उस स्थान को मथुमत कहा गया।
एक दिन चैत्र मास में उसकी दृष्टि महाऋषि भार्गव के वंश में जन्मी परम् सुंदर कन्या अरजा पर पड़ी। अरजा के रूप की कोई तुलना नही करी जा सकती थी।
दण्ड कामासक्त होकर अरजा के पास जा पहुचा और उससे मिलन की इच्छा जारी करने लगा। अरजा ने दण्ड को सपष्ट रूप से मना कर दिया। परन्तु दण्ड ने जबरदस्ती अरजा को अपनी बाहों में ले लिया और अरजा को निर्वस्त्र कर अपनी काम इच्छा पूर्ण करी।
राजा दण्ड अपनी इच्छा की पूर्ति कर अपने नगर की और चल पड़ा और अरजा भी दिन भाव से रोती हुई अपने पिता के पास चली गई तभी अरजा के पिता शुक्राचार्य ने अपने ध्यान से सब कुछ पता लगा लिया और शुक्राचार्य ने राजा दण्ड के १०० योजन में फैले राज्य को श्राप दिया कि दण्ड के राज्य में इंद्र सात रातों तक धूल की कड़ी वर्षा करेंगे। शुक्राचार्य ने अपने शिष्यों से कहकर नगर में रह रहे निवासियों की व्यवस्था कर दी।
राजा दण्ड के राज्य जो १०० योजन तक फैला था और अब वहाँ पर् सिर धूल से सनी जमीन थी वह ही राज्य दण्डकारण्य वन कहलाया।