दिव्यांग लाचारी नहीं सक्षमता
दिव्यांग लाचारी नहीं सक्षमता
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चपरासी यानी (प्यून) दरवाजा खटखटाते हुए: सर 20 मिनट में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन शुरू होने वाला है तो सेक्रेटरी सर ने बोला कि आपको याद दिला दें।
नरेश (जिसको सर से संबोधित किया गया है) : हां मुझे याद है सर को बोलना कि मैं समय से पहुंच जाऊंगा।
चपरासी यानी प्यून: जी सर बोलकर दरवाजा बंद करके निकल गया।
सैन फ्रांसिस्को, (कैलिफोर्निया, अमेरीका) में नरेश अपने ऑफिस के रूम में बैठे बैठे कुछ सोच रहा है। उसने अपने बैग में से एक पुराना टेप रिकॉर्डर निकाला और टेप रिकॉर्डर को हाथ में पकड़ते ही वह अपनी जिंदगी के 27 सालों को याद करता है। वह अपने इन 27 सालों में जो भी उसका अनुभव रहा चाहे अच्छा हो या तो बुरा वह उसे टेप रिकॉर्डर में रिकॉर्ड करके उस अनुभव को अमर बनाना चाहता है जिससे आनेवाले समय में हर एक युवा सुन सके। उन 20 मिनटों में वह अपनी जिंदगी को रिवाइंड बैक करते हुए पहुंच जाता है अपने बचपन के गांव गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) में, जहां पर उसने अपने जिंदगी के 22 साल व्यतीत किए थे।
नरेश टेप रिकॉर्डर का बटन चालू करता है और बोलता है कि उसका जन्म गाजियाबाद के एक छोटे से परिवार में हुआ था। उसके पैदा होने से पहले ही उस परिवार में तीन लड़कियों का जन्म हो चुका था और नरेश सबसे छोटा था। उसके पैदा होते ही पूरा परिवार इतना खुश हो गया था, खुशी से झूम रहा था लेकिन उसके मां-बाप की खुशियों पर नजर लग गई जब उन्हें पता चला कि नरेश पैदाइशी विकलांग है। उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा एक तो पहले से ही वह इतने गरीब थे और जब पता चला कि लड़का पैदा हुआ है और वो भी विकलांग तो मायूसी के बादल उनकी आंखों में छाने लगे। यह बोलते बोलते नरेश की आंखों में आंसू आ जाते हैं।
मेरे( नरेश) पिता इतने गरीब थे कि उनकी हैसियत नहीं थी कि वह अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें और इसी कारण वर्ष उनकी पहले की दो लड़कियों को वह पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ा सकें और उसके बाद मेरी दो बड़ी बहनों ने अपने पिता के साथ खेत काम करना शुरू कर दिया। तीसरी बहन को तो वह शिक्षा दे रहे थे लेकिन जैसे तैसे करके, अभी आप सब सोच रहे होगें कि मैंने किस तरह शिक्षा हासिल की? सच बताऊं तो मुझे बचपन से लेकर अब तक पता ही नहीं है की स्कूल दिखता कैसा है, हां मैंने अपनी शिक्षा घर में ही हासिल की है, जैसे रामायण महाभारत और भगवत गीता जैसे पुराणों को पढ़कर जिंदगी किस तरह जी जाती है मैंने उसमें से सीखा है और यही नहीं मेरी तीसरी बहन की किताबें लेकर मैंने पढ़ना शुरू किया अपने मां बाप से छुपकर और मेरी तीनों बहनों ने मेरी बहुत मदद की वे कुछ पैसे बचा- बचा कर मेरे लिए किताबें लेकर आती थी कि जिससे मेरा पढ़ना कभी ना रुके। यूं तो मैं पैदाइशी विकलांग था मेरे दोनों हाथ पैर काम नहीं करते थे लेकिन बचपन से ही मुझे चित्रकला में बहुत रूचि थी और उसी के बदौलत मैं सुंदर सुंदर चित्र अपने मुंह से बनाकर उसे बाजार में बेचता था कि जिससे मैं अपने पिता की थोड़ी मदद कर सकूं उनका पैसे कमाने में हाथ बता सकूं।
आप सभी को यह सुनकर लग रहा होगा कि मेरी कहानी तो बहुत सामान्य कहानी है यह तो हर किसी की होती है, लेकिन ऐसा नहीं था बचपन से लेकर मैंने लोगों की कड़वी बातों के ऐसे घुट पिए हैं जो मेरे कानों में आज भी गूंजते हैं। यूं तो मैं ज्यादातर समय अपने घर में ही रहता था लेकिन उसके बाद भी पूरे गांव में मेरी ही बातें होती थी मुझे लंगड़ा, लूला, अपाहिज, धरती पर बोझ ऐसे नामों से पुकारा जाता था। मेरे मां-बाप को भी यह सब बोलकर लज्जित किया जाता था और बाबा तो इतने गुस्से में रहते थे कि वह अपना सारा गुस्सा मेरे ऊपर या तो मां पर निकाल देते थे। घर पर रोज लोगों ने हमसे यह कहा लोगों ने हमसे वह कहा यह सभी बातें ही होती थी और घर का माहौल दुखी ही रहता था। फिर एक दिन सूरज की रोशनी के उजाले की तरह हमारे घर में भी कुछ ऐसी खबर का उजाला आया जिससे हमारी जिंदगी बदल गई और खबर यह थी कि मुंबई से कुछ संस्था के लोग आए हुए थे वह गांव से 5 बच्चों का चयन करने वाले थे, ऐसे बच्चे जो हर कार्य में होशियार हो पढ़ाई, चित्रकला, संगीत और खेलकूद में भी। चुनिंदा बच्चों को उनकी संस्था के तरफ से आगे की पढ़ाई का खर्चा दिया जाने वाला था और वे बच्चों को नौकरी के लिए विदेशी भेजने वाले थे। संस्था की शर्त के अनुसार विकलांग बच्चे भी उस प्रतियोगिता में हिस्सा ले सकते थे और फिर क्या था भगवत गीता और मां की सीख के मुताबिक इंसान को तब तक अपने लिए लड़ना चाहिए जब तक उसे किसी का भी भय ना हो और वे स्वयं जानता हो कि वे सत्य की राह पर ही चल रहा है एक ऐसी राह जिस पर चलने वाले बहुत कम होते हैं और जो किसी की परवाह नहीं करते हैं।
बस फिर क्या था मैं बिना डरे उस प्रतियोगिता में गया पढ़ाई संगीत और चित्रकला तीनों ही में निपुण साबित हुआ लेकिन हाथ पाव ना होने की वजह से मैं खेलकूद में अपने आप को साबित न कर सका। कहते हैं न जहां चाह होती है वहां राह होती है और इसी वाक्य पर आधारित मेरी जिंदगी में एक खुशनसीब मोड़ आया; संस्था वालों ने मेरा चयन किया और वह मुझे अपने साथ मुंबई ले आए आगे की पढ़ाई के लिए।
मुंबई में मैं उनके साथ एक घर में रहता था जहां उन्होंने मेरा इलाज बड़े अस्पताल में शुरू कर दिया था और साथ ही साथ मुझे पढ़ाने के लिए बाहर से शिक्षक भी आ रहे थे। संस्था वालों की मेहरबानी की वजह से एक ऐसी चीज हुई जो मैंने अपने सपने में भी ना सोची थी और वह यह थी कि मैं अपने दोनों पांव पर चल पा रहा था, डॉक्टर के बेहतरीन इलाज की वजह से मेरे पांव काम कर रहे थे और एक हाथ भी अच्छे से काम कर रहा था। मेरी हालत बेहतरीन होते ही एक-दो साल में संस्था वालों ने मुझे नौकरी के लिए कैलिफ़ोर्निया अमेरीका) भेज दिया।
कैलिफ़ोर्निया में छोटी-मोटी नौकरी करके मैंने अपने लिए पैसे जमा किये और उस पैसों से मैंने अपना दाखिला एक प्रोफेशनल कोर्स में करवाया और आज नतीजा सबके सामने है मेरी गिनती विश्व के बेहतरीन व्यापारी यानी (उद्यमकर्त्ता) में की जाती है।
मीटिंग शुरू होने में सिर्फ 2 मिनट बाकी है और एक अंतिम मैसेज आज की युवा पीढ़ी के लिए:
"जिंदगी एक रेल है अच्छे सफर में हसाएगी भी बुरे सफर में रुलाएगी भी लेकिन समय-समय पर कुछ ऐसे व्यक्ति के साथ परिचय करवाएगी जो तुम्हारी जिंदगी बदलने का कारण बन जाए और जब जिंदगी में रुकने की जरूरत है तो जोर से सीटी मारकर लाल झंडी दिखाकर रुकआएगी भी।"