suneeta gond

Classics Inspirational

4.7  

suneeta gond

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देवदासी-अंतिम भाग

देवदासी-अंतिम भाग

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तभी किसी के आने की आहट से श्यामा सचेत हो गयी, उसने पलट कर देखा तो मीरा बाई शारदा के साथ आते दिखाई दी। श्यामा ने मेनका से कहा हम दोनों की बीच की बाते तुम किसी को मत बताना। इतनी देर में शारदा और मीरा बाई मेनका के कमरे में आ चुकी थी। शारदा श्यामा को आवाज लगा कर कहती है तुमने मेनका को खाना खिला दिया, हां खिला दिया दीदी। मीरा देवी सिंहासन कुर्सी पर विराजमान हो जाती है, मेनका झट से पलंग से उतर कर उनके चरण स्पर्श करती हैं, आज आशीर्वाद के रूप में मीरा देवी केवल मेनका के सिर पर हाथ रखती है। मीरा देवी मेनका से पूछती हैं मेनका तुम्हें यहां अच्छा लग रहा है जी कह कर मेनका सिर झुका लेती हैं और श्यामा तुमने मेनका को सब‌ समझा दिया, श्यामा भी जी समझा दिया कह कर सिर झुका लेती हैं, तभी मीरा देवी शारदा की तरफ हाथ बढ़ाती है और शारदा झट से‌ घुघरू निकाल कर देती है, मीरा देवी मेनका को अपने‌ पास बिठा कर‌ कहती है ये‌ लो मेनका ये मंदिर की तरफ‌ से आशीर्वाद है तुम्हारे ‌लिए।

जब‌ मंदिर में कोई उत्सव होगा, या कोई समारोह तो शारदा, श्यामा और तुम्हे नृत्य का प्रदर्शन करना होगा। गांव वालों और ठाकुरों को ‌भी पता चलना ‌चाहिऐ की हमारी मंदिर की दैवदासियां समस्त कलाओं में निपुण हैं, श्यामा और ‌शारद को तो सभी देख चुके है‌ अब तुम्हारी ‌बारी है। कल से ये दोनों तुम्हे प्रशिक्षण देगी, और आज ‌से छः महीने ‌बाद नवरात्र के नौवों ‌दिन ‌तुम अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करोगी। मेनका के हाथ में घुंघरू पकड़ाते हुए मीरा बाई ने कहा अब मेरे सोने का समय हो गया है सुबह तड़के ईश्वर के अनुष्ठान और भोग लगाने‌ की तैयारी करनी होगी। सुबह नौ बजे से पलहारी महाराजका प्रवचन है। फिर गांव वालों को प्रसाद भी वितरित करवाना होगा। अच्छा हम चलते है। श्यामा जब तक महाराज मेनका को‌ आशीर्वाद देने नही आते तक तुम मेनका के साथ रहो, यह कहते हुए मीरा देवी ‌चली जाती हैं। उनके जाते ‌ही‌ मेनका ने पूछा श्यामा ये पलहारी महाराज ‌कौन है, बहुत पहुंचे हुए स्वामी हैं ये बीस मंदिर के स्वामी है सभी मंदिरों में बारी बारी जाते है, कही एक महीने रहते है तो कही दो महीने, लेकिन इस गांव में तभी आते है जब कोई नई देवदासी बनती है। इनके रहने खाने और सभी सुविधाओं का इंतजाम गांव के ठाकुर लोग ही करते हैं। मेनका थोड़ी उदास होकर पूछती है मैने तुम्हारी जगह ले ली क्या तुम्हे बुरा लग रहा है। नही तो तुम नही लेती तो कोई और‌ ले लेता, ये क्रम तो चलता रहता है, देखो शारदा की जगह हमने ली और मेरी तुमने। फिर इस जगह की चाहत कल तुम्हें भी न रहेगी। इतनी देर में पलहारी महाराज की आने की सूचना एक महिला दे जाती है, श्यामा मेनका से कहती है कि महाराज आ रहें तुम्हें आशीर्वाद देने। मेनका की खुशी का ठिकाना न था। मेनका बोली बताओ श्यामा पहले हमें मंदिर में झांकने भी नही दिया जाता था हम लोग छोटी जात के है न इसलिए, मां बताती थी। अब इतने बड़े महाराज आशीर्वाद देने हमें खुद चलकर आ रहे हैं। कोई आहट न पाकर मेनका पलटकर देखती है, कहती है

क्यों श्यामा तुम कहां खोयी हो। सामने पलहारी महाराज खड़े थे, श्यामा महाराज को प्रणाम कर कमरे से बाहर चली गयी। महाराज के हाथ में कृष्ण जी की छोटी मूर्ति थी, श्यामा को जाता देख मेनका ने आवाज लगाया तुम कहा जा रही हो, लेकिन श्यामा ने पलट कर नही देखा। महाराज ने कृष्ण जी की मूर्ति मेनका की तरफ बढ़ायी मेनका ने मूर्ति ले ली और महाराज के चरण स्पर्श किये। महाराज ने दोनों हाथों से पकड़कर मेनका को उठाया। मेनका को उनका उठाना अशोभनीय लगा। वो हाथ छुड़ाकर चार कदम पीछे हट गयी। पलहारी महाराज ने मेनका के हाथ से मूर्ति लेकर आसन पर रख दिया और धूपबत्ती जला दी, फिर मुस्कराकर बोले मेनका मुझे भगवान ने ही भेजा हैं। थोड़ी देर बाद मेनका को चारों तरफ धुन्ध जैसा दिखने लगा, धुंधलापन पूरे कमरे में फैल गया, जिसके कारण हर चीज धुंधली दिखाई दे रही थी।

  मेनका को आभास हुआ किया कि उसकी मां का हाथ उसके हाथ से रेत की तरह फिसल रहा है, कुछ ही पल में वो अपनी मां से दूर हो जाती है। वो अपनी मां से बिछड़ने के बाद एक मायावीय जंगल में भटक गयी है, जंगल में मीठे-मीठे फल लगे है जो काफी ऊंचाई पर है, पर अचानक से नीचे आ जा जाते है। मेनका एक -एक कदम सम्भाल कर आगे बढ़ा रही है, फिर भी उसके कपड़े कांटों की झाड़ में फंस जाते है मेनका अपने कपड़ों को बहुत हाय हुज्जत के बाद बचा पाती है फिर भी कही न कही से फट ही जाते है, फल खाने की लालसा में मेनका एक टीले पर चढ़ जाती है, दो चार मीठे सेब उसके हाथ में आ जाते है, खूब पेट भर खाती है तभी उसके कानों मे शेर के दहाड़ने की आवाज गूंजती है, वो अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागती है, लेकिन शेर ताकतवर होने के साथ बहुत चालाक और मायावीय होता है, वो मुझे खाने के बजाय मेरे साड़ी के आंचल को पंजे से दबा कर रखता है, और मेरी साड़ी को धीरे धीरे खिंचता है, अचानक से मायावीय शेर अपना रूप बदलकर भेड़िया बन जाता है, मैं अपनी साड़ी का छोर पकड़कर अपनी तरफ खींचती हूं, और वो अपनी तरफ।लेकिन उसने अपने ताकतवर पंजे से इतनी जोर से दबा रखा हैं कि उसकी ताकत के आगे मेरा बल कम पड़ जाता है। इस मुसीबत में मुझे श्री कृष्ण जी याद आती हैं और द्रोपदी की तरह हाथ जोड़ कर इस आश के साथ खड़ी हो गयी की शायद मेरी लाज बच जाए, लेकिन ऐसा नही हुआ, मुझे ऐसा लगा जैसे कोई भारी शिला मेरे ऊपर गिर गया, साड़ी कि छोर अचानक से मेरे हाथ से छूट गया, वो भेड़िया अब राक्षस का रूप ले चुका था, लाख कोशिश के बाद भी शिला मेरे ऊपर से नही हटा।

जहां मैं खड़ी थी वही एक नदी बह रही है जिसमें शुद्ध और मीठा जल था, मेरा गला प्यास से सूख रहा था,‌ फिर भी मन में एक आश थी मैं तो ईश्वर की पत्नी हूं मेरा तो बाल बांका भी नही हो सकता पर सामने वाले जानवर को मुझसे भी ज्यादा घमण्ड था उसे तो पूरा विश्वास था की वो स्वयं ईश्वर है। मुझे बचाने कोई नही आया धीरे-धीरे मैं हार रही थी और सामने वाला जानवर जीत रहा था। माया की जीत हो गयी। मैं नदी की तरफ पानी के लिए हाथ बढ़ा रही थी शायद थो़ड़ा पानी मिल जाए, लेकिन नदी मुझसे दूर होती जा रही थी, तभी आसमान से बूंदा बांदी शुरू हो जाती है, अचानक से मेरी आंख खुलती हैं, तभी किसी ने मेरे मुंह पर‌ पानी‌ का‌ छींटा मारा और मेरे मुंह में पानी से भरा तांबे का लोटा लगाया, दो घूंट पानी गले तक पहुंचने के बाद मेरे गले से दर्द भरी आवाज निकली ईश्वर तुमने आने में बहुत देर कर दी। श्यामा घबराते हुए मीरा बाई को बुला कर लाई, शायद मेनका को गहरा सदमा लग गया था, मीरा बाई और श्यामा ने मेनका की बहुत देखभाल की। अब धीरे-धीरे वो ठीक होने लगी थी। आज दो दिन बाद उसकी आंखें खुली। उसके कानों में पलहारी महाराज की आवाज आ रही थी, वो अपने प्रेवचन में कह रहे थे कि हमें महिलाओं का सम्मान करना चाहिए, दुसरे की बेटियों को मां बहन का दर्जा देना चाहिए, वो‌ लक्ष्मी का रूवरूपा होती है। लक्ष्मी नाम सुनते ही मेनका के पसीने छूटने लगते हैं। उसने खिड़की से झांक कर देखा तो महाराज का समागम चल रहा था।

बाहर बहुत बड़ा पण्डाल लगा था, ग्रामवासी महिला, पुरूष और बच्चें हाथ जोड़कर कर प्रवचन सुन रहे थे। उनके चरणों के पास मीरा देवी बैठी थी, उनके एक तरफ श्यामा और दुसरे तरफ शारदा शाही कपड़ो में नृत्य कर रही थी। प्रवचन समाप्त होते ही पलहारी महाराज के जयकार से पूरा पण्डाल गूंज रहा था। महाराज के खड़े होते ही सभी उनके चरणों में लोट गये। एक बड़ा सा चांदी का थाल पानी से भरा था, चांदी के थाल में पैर डुबाते हुए महाराज अन्दर की तरफ आ गये, उस‌ पानी‌ को सभी लोग चरणामृत की तरह पी रहे थे, और सिर के ऊपर डाल रहे थें। मीरा देवी प्रसाद का वितरण करा रही थी। अभी महाराज को एक महीने रूकना था। चार पांच दिन ऐसे ही कट जाने के बाद श्यामा और शास्त्री जी ने नृत्य सिखाना शुरू कर किया। दो महीने में मुझे नृत्य आ गया मैं अपनी धुन में नाच रही थी तभी खचाखच सामान से भरी बैलगाड़ी मंदिर में आयी, मंदिर के संचालक ने बैलगाड़ी का सारा सामान उतरवाकर मंदिर में रखवाया। ठाकुर के नौकर ने मीरा देवी से कुछ कहा जो मुझे सुनाई नही दिया फिर एक कागज का टुकड़ा हाथ में पकड़ाकर चला गया।

लेकिन श्यामा समझ चुकी थी। शाम को श्यामा मेरे कमरे में आयी हम लोगों ने खूब बातें की, फिर श्यामा उदास होकर बोली, रात में ठाकुर साहब आयेंगे, बहुत अमीर आदमी है ये मंदिर में जो दान का सामान आया है वो ठाकुर साहब के घर से है, उसके बदले में  ----- श्यामा कह कर चुप हो गयी। मेनका समझ चुकी थी, जबसे वो देवदासी बनी तबसे यही हो रहा था। कभी इसकी दासी तो कभी उसकी दासी, और त्योहारो, उत्सवों में नृत्य का प्रदर्शन करना। आधी रात में ठाकुर साहब को शारदा मेरे कमरे में छोड़ गयी। नवरात्रि आ गयी। मैने, श्यामा और शारदा ने नौ दिन अपनी कला का प्रदर्शन किया। दशहरे के दिन मुझे चक्कर आया और मैं गिर पड़ी। एक महीने हो गये महाराज जा चुके थे। समय‌ के‌ साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आ चुका था।

अब मै लता की मां बन चुकी थी मुझे नही पता लता किसकी बेटी है, बस इतना पता है लता मेरी बेटी है। अब मैं श्यामा और शारदा की श्रेणी में आ चुकी थी, मंदिर में सभी लोग नयी देवदासी लाने की योजना बना रहे थे, आज श्यामा बहुत खुश थी वो हंसते हुए मेरे कमरे ‌में आयी। उसे खुश‌ देखकर मैंने पूछा ‌क्या बात‌ है श्यामा बहुत दिनों बाद तुम इतनी खुश हो? श्यामा बोली जो हम तुम्हें बताने वाले है सुन कर तुम भी इतना ही खुश होगी, फिर वो लता को जोर-जोर से हवा में उछाल -उछाल कर खिलाने लगी, मुझसे सब्र नहीं हुआ मैंने‌ कहा‌ अब बताओ भी श्यामा, क्या बात है। श्यामा ने लता को पलंग पर लिटाते हुए कहा मेनका मंदिर में नयी देवदासी आने‌ वाली है। अब तुम ‌लता की देख भाल अच्छी तरह‌ से कर सकोगी तो क्या हम लोग अपने घर जायेगे, घर जाकर क्या करोगी ये समाज अब हम लोगों को स्वीकार नही करेगा। ये सुन कर‌ एक बार फिर मां की याद आ गयी। हम लोग तो पहले से ही ईश्वर की पत्नी हैं। मेनका ने पूछा कौन है वो लड़की, यशोदा नाम की लड़की है वो यहां से दस गांव दूर की है, सुना है उसकी मां की तीन बेटियां हैं अपनी बड़ी बेटी को स्वेच्छा से मंदिर को दान कर रही हैं। उसका हाल भी हमारे और तुम्हारे जैसा ही होगा श्यामा।

हूं कहती हुए श्यामा ने मेनका के मुंह में मिठाई खिला दिया। इस बात को एक साल गुजर गये, आज मीरा देवी की पालकी मंदिर के‌ बाहर जा रही थी, मैने उत्सुकतावश श्यामा से पूछा ये शारदा और मीरा देवी कहां जा रहे, श्यामा ने कहा यशोदा ‌को‌ लेने, अब ये‌ लोग एक महीने से पहले नही लौटेंगे, कुछ दिन उस गांव‌ के‌ मंदिर में रुकेगे। एक महीने बाद मंदिर में यशोदा का आगमन हुआ, चारों तरफ चहल-पहल थी। कुछ दिनों बाद पलहारी महाराज फिर पधारें। देवदासी बनाने की वही प्रक्रिया फिर से दोहरायी गयी और‌ यशोदा का नाम बदलकर यशोधरा रख दिया गया। अबकी बार यशोधरा को घुंघरू देने‌ का‌ काम‌ मुझे और श्यामा को सौंपा गया, हम दोनों यशोधरा के पास गये, यशोधरा को खाना देकर थोड़ी देर बात की, उसका ‌भोला चेहरा मुझे सम्मोहित कर रहा‌ था न जाने क्यों मुझे यशोधरा पर दया आई, मैंने पलहारी महाराज के बारे में सब कुछ बता दिया, यशोधरा मुझे घूर कर देख रही थी, जैसे ही मैं और श्यामा उठ कर‌ बाहर आये यशोधरा ने घुंघरू चला कर‌ मारा जिससे उसके सिर पर‌ गहरी चोट लगी। ये खबर‌ मीरा देवी तक पहुंची, मीरा देवी ने शारदा को लेप लेकर मेनका के पास भेजा और खुद यशोधरा के पास गयी, मीरा देवी ने यशोधरा से कहा तुमने मेनका को मार अच्छा नही किया इस तरह हम तुम्हें ज्यादा दिन बचा नही पायेंगे। सुबह से यशोधरा को शास्त्री जी ने नृत्य सिखाना शुरू किया। इधर मंदिर के संचालकों ने बैठक की, जिसमें मेनका को दुसरे मंदिर में भेजे जाने का फैसला हुआ। इस तरह‌ मैं दुसरे मंदिर में पहुंचा दी‌ गयी और दुसरे मंदिर से कोठे पर, कोठे से ठाकुरों की हवेली पर बिकने लगी। लता धीरे धीरे बड़ी होने लगी। एक दिन वीरपुर गांव के ठाकुर शमशेर सिंह की नजर लता पर पड़ी, ठाकुर ने लता को अपने छोटे भाई के विवाह में नृत्य करने का संदेशा भिजवाया, उसके नृत्य से खुश होकर गांव‌ के‌ बाहर ‌खाली पड़ी हवेली दान में दी। फिर मैं लच्छो बाई बन गयी, यहां आने वाली लड़कियों को संरक्षण देना अपना कर्तव्य समझ लिया। यह सुनकर लता और यशोधरा की आंखों से आंसू बह रहे थे। माई ने प्रण लिया कि आज से हम लोग केवल अपनी कला बेचेगे, आगे तुम्हारी इच्छा, अब तुम चाहे इसे अपना घर समझों चाहे कोठा। तुम रहना चाहो तो रहो जाना चाहो तो जा सकती हो ऐसा कहते हुए माई अपने‌ कमरे में चली‌ गयी।

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सारांश   

देवदासी प्रथा ‌का प्रारम्भ छठवीं सदी में हुआ था यह‌ एक अमानवीय प्रथा ‌थी जो धीरे-धीरे कुप्रथा में बदल‌ गयी। देवदासी मतलब "सर्वेंट आफ गाड"। देवदासी मंदिरों की देख-रेख, पूजा पाठ की तैयारी, मंदिरों में नृत्य आदि के लिए थी। कालिदास के मेघदूतम् में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंवारी कन्याओं की चर्चा की है, शायद इन्हें देवदासियां ही माना गया है। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण और‌ कौटिल्य‌ के‌ अर्थशास्त् में देवदासी का उल्लेख ‌किया‌ गया है। विद्वानों ‌का ‌मानना है कि देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग कौटिल्य ने‌ अर्थशास्त्र में किया‌ है। पहले इन्हें संरक्षण हासिल था, फिर धीरे-धीरे इनका जीवन असुरक्षित होने‌ लगा। इनका जीवन धर्म और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहा। शारीरिक शोषण होने के जिक्र भर से रूह कांप जाती ‌है, तो ये कैसे बर्दाश्त करती होगी, इनकी सहनशक्ति ‌को‌‌ प्रणाम। इनका तो हर रोज‌ शोषण होता है ये कैसे बर्दाश्त करती होगी, और तो और इनके बेटियों को भी देवदासी के‌ रूप में देखा जाने लगता है। 



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