vijay laxmi Bhatt Sharma

Drama

3.7  

vijay laxmi Bhatt Sharma

Drama

डायरी सत्रहवाँ दिन

डायरी सत्रहवाँ दिन

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प्रिय डायरी

आज इस वैश्विक महामारी कारोना की वजह से लॉक्डाउन का सत्रहवाँ दिन है। चारों ओर अजीब गमगीन वातावरण है। महामारी रुकने का नाम नहीं ले रही और विश्व भर मे कोहराम मचा हुआ है। देश दुनिया की कोई और खबर नहीं मिल पा रही हर तरफ कारोना कारोना चल रहा है। सुन सुनकर कुंठित होने लगे हैं मन बेचैन है की अब क्या होगा। विश्व भर की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है पर अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज नहीं मिल पाया है।और ऐसे मे कभी नींद आती है कभी नहीं आती, कोई किताब पढ़ती हूँ तो ज्यदा देर तक पढ़ नहीं पाती और कभी पेंटिंग करने लगती हूँ तो भी ज्यदा देर मन नहीं लगता, और ऐसे मे कभी झपकी लग जाए तो सपनो की दुनिया आबाद होने लगती है। मन पंख लगा उड़ने लगता है । मै दिली से दूर उत्तराखंड पहुँच जाती हूँ।

मेरे आस पास प्रकृति अपनी निर्मल छटा बिखेरे खड़ी होती है। मै भागती चली जाती हूँ तितलियों का पीछा करती हूँ उनके रंग लेना चाहती हूँ पूछना चाहती हूँ तुम हर प्रस्थिति मे इतनी खुश और सुन्दर कैसे रहती हो। पहुँच जाती हूँ ग़दरों(झरनो) के पास की तुम अबाधित कैसे बहते हो क्या कोई दुःख कोई चिंता तुम्हारे बहाव को नहीं रोकती। उसकी निरन्तर बहती निर्मल धारा मेरे अशान्त मन को ठंडक दे शान्ति पहुँचाती है।।

मै दौड़ती दौड़ती पहुँच जाती हूँ ऊँचे पहाड़ों के पास पूछती हूँ फिर सवाल तुम इतने अडिग इतने विशाल हो इतनी धूप, सर्दी, बरसात आँधी तूफ़ान झेल कर भी तुम अपने स्थान से हिलते नहीं । कहाँ से तुमने इतनी शक्ति पाई है और उसकी लम्बी ऊँची चोटी मुझे हर मुश्किल मे हिम्मत से खड़े रहने की शिक्षा देते हैं मुझमें एक शक्ति का संचार करते हैं की मुझे हर विपदा से लड़ना है और अडिग खड़े रहकर हर विपत्ति का सामना करना है। मै तितलियों का पीछा करते करते पहुँच जाती हूँ चीड़ और देवदार के पेड़ों के बीच उनके पत्तों की सरसराहट एक अजीब सा सुकून देती है परिचय देती है साहस का कोई पथिक नहीं कोई मनुष्य नहीं फिर भी ये ऊँचे दुर्ग बन इन पहाड़ों को बचाए हुए हैं इसकी संस्कृति की धरोहर बने हुए हैं। प्रिय डायरी मै भागती चली जाती हूँ अपने सपने मे पीछा करती रंग बिरंगी तितलियों का उनके उन्मुक्त आचरण का जैसे वो मुझे मिलवा रहीं थी मेरी संस्कृति से मेरे बचपन से मेरी यादों से मेरे अपने ही अस्तित्व से। वो सिखा रहीं थी डर मत तू जहां जन्मी है वहाँ डर का कोई काम नहीं। हिम्मत ही यहाँ का गहना है ।।

ताक़त है ये ऊँचे शैल शिखर। और मै चलती जाती हूँ इन तितलियों के साथ जो मुझे कभी ना थकने की शिक्षा दे रहीं थी जैसे कह रहीं हो निरन्तर चलना ही जीवन है । जीवन पथ पर चलते रहेंगे तो काँटे, कंकड़ पत्थर, रोड़े, पहाड़, नदियाँ, सभी को पार करते हुए ही मंज़िल तक पहुँच पाएँगे इसलिए थोड़े से कष्ट से घबराना नहीं अपने कर्म पथ पर चलते रहना है। फिर इनका पीछा करते करते पहुँच जाती हूँ मै महादेव के मन्दिर पर जो सब गरल पी नीलकंठ कहलाए मानव कल्याण के लिए, सृष्टि के उद्घार के लिए विष को अपने कंठ मे धारण कर लिया था। उन शिव के मन्दिर मे खड़ी थी मै। बहुत छोटी सी मासूम मेरे सपने मे बचपन मे चली गई थी।

मैं। प्रिय डायरी सपनो की बात आज इतनी ही । कल आगे की बात सपनो की सौग़ात ले फिर आऊँगी । इस उम्मीद पर की कल की सुबह सुखद समाचार लाएगी इन पंक्तियों के साथ विराम लूँगी,

मेरे सपने खोजी सपने अपने सपने, सुख दुःख के साथी प्यारे सपने।


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