दबी हुई गूँज
दबी हुई गूँज
“आज़ बड़ी शान्ति पसरी है क्या कोई नहीं है घर में ?” कहते हुए मलय घर के अंदर प्रवेश करता है।
“अरे आ गये आप ! पता ही नहीं चला।” नीरा हाथ में पानी का गिलास लिये हुए आती है और फिर चुपचाप चाय बनाने में लग जाती है।
मलय को बड़ा ताज्जुब होता है यह सब देखकर ! वह पूछ ही लेता है, “आज़ नहीं पूछोगी कि पूरे दिन क्या किया मैंने ? रोज़ तो आते ही शुरू हो जाती हो फिर आज़ क्या हो गया ?”
नीरा फिर भी चुप ! मलय ने बोलना शुरु किया परंतु यह क्या ? कोई जवाब दूसरी तरफ़ से नहीं आ रहा ?
वह तो बस गूँगी गुड़िया की तरह गर्दन हिला रही थी। जब बात ख़त्म हुई तब भी वह कुछ नहीं बोली, मलय की कुछ समझ नहीं आ रहा था आख़िर आज़ कोई सवाल क्यों नहीं आ रहा ? चाय ख़त्म होते ही दोनों अपने-अपने काम में लग जाते हैं, घर में एकदम सन्नाटा पसरा था।
थोड़ी देर बाद उसके कानों में कविता की आवाज़ आती है जो एक काव्य चैनल पर चल रही थी और जब कवयित्री का नाम बोला जाता है “नीरा” तब बात उसकी समझ में आती है कि चुप रहने का माज़रा यह है !
“ओ हो ! तो ये बात है ! हमारी श्रीमती जी भी लिखने लगी हैं !” कहते हुए मलय नीरा की तरफ़ बढ़े। “चलो अच्छा हुआ ! वर्षों से चार दिवारी में दबी हुई गूँज को आज गुंज्जित होने का मौक़ा मिल ही गया।” फ़ेसबुक को धन्यवाद कहते हुए। अब हमारा दिमाग तो नहीं खायेगी हँसते हुए नीरा को गले से लगा लेता है नीरा भी मंद-मंद मुस्कराने लगती है जैसे कोई पुष्पित कली खिल रही हो।
