दास्ताँ-ए-कोरोना
दास्ताँ-ए-कोरोना


राजधानी की सड़को पर आम दिनों की तुलना में आज भीड़ थोड़ी कम है। दूर से देखने पर यह प्रतीत होता है जैसे जेठ की दोपहर में चींटीओं की एक लम्बी कतार अपने आशियाने की ओर लौट रही है।अमूमन ऐसी भीड़ रैलियों के दौरान निकलती है पर इसमें न तो कोई झंडे दिख रहे हैं,न ही कोई आज़ादी के नारे लगा रहा है।भीड़ में चल रहे लोगों के चेहरे पर भय,और आँखों में ये उत्साह है की अब अपना घर बस 600 मील दूर है।
राह में पुलिस भी इसी इंतज़ार में है की कब ये भीड़ उनके निकट आये और कब वे अपना शक्ति प्रदर्शन शुरू करें। यूँ तो सरकार ने घर से निकलने को मना किया है पर यह तो सोचना भूल गयी की फुटपाथ पर सोने वाले रिक्शाचालक बंधुओ के पास तो घर ही नहीं था। जो किराये के मकान में रहते थे उनके मकानमालिकों को उनके स्वास्थ्य की चिंता सता रही थी। उन्होंने एक सच्चे नागरिक की तरह फरमान जारी किया की अब इस छोटे से कमरे में तुम सात लोग नहीं रह सकते। प्रधानमंत्री जी ने सोशल डिस्टन्सिंग रखने का हुकुम दिया है,और गर्मी भी काफी बढ़ गयी है। अब तुम लोग भी अपने घर चले जाओ। सभी लोगों ने अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया और अपनी जिम्मेदारिओं के बोझ को अपने सर पर उठाकर अपने घर की तरफ पैदल मार्च पर चल दिए।पैदल रास्ता इसीलिए चुना गया चूँकि गाड़िया चल नहीं रही थी और पर्यावरण का भी तो ख्याल रखना था।प्रदूषण वैसे भी आजकल बोहोत बढ़ चुका था।एक नौजवान इस सोच में डूबा हुआ था की पिछले साल तो नेताजी ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर उसपर अपना अपार्टमेंट खड़ा किया था।
पैसे तो मिले नहीं थे, हो सकता है मुझे देख एक फ्लैट ही दान में दे दें। तीसरी मंज़िल पर रह लूँगा ताकि बाढ़ आने पर इस बार शहर की ओर नहीं जाना पड़े।अक्सर ऐसी भीड़ की ओर आकर्षित होने वाले कैमरा वाले साहब भी नदारद हैं। पूछने पर पता चला की राष्ट्रहित को मद्दे नज़र रखते हुए उन्होंने घर से ही आवाम को सड़को का हाल बताने की प्रतिज्ञा की है, मानों जैसे की वो महाभारत के संजय हो गए हैं और बिना कुरुक्षेत्र में प्रवेश किये ही युद्ध की घटनाओं का सीधा प्रसारण कर रहे थे। एक बूढ़े बाबा हसकर कहने लगे “कोरोन्वा मारे से पहिले जात,धरम
और औकात नहीं न पूछता है,सौ प्रतिसत सेकुलर है बाबू ‘’। मैंने पुछा "बाबा आपका घर- बार कहा हैं"? उन्होंने कहा "
बाबू पटना शहर से सटे दियारा में रहते थे कभी "। मैंने संदेहपूर्वक पूछा "रहते थे ! मतलब "? उन्होंने उत्तर दिया "बाबू मंत्री जी चुनाव में वचन दिए थे की हमर घरे तक पानी पहुंचा देंगे,तो पिछला साल स्वयं गंगा मइया को सकुशल घर तक पहुचाये थे,घर थोड़ा नीचे था तो गंगा मइया छत को भी अपना जल से शुद्ध करने का कोसिस कर रही थीं,हम ई तो भूल ही गए थे की गंगा मइया मोक्ष भी दिलाती हैं,घर को तो मोक्ष पिछले साल मिल हीं गया था,
अब ज़मीन बचा है तो वहां जाकर कुछ सोचेंगे "। कुछ दूर पर एक बस खड़ी थी,यूँ तो ठचा-ठच भरी हुई थी पर लॉक डाउन में खिड़की पर लटकने का ऑप्शन अभी भी अन लॉक्ड था। मैंने बस वाले से पुछा "आपको पुलिस नहीं पकड़ती"? बस वाले ने बड़ी रौब से जवाब दिया "हम आपको ऐसा वैसा आदमी दिखते हैं का ? आप हमको जानते नहीं हैं !"।मैंने इस बार थोड़े नीचे स्वर में कहा "माफ़ी चाहता हूँ सरकार गलती हो गयी पर आप हैं कौन ?"
बस वाले ने अपनी मूंछो को ताव देते हुए कहा "हमारे दादाजी के दादाजी के ससुर जी अकबर के ज़माने में दिल्ली की सड़को को बनाने का काम करते थे,थे मज़दूर लेकिन बहुत बड़के मास्टर माइंड,हमको दिल्ली का एक एक गली का नक्शा में लोकेशन पता है,कौन गली से गाडी निकाल के ले जाएंगे किसी को पता भी नहीं चलेगा "। मैंने कहा " वो तो ठीक है पर सोशल डिस्टन्सिंग का क्या ?"। बस वाले ने कहा "सब व्यवस्था लेके चलते हैं, आज सुबह ही माखनदेव बाबा से कोरोना सुरक्षा कवच लेकर आये हैं किसी को कुछ नहीं होगा "।
इतने में ही एक पुलिस वाले की नज़र भीड़ पे पड़ गई। समय न गवाते हुए उसने अपने साथियों को आवाज़ दी। इधर भीड़ में अफरा तफरी मच गयी बस वाला अपनी बस को छोड़कर तुरंत भाग निकला। पुलिस ने फिर सभी लोगों की सामान्य रूप से खातिरदारी की और वहां से चले गए। लोगों ने अपने सामान को वापस अपने सर पे उठाया और इस उम्मीद में फिर से घर की तरफ निकल पड़े की अब तो घर बस 600 मील हीं दूर है।