दादाजी का पुस्तकालय
दादाजी का पुस्तकालय
मेरे दादा स्कूल में टीचर थे सब उन्हें मास्टर्स साहब के नाम से पुकारते हैं, अब वर्तमान में वे सेवा निवृत्त है। अब हर रविवार को गार्डन जाते है जाते समय उनके कंधे पर एक किताबों से भरा थैला होता है,गार्डन में खेलते बच्चे उन्हें किताबों वाले दादा के नाम से पुकारते हैं
सभी बच्चे उनका आशीर्वाद लेते हुए बेंच पर बैठ जाते हैं मास्टर्स साहब भी प्यार से बच्चों के सिर पर हाथ फ़ेर दिल से आशीर्वाद देते हैं
थैले से किताबों का बंडल निकालते जिसमें हर उम्र के बच्चों के हिसाब से प्रेरक कहानियां, कविता, महापुरुषों की जीवनी पर आधारित किताबे होती है। उन किताबों पर सलीके से ज़िल्द भी रहती है, पहले सभी से पिछले सप्ताह दी हुई किताबे लेते हैं फिर उनमे से जिस बच्चे ने जो किताब नहीं पड़ी होती है उसे देते हैं। जिस बच्चे ने सभी किताब पडी होती उसे नयी किताब देते। फिर अपने रजिस्टर में उनके और किताबों के दिनाँक समेत नाम लिख लेते हैं। इस तरह से दादा बच्चों के लिए चलता फिरता पुस्तकालय है।
पेंशन का बड़ा हिस्सा वे इस पर खर्च करते। कुछ लोगों ने गार्डन में उनसे कौतूहल से पूछा? आप इन्हें किताबे क्यों बाँटी? मास्टर्स साहब बोले आज सोशल मीडिया और मोबाइल के इस युग ने बच्चों को किताबों से दूर कर दिया है। वो मोबाइल और वीडियो गेम में लगे रहते हैं
इससे उनका व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो रहा है। पढ़ाई में रुचि और एकाग्रता का अभाव हो रहा है। यह देखकर मुझे दुःख होता है। इसलिए बच्चों को किताबों में रुचि जगाने और मोबाइल से दूर रखने के लिए ये तरीका निकाला है।
मुझे खुशी है कि मेरे पुस्तकालय में सदस्य बढ़ रहे हैं। मैंने ये अनुभव किया है जो बच्चे पहले गार्डन में शरारत करते थे, अब नहीं करते। वे भविष्य के लिए जागरूक हो रहे है। लोग मास्टर्स साहब की बातों से प्रभावित होकर बोले हम भी अपने बच्चों के लिए पुस्तके लाएंगे और इस नेक काम में आर्थिक मदद करेगे। कुछ वर्षो बाद उस गार्डन में सरकारी और जनसहयोग से एक बाल-,पुस्तकालय बन गया। दादाजी की ये पहल रंग लाई। इससे दादाजी का सपना पूरा हुआ, और बच्चे भी खुश हुए और उन्हें जीवन में एक प्रेरणा मिली कि किताबे एक अच्छी दोस्त होती है।
