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Jyoti Deshmukh

Inspirational

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Jyoti Deshmukh

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# जीवनी- स्वामी विवेकानंद

# जीवनी- स्वामी विवेकानंद

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हमारे देश में विश्व विभूति की अटूट श्रंखला रही है। समय समय पर जन्म लेकर उन्होंने भारत भूमि और सारी मानवता को विभूषित और धन्य किया है। आधुनिक समय के सन्दर्भ में हम राजा राममोहन राय, महात्मा गाँधी, सुभाष चंद्र बोस, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि कुछ नाम गिना सकते है। स्वामी  विवेकानंद इस श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी है। उन्होने अपने जीवन और अनुकरणीय महान कार्यो से भारत को गौरव प्रदान किया। उन्होंने धार्मिक और सामाजिक क्रांति को आगे बढ़ाया   तथा नवजागरण को बल स्फूर्ति प्रदान की। 

भारत की मिट्टी ही मेरा स्वर्ग है और हर भारत वासी मेरा बंधु है ।ये शब्द है भारत भूमि के गौरव स्वामी विवेकानंद के। मात्र एक वाक्यांश- मेरे अमरीकी भाइयों और बहनों! कहकर अमरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को वशीभूत कर लेने वाले स्वामी विवेकानंद एक अनुपम वक्ता, वेदों के मर्मज्ञ ,परम योगी तथा सच्चे देशभक्त थे।   

जीवन दर्शन- इस महान विभूति का जन्म 12 जनवरी 1883 को कलकत्ता के एक संपन्न और आधुनिक परिवार में हुआ। इनके बाल्यकाल का नाम नरेंद्र दत्त था। इनके पिता विश्वनाथ दत्त एक विद्वान, संगीत प्रेमी, और पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के अच्छे ज्ञाता थे। नरेंद्र की माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक और सनातन संस्कारों की गुणवान तथा प्रतिभाशाली महिला थी। माता-पिता के ज्ञान, स्वभाव-संस्कार और गुणों का बालक नरेंद्र पर बुहत प्रभाव पड़ा।  

संगीत की प्रारम्भिक प्रेरणा उन्हें अपने पिता से ही मिली थी। बालक नरेंद्र में माता-पिता के गुण सहज रूप से आए थे तथा ध्यानयोग, प्रबल तार्किक शक्ति, कुशाग्र बुद्धी आदि विशेषताएं उनके स्वभाव में थी। ये सभी संस्कार

 बालक नरेंद्र को विरासत में मिले और आगे चलकर वे महान व्यक्ति बने और विवेकानंद के नाम से विख्यात हुऐ

शिक्षा- घर की शिक्षा के बाद विद्यालय की शिक्षा आरंभ हुई। दो वर्ष तक रायपुर में पिता के समीप रहने से बालक नरेंद्र ने स्वास्थ्य लाभ भी किया और तार्किक शक्ति का विकास हुआ। 

मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट से मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद असेम्बली इंस्टिट्यूट से नरेंद्र एफ। A aur B।A की परीक्षा उत्तीर्ण की। 

इस अध्यन काल में नरेंद्र ने शारीरिक, मानसिक शक्ति, तार्किक बुद्धी चिन्तन, ध्यान और उपासना, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन ब्रह्म समाज और परमहंस से जुड़कर उनका अध्ययन विकास की और अग्रसर हुआ।

रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात और रामकृष्ण मिशन की स्थापना- रामकृष्ण गंगातट स्थित काली के दक्षिण वर मंदिर में निवास करते थे। उनकी गहन साधना, तपस्या और उपलब्धि की चर्चा कलकत्ता में सर्वत्र होती थी। एक दिन वे रामकृष्ण से मिलने मंदिर गए और इस महायोग के दर्शन किए। धीरे धीरे उनके संपर्क में आने से उनके संदेह, तार्किक और जिज्ञासाएं शांत होती चली गई और उन्होंने अपना गुरू स्वीकार कर लिया। रामकृष्ण ने अपने ज्ञान के आधार पर तुरन्त जान लिया की नरेंद्र असाधारण प्रतिभा संपन्न एक महान व्यक्ति थे और उनका प्रथ्वी पर अवतरण एक विशेष आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ था। 1881 में उन्होंने संसार का त्याग कर सन्यास ले लिया। 

सन 1884 में पिता के देहात से नरेंद्र के परिवार पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन गुरु कृपा और ईश्वर के आशीर्वाद से नरेंद्र विचलित नहीं हुऐ और अपने साधना पथ पर निरन्तर बढ़ते रहे और ईश्वर दर्शन का लाभ प्राप्त किया। 16 अगस्त 1886 को परमहंस रामकृष्ण का देहांत हो गया। विवेकानंद उनके और सन्यासी साथियो के लिए बड़ा आघात था लेकिन उन्होंने सम्भाल लिया और अपने गुरु से मार्गदर्शन मिलता रहा। 

उन्होंने अपने सन्यासी साथियों और दूसरे भक्तजनों के साथ मिलकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस संस्थान ने अब तक अनेक प्रशंसनीय और अभूत पूर्व काम देशों- विदेशों में संपन्न किए हैं। विवेकानंद का अंग्रेजी और बांग्ला भाषाओं पर आसाधारण अधिकार था। संस्कृत के विद्वान थे। ऊपर से उन्हें गुरू का आशिर्वाद प्राप्त था। हिन्दी वे धाराप्रवाह बोल सकते थे। नवजागरण की इस नई लहर से प्रभावित-प्रेरित होकर हज़ारों स्त्री-पुरूष विवेकानंद के शिष्य, अनुयायी और प्रसंशा के पात्र बन गए।

प्रसंग- स्वामी विवेकानंद देश और समाज की हर समस्या के विषय में अपने विचार रखते थे। वे भारत में प्रचलित शिक्षा-प्रणाली से अधिक संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था की हमारे बच्चों को समुचित और सकारात्मक शिक्षा नहीं मिल रही। 

ऐसे ही एक बार वे अपनी एक विदेशी  

शिष्या का विद्यालय देखने गए, स्वामी जी के वहां पहुचने पर उन्हें विद्यालय में घुमाया गया। कक्षा का सुनियोजित, सुविधाए और आवश्यक वस्तु का संग्रह देखकर स्वामी जी प्रसन्न हुए। बच्चों के खेलने, खाने और शौचालय आदि की सुविधाएं देखकर स्वामी जी के हृदय में प्रसन्नता भी हुई, परंतु शोक का भाव भी आया, क्योंकि उन्हें अपने देश के अभावग्रस्त बच्चो की याद आई। भारतीय बच्चे तो कक्षा के आभाव में:पेड़ों के नीचे खुले में:बिना श्याम पत्र के और टाट के पड़ते हैं। 

जनसाधारण की गरीबी भी स्वामी जी को अनेक सामाजिक अनाथ की जड़ लगती थी। वे चाहते थे कि गरीबो को सबके समान अधिकार मिले और उनमे यह भावना उत्पन्न हो कि वे भी इस समाज का अंग है, वे उन्नति करे क्योंकि जब गरीब उन्नति करे, तब ही देश की उन्नति होगी। स्वामी जी नारियों के उत्थान के साथ-साथ यह भी चाहते थे कि उनकी भूमिका में कुछ परिवर्तन आये। उन्हें अपने देश की स्त्रियों पर गर्व था। उनकी नजर में भारतीय नारियां ज्ञान, संघर्षमय, कार्यक्षमता आदि में किसी से पीछे नहीं हैं फिर भी पाश्चात्य देशों में नारी आधिक कार्यशील है, स्वतंत्र है, समर्थ है। उनके अनुसार यदि नारी की दशा में सुधार नहीं होता, तो किसी भी राष्ट्र का कल्याण ही सम्भव नहीं है। 

स्वामी जी का कहना था कि हर व्यक्ति को आचरण, गुण और बुद्धी-कौशल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। हर व्यक्ति के अंदर अच्छाइयों को उबरना, बुराइयों का नाश करे और अपने व्यवहार को निखारने और समाज के लिए एक उत्तम उदहारण बने। 

विवेकानंद नाम धारण - स्वामी जी ने अनेक बार विदेश यात्रा की, जिनका मुख्य उद्देश्य हमेशा वेदांत - दर्शन और धर्म का संदेश संसार के हर कोने तक पहुंचना था। स्वामी जी ने भारत के भी कोने कोने में जाकर भारत की आत्मा को समझा। इन्हीं यात्रा के बीच उनकी मुलाकात खेजड़ी नरेश से हुई, जिनके प्रस्ताव पर स्वामी जी ने विवेकानंद नाम धारण किया। खेजड़ी के राजा के  आग्रह पर विवेकानंद अमरिका में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में जाने को तैयार हो गए। 11 सितंबर, 1893 को इस धर्म संसद का सत्र प्रारम्भ हुआ।  

शिकागो यात्रा- शिकागो शहर में गेरुए वस्त्र धारी तेजस्वी ग़ौर वर्ण व्यक्ती को देखकर लोगों के ध्यान को आकर्षित करते। शिकागो धर्म सभा में भाग लेने से पूर्व उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लेकिन वे विचलित नहीं हुए। 11 सितंबर 1893 का दिन विश्व के धार्मिक इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है जब गेरू धारी वस्त्र से विभूषित गौर वर्ण सन्यासी ने प्यार और अपनत्व की ऊर्जा मायी भाषा में अमेरिका के लोगों को संबोधित किया था- अमरीका निवासी भाइयो और बहनों और कक्ष करताल ध्वनि से गूंज उठा था। इसके बाद सम्मेलन मानो विवेकानंद के ही रंग में रंग गया। हिन्दू धर्म के अनेक पक्षों को जब उन्होंने सम्मुख रखा तो समस्त पत्र- पत्रिकाओं ने अपूर्व स्वागत इस दिव्य स्वामी का किया। विवेकानंद के ओजस्वी, ज्ञान पूर्ण और मौलिक विचारों को सुनकर श्रोतागण अभीभूत हो गए। उन्होंने बार बार तालियों की गड़गड़ाहट से स्वामी जी के भाषण का स्वागत किया। उनके प्रवचनों की सारे अमरिका में धूम मच गई और बडी संख्या में लोग विवेकानंद के शिष्य और अनुयायी बनने लगे। इसके बाद स्वामी जी ने अमरिका के अलग अलग शहर में भाषण दिए। इंग्लैंड आने पर यहां उनके प्रवचन ने विद्वान, धर्म प्रेमियों को लुभाया। जगत विख्यात mixmular उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए। जर्मनी के अलावा और देशों में वेदान्त प्रचार के बाद वे भारत लौटे। चार वर्ष बाद अपनी मातृभूमि में वापस आने पर उनका अभूत पूर्व, और प्यार भरा स्वागत किया गया। संपूर्ण देश में विवेकानंद का नाम गूंज उठा।।

स्वामी विवेकानंद के विचार- स्वामी विवेकानंद के विचार समस्त भारतीयों के लिए एक प्रकाश- पुंज है। उन्होने अपने विचारों को अपनी पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है। उनकी कुछ पुस्तकों के नाम हैं- कर्मयोग, राजयोग, वेदांत, दर्शन, भक्ति योग, पूर्व और पश्चिम आदि। वैसे तो विवेकानंद जी का प्रत्येक शब्द ही एक गुरु मंत्र है बच्चों और युवाओं के लिए उनकी सूक्ति है- "सम्भव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है, असम्भव से आगे निकल जाना "।

स्वामी जी का देहांत- मात्र 39 वर्ष की आयु में इस महान आत्मा ने 4 जुलाई, 1902 में ध्यानावस्था में ही ब्रह्म समाधि ली। उनके निधन ने सारे देश को शोक- संबध्द कर दिया। उनकी पावन स्मृति में desh- विदेशों में अनेक स्मारक स्थापित किए गए। उदहारण के लिए कन्या कुमारी के सागर पर विवेकानंद ने आकर ध्यान साधना की थी और समाधि में लीन रहे थे। उनके विचार थे।

उठो ! जागो ! और तब तक ना रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।


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