द लाॅकडाउन डायरीस
द लाॅकडाउन डायरीस
प्रिय डायरी,
पिछले कुछ महीनों से हमने अपने साथ ही कितना समय बिताया है! कभी-कभी बरामदे में, अपने पसंदीदा स्थान पर बैठकर, मैं आसमान की ओर देखती रहती हूँ। हवा में झूमते पत्ते मानो समुद्र में उठती लहरों की तरह; मैं, अपने ही असंख्य ख्यालों में खोई हुई। उन्हीं ख्यालों और स्मृतियों के मिले-जुले रंगों को शायद थोड़ा और समझती हुई। कुछ दिनों से स्कूल की बड़ी याद आ रही है। लगता है कि कक्षाओं में बेंच और कुर्सियाँ अकेले और उदास महसूस कर रहे हैं; और वे गलियारे पूरे सुनसान।
टिफ़िन - टाइम का हँगामा तो अब व्हाट्सैप ग्रुप्स में ही जारी है; "डिजिटल" पढ़ाई और हँसी-मजाक। ये सोच के मन रो उठता
है कि विद्यार्थी जीवन के अब बस दो साल बाकी है। शायद पूरे दो भी नहीं।
पढ़ाने के समय कक्षाओं में वो गपशप और खिसियिना, पिकनिक बस में हमारे बेसुरीले अंताक्षरी के गाने, शिक्षक के ना आने पर वह उथल-पुथल; बस कानों में गूंजते रहते हैं। मुझे हमेशा से ही इन स्मृतियों के महत्व का ज्ञान था। पर इस महत्व का एहसास शायद पिछले कुछ महीनों में ही पहली बार हुआ है। सोचती हूँ, कुछ सालों में ही दुनिया कितनी बदलने वाली है, और साथ ही, हमारी अपनी क्षणभंगुर ज़िंदगी।
"क्लास शुरु होगा ना पाँच मिनट में?" फिर माँ की आवाज़ आती है।
अगली बार तक,
अन्वेषा।