Sajida Akram

Drama Tragedy

3.8  

Sajida Akram

Drama Tragedy

छल

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शाम के वक़्त हम सब गार्डन में कॉलोनी की लेडीज़ इकट्ठा हो कर इधर-उधर की बात-चीत कर रहे थे। शालिनी मेरी फ्रेंड अपनी काम वाली बाई की बातें सुनाने लगी, हम सबके मुँह से एक ही वाक्य निकला,

"इन काम वाली बाई की एक-सी 'रामकथा' होती है। उनके पति शराब पीते हैं,और काम-धंधा करते नहीं, पत्नियां बेचारी बच्चों को पालने के लिए दो जून की रोटी के लिए घर-घर काम कर के कुछ कमाती हैं, वो भी उनके पति मार-पीट कर छुड़ा लेते हैं, 'बेचारी' के पैसे...।"

 खैर हम सब अपने-अपने घर आ गए पर मेरे दिमाग़ में मेरी बाई शकुन के साथ जो हादसा हुआ, वो रह-रह कर परेशान करने लगा|

 मैं उसकी बातों को शब्दों में पिरोने बैठ गई काग़ज़ क़लम लेकर।

  शकुन करीब 8-9 सालों से काम कर रही है, वो अक्सर उसके घर के हालात सुनाती रहती है। उसकी 4 बेटियां हैं, एक बेटा है, पति के काम न करने की वजह से बच्चों की पढ़ाई छूट गई है, बड़ी बेटी को जैसे-तैसे 12वीं तक की पढ़ाई करवाई, वो अक्सर अपनी बड़ी बेटी की समझदारी की तारीफ करती थी।

 मैंने उस लड़की को देखा तो नहीं था, शकुन के विश्वास को देखकर लगता था बहुत समझदार होगी| माँ का दर्द समझती है शायद...|

  शकुन ने एक दिन खुश होकर बताया, "आंटी हमने बड़ी बेटी की सगाई कर दी है, 3 महीने बाद शादी का मुहूर्त है|" मैंने बधाई दी| वो बेचारी कर्ज ले-लेकर बेटी की शादी की तैयारियों में लग गई, रोज़ मुझे हर तैयारी के बारे में सुनाती, कहाँ से ब्याज दरों पर कर्ज लिया है। जबकि उसकी बेटी को भी माँ की हालत मालूम थी, उसकी बेटी "रिया" भी एक दुकान पर सेल्स गर्ल का काम करती थी।

मैंने एक दो बार शकुन को टटोला के तुमने, रिया से पूछ लिया है, लड़का पसंद है उसे? शकुन गर्व से कहती है, "हाँ आंटी, उस लड़के से मोबाईल फोन पर बात करती है, वो।"

 शकुन आठ-दस दिन की छुट्टी लेकर चली गई...

 छुट्टी के बाद जब शकुन काम पर आई तो मैंने पूछा, "रिया की शादी ठीक रही, सब अच्छे से हो गया न|"

  मगर मैंने देखा वो बड़ी बदहवास थी, मुझे लगा ग़रीब है, कहीं कोई परेशानी होगी ....कुछ मांग कर ली होगी लड़के वालों ने..ख़ैर।

 कुछ दिन बाद एकांत मिला तो शकुन मुझे देखकर फफककर रो पड़ी| मैंने कहा, "क्या हुआ? मैं देख रही हूं,जबसे तू आई है बड़ी बदहवास सी है," उसने जो सुनाया उसे सुनकर मैं भी जड हो गई।

  उसने बताया, "आंटी रिया तो शादी के दो दिन पहले ही घर से भाग गई, हमें तो ये भी नहीं मालूम कहाँ गई, किसके साथ गई, घर में मेहमान आ गए थे, शकुन रो-रोकर बस यही कह रही थी, उसने हमें कहीं मुहँ दिखाने के लायक़ नहीं छोड़ा, साथ में तीनों बहनों का भविष्य भी ख़राब कर गई, मेरे साथ इतना बड़ा छल किया, मुझे इतना कर्जे में डुबा गई, अगर उसे शादी नहीं करना थी तो दो-तीन महीने से हम उससे पूछ-पूछ कर सामान ख़रीद रहे थे, कार्ड छपवाये, एक गार्डन लिया था, टेंट हाउस शामियाना लगाने का तय, खाना बनाने वाले को एडवांस दे दिया था, एक बार तो मुझसे कहती, ये शादी नहीं करुंगी| मैंने उसे बड़े नाज़ो से पाला था, बड़ा गर्व था मुझे उस पर, मुझे तो उसकी पढ़ाई पर गर्व था, पर देखो न आंटी वो माँ से धोखा कर गई| मेरे विश्वास को तार-तार गई...।" 

आज की जनरेशन में ये सब क्यों हो रहा है सोचने वाली बात है। क्या हमारे संस्कार इतने कमज़ोर हो गए हैं या फिर इमोशंस नहीं रहे, जो लड़कियाँ इस तरह के क़दम उठाती हैं? वो एक पल को भी माँ-बाप की इज़्ज़त का ख़्याल नहीं करती।

 आज शकुन बता रही थी, "मैं काम पर आ रही थी तो मोहल्ले की दो-तीन औरतें खड़ी थीं। उन्होंने मुझे रोक कर पूछा, हमदर्दी जता कर, "क्यों, तुम्हारी लड़की की शादी थी न?" जबकि उन लोगों को मालूम था फिर भी...|"  

लोग झूठी हमदर्दी जता कर उस ग़रीब का मज़ाक उड़ाने में ज़रा भी देर नहीं करते| मैंने समझाया, "तुम बात ही मत करा करो|"



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