छिपा प्यार
छिपा प्यार
भर तितली सी मचलती रहती थी शगु। हमेशा अपनी मनमानी करती। बेपरवाह सी, माँ-बाप की इकलौती संतान थी, इस बात का भरपूर फायदा उठाया था उसने। आज भी उठा रही थी तभी तो अपनी पसंद के लड़के विश्वास से शादी कर रही थी।
वो तो कोर्ट मैरिज करना चाहती थी, बडी़ मुश्किल से राजी हुई थी सनातनी शादी के लिए। आखिर माँ-बाप के भी कुछ अरमान थे इस शादी को लेकर।
फेरे शुरू हो चुके थे, दिलीप ने शगु के नजदीक हल्की हिचकियाँ महसूस की, कोई और लड़की होती तो दिलीप को लगता कि लड़की को मायके से बिछुड़ने का दर्द है इसे पर शगु...ये तो बिंदास है पर ये क्या हर फेरे के साथ हिचकियों की आवाज़ तेज होती जा रही थी। सातवें फेरे तक तेज हिचकियों के साथ रोना भी शुरू हो चुका था। सब हैरान थे शगु के इस व्यवहार से सिवाय सिमरन के।
कल रात अचानक फोन आया था शगु का। कह रही थी "सब कुछ मनपसंद से हो रहा है फिर भी कुछ अजीब है.... मन खुश नहीं हो पा रहा है.... पता नहीं क्यों मन उदास है। और जब सिमरन ने कहा था कि ये मायका छूटने की उदासी है तो कैसे बात को हवा में उड़ा दिया था। तब कैसे सिमरन ने कहा था", देखना बच्चू अभी तो तू दहाड़े मार कर भी रोएगी। कवियत्री का ह्रदय है मेरा, तेरे जैसी बिंदास को जानती हूँ तुम जैसौं को खुद ही अपनी भावनाओं का पता नहीं चलता और अचानक ही भावनाएं तुम जैसी पर हावी हो जाती हैं। देख लेना कल...।" पूरी बात सुनने से पहले ही फोन कट गया था।
विदाई के समय खूब रोई थी शगु माँ-बाप के गले लगकर। इतने बरसों का छिपा प्यार आज आँसुओं के रुप में छलक रहा था।
