चालीस पार की औरतें

चालीस पार की औरतें

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बेबाक़ी से रच रही हैं इतिहास

चालीस पार की औरतें

घर और बाज़ारों में

खेत खलिहानों से

संसद और सिनेमा तक

उनका होना एक गतिशील दृश्य सा

झकझोरे डाल रहा है

उनकी पकड़ और मज़बूत होती जा रही है।

शेयर मार्केट के तेज़ी से बदलते

परिदृश्य पर

पैनी -दृष्टि से वे ले रही हैं ,जायज़ा

वक़्त के बदलते मिज़ाज और

खुले परिवेश के दायरे का

उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है ,अब

घर-परिवार के साथ अपनी आकांक्षाऐं भी

बुलन्द हौसलों से वे बदलने लगी हैं

प्रस्तर चट्टान में देह की कमनीयता

चालीस पार की औरतें अब

स्वर ऊँचा कर नकार रही हैं

बीड़ी का धुआँ पसीने की बदबू

अनैच्छिक सम्बन्ध

स्पष्ट तौर पे कराने लगी हैं दर्ज़

अपना विरोध

अब नहीं करती स्नान मजबूरन पोखरों में

दहाड़ के नकारती हैं थोपी गई कुरीतियाँ

गढ़ने चल पड़ी हैं भोगा हुआ यथार्थ

समन्दर को बूँदों में समेट देने लगी हैं

किताबों की शक़्ल और

सूर्य का तेज़ एक किरण में समेट

समोने लगी वज़ूद में अपने

अब नहीं हैं निस्तेज चालीस पार की औरतेंं

जीना सीखने लगी हैं यक़ीनन

चालीस पार की औरतें

 


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