स्त्री का एक दिन

स्त्री का एक दिन

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आदिम युग से इक्कीसवीं सदी तक

स्त्री का एक भी दिन

नहींं जिया,अतीत और वर्तमान ने

एक ही दिन भारी था

बदल जाता इतिहास

किसी वाद,किसी विमर्श

किसी पड़ाव पर

इतना ठहरता क्यों विश्व

सदियों से कल्पों की यात्रा करता

अनेक ग्रंथों से बहसों तक

कोरी लफ़्फ़ाज़ी ही रहा

सरकारी योजनाओं सा

कागजों में सिमटा

गिनी चुनी,ख़ुद-मुख़्तार स्त्रियों के

महिमामण्डन से अलंकृत

स्वान्तः सुखाय सा

मनाया जाता रहा

स्त्री का एक दिन

 


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