बुढ़ापे का प्यार
बुढ़ापे का प्यार
वो सामने थी मेरे और मैं बस उसी सोच में था। क्या इस उमर में वो मुझे अपनाएगी? क्या ये सही होगा?
बात उन दिनों की है जब मैं सुबह पार्क में घूमने जाता था। और एक दिन मेरी नजर उस पर पड गई मानो दुनिया में उस जैसा दयालु मैंने नहीं देखा था।
वो अनाथ बच्चों को भोजन और कंबल बांट रही थी। कई दिनों तक मैं उसे सिर्फ देखता रहा। वो रोज सुबह आके यही काम करती थी।
उसकी ये आदत जैसे मुझे अपनी तरफ़ खींच रही थी। फिर मैंने हिम्मत कर के बात करने की सोची। उसकी आंखें बड़ी - बड़ी और नीली थी। वो लगभग पचास की होगी पर फिर भी सुंदर थी।
जब बातें शुरू हुई तो पता चला की उसके पति कई साल पहले गुजर चुके थे। उसकी हर एक बात मुझे अच्छी लगने लगी। वो एक समाज सेविका भी थी। इस उमर में किसी से लगाव होना मेरे लिए आम बात नहीं थी। वो कुछ खास बन चुकी थी मेरी जिंदगी में। शायद मेरा प्यार ही था एक तरफा।
उसको कुछ कहने की हिम्मत ना हुई बस एक डर था कि कहीं वो दोस्ती भी ना खो दूं। उसके चेहरे से मुस्कान गायब न हो जाए। इसलिए अपने बुढ़ापे के प्यार को मैंने दोस्ती के प्यार में रखने में ही भलाई समझी। उस से रोज मिलने और बात करने के लिए मुझे एक तरफा प्यार ही कबूल था।