Kanchan Pandey

Drama

5.0  

Kanchan Pandey

Drama

बसंत के राग

बसंत के राग

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बसंत ऋतु के आगमन से हीं चारों ओर हरियाली छा गई हरे -भरे पेड़ पौधे और उसको सुशोभित कर रही रंग बिरंगे फूलों से लदी डालियाँ मन को अपने ओर आकर्षित कर रही है। ना हीं गर्मी है और ना हीं सर्दी, देखो यह मौसम आम के पेड़ों को मंजरों से सजाकर आह मातृत्व का अहसास दिला रहा है।सरसों के पीले –पीले फूलों को सहलाते हुए मंजरी कब इस मौसम की सुन्दरता में इतना खो गई कि उसे समय का अहसास भी नहीं रहा और अपने हीं धुन में बोलती जा रही थी।

मंजरी–मंजरी की आवाज ने उसे झकझोर दिया और सामने अपने पति को देखकर वह चुपचाप मुँह निहारती रही और अचानक से बोल पड़ी क्या हुआ, मैं तब से बोल रही हूँ और एक आप हैं कि हाँ और नहीं में भी उत्तर नहीं दे रहे हैं। बसंत –अरे पगली क्या उत्तर दूँ हमलोगों के लिए क्या सर्दी क्या गर्मी और क्या देखूँ इस मौसम की सुन्दरता। हम गरीबों के जीवन में बस एक हीं मौसम होता है गरीबी और इस गरीबी से पैदा हुई लाचारी, अब चलो भी। मंजरी – तुम भी ना एक पल के लिए भी खुश नहीं होने देते हो। बसंत- अच्छा अच्छा माफ करो, आज क्या खिला रही हो बसंत ने बात बदलने की कोशिश की और बात बन भी गई। मंजरी –क्या खिलाऊँगी बात अभी चल हीं रही थी कि तभी ठाकुर का मुंशी पहुंचा ए बसंता ए बसंता तुझे मालिक ने याद किया है मिलने बुलाया है।

बसंता –ठीक है मुंशी जी कल आ जाऊंगा, आज दिन भर खेत पर हूँ। मुंशी जी-नहीं नहीं साथ लाने के लिए कहा है मेरे साथ चल। बसंत – सुबह से एक निवाला हलक से नीचे नहीं गया है। मुंशी जी – नहीं नहीं अभी चल। मंजरी –कैसे हैं मुंशी जी, क्या गरीब इंसान नहीं होता है ? जानवर भी खेत से भर पेट खाना खाकर घर जाते हैं लेकिन हम गरीब तो उस जानवर से गए गुजरे हैं जो दिन भर खेत पर भूखे प्यासे काम करते हैं फिर शाम में भी चैन नहीं ओह हे भगवान क्या जानवर से गई गुजरी जीवन दिए हो। मुंशी जी –ए बसंता तेरी मेहरारू की तो बोली फुट गई है एक तो मालिक के मदद से लगाए सरसों के पौधों को मचोड़ कर घर ले जा रही कभी हुआ कि मालकिन को भी साग तोड़कर दे आएँ आज जाकर सारी बातें मालिक को बताता हूँ। सारी फसल बर्बाद कर दी है। मंजरी –सुनो मुंशी।

चुप चुप मंजरी बीच में बसंत बात काटते हुए, माफ कर दीजिए मुंशी जी पगली है कुछ भी बोलती हैं आप तो राजा हैं फिर मंजरी को आँख दिखाते हुए जा घर जा मैंं आ रहा हूँ।

 बंसत-प्रणाम ठाकुर जी कैसे हैं ?ठाकुर –मुझे क्या होगा लेकिन तेरा रंग –ढंग कुछ ठीक नहीं लगता है। जब तक बीज के पैसे नहीं लिए थे तब तक तो आप हीं भगवान हैं के जय जयकार कर रहे थे। बीच में एकबार मिलने भी नहीं आए। बसंत-नहीं ठाकुर सर्दी ने ऐसी मारी कि आज पहला दिन खटिया से उठकर खेत तक गया गाँव की बकरियों ने तो फसल का सत्यानाश कर दिया है।

मालिक –शुरु हो गया बहाना देखो फसल हो या नुकसान हो मुझे समय पर अपना सूद के साथ पूरे रूपये चाहिए और पिछले साल का भी बांकी है। बसंत –जी ठाकुर ,रहा बहाना दिखाने का तो क्यों बेकार का ड्रामा रचेंगे और आपसे कौन सी बात छिपी है मेरे परदादा जी कभी इस गाँव के जमींदार थे लेकिन ....ठाकुर - बंद कर अपनी राम कहानी तेरा भाग्य और तेरे पूर्वजों का कर्म जब पूंजी नहीं रहे तो दिखावा करना नहीं चाहिए।

ठकुराइन –बसंता ओ बसंता। बसंत- जी ठकुराइन।  ठकुराइन- सुनती हूँ तेरी मेहरारू (पत्नी )आजकल बहुत बोलती है बड़े –छोटे का थोड़ा भी लिहाज नहीं है। बसंत-नहीं ठकुराइन, पगली है बेचारी एक तो पेट खाली दूसरी कोख खाली। सब मेरा दोष है इस गरीबी की मार खाने के लिए एक और छोटा बसंता नहीं लाया। बड़ी कठिन है यह जीवन ठकुराइन। ठकुराइन –जा जा बसंता खुद दुःख बुनता है खुद रोता है।

मंजरी –कौन है वहाँ ?बसंत –मैंं हूँ बसंता कितने गर्व से बाप दादा ने नाम रखी थी बसंत सभी मौसमों का राजा, ऋतुराज और समय की थपेड़ों ने कब बसंत को बसंता बना दिया पता हीं नहीं चला। दादा जी के दरवाजे पर क्या हाथी घोड़े और तो और दूध की नदियाँ बहती थी अभी तो चुल्लू भर दूध चाय के लिए मिल जाए तो दीपावली और दशहरा लगता है। मेरे पिताजी कहते थे लक्ष्मी नहीं हो लेकिन सरस्वती होनी चाहिए। जिसके घर सरस्वती होती है वहीं लक्ष्मी भी वास करती है लेकिन दादाजी ने एक न चलने दी। मंजरी –छोड़ो जी पहले खाना खाइए।बसंत –तुम भी क्यों सुनोगी इस अनपढ़ बसंता की पीड़ा। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं कल को रूपये नहीं दे पाए तो बाप दादे की यह निशानी भी हाथ से जाती रहेगी। मंजरी-ऐसी अशुभ बातें मत करिए।

सुबह होते हीं बसंत खेत चला गया दिन चढ़ने को आ गया मंजरी का मन विचलित हो रहा था उसे रहा ना गया बस चल दी वहाँ पहुंची तो देखती है कि बसंत अपने लगाए फसलों के बीचों बीच खड़ा अपने धुन में गाए जा रहा था।

बसंत ऋतु आई झाई हरियाली

मंजर से सज गए, गाए अम्मुआ की डाली

आज बसंत बहुत खुश था बोला ए मंजरी देखो अपनी फसल लहलहा रही है दो चार दिन में कटकर जब दरवाजे को सजाएगी तब कितना मन भावन लगेगा। मंजरी –इतना मत खुश होइए कहते हैं अपनी हीं नजर सबसे पहले लगती है। चलिए घर बीमार से उठे हैं भगवान ना करे फिर कुछ ......और वही हुआ बुखार ने ऐसे दबोचा की दस दिन तो अपनी सुद्बुद नहीं रही यह बीमारी कम थी कि आ गए ठाकुर के प्यादे रे बसंता कहाँ गया तुने तो हद कर दी क्या रुपये देने का इरादा नहीं है ? मंजरी –क्या मुंशी जी आप तो मरे इन्सान से भी पैसे वसूल लें बेचारा दस दिन से खटिया में पड़ा है और आप आते हीं सुनाने लगे। मुंशी –हाँ अब देने की बारी आई तो बीमार क्या मरने का भी नाटक करते देर ना लगेगी। मंजरी –मुंशी जी चुप हो जाइए ठाकुर जी से कहिएगा इसबार सब चुकता कर देंगे। मुंशी जी-बड़ा घमंड है बेईमान हो तुम सब चोर। मंजरी –मुंशी चुप हो जाओ। मुंशी जी –वाह लगता है तुम्हारा भी मौसम बदल गया है छोडूंगा नहीं। बसंत –थरथराते हुए माफ कर दो मालिक नादान है, कमअक्ल है। मुंशी जी –कमअक्ल है मौका मिले तब तो बड़े - बड़े को बेच आए।

मुंशी चला गया। बसंत- क्या री मंजरी एक पल चुप नहीं रह सकती क्या किसी के चोर कह देने से हम चोर बेईमान तो नहीं हो जाएँगे ना जाने अब क्या अनर्थ होगा।

रात के दो बजे के करीब गाँव में कोहराम मच गई कहाँ से आवाज आ रही है बसंत बोल पड़ा अब क्या हुआ हे भगवान सबकी रक्षा करना तभी जमुना दौड़ा दौड़ा आया। भैया बसंत भैया आपके खेतों में तो.... क्या, क्या हुआ

ऐसा कैसे हो गया जिसका डर था वही हुआ सब नसनाबुत हो गया। सुबह ठाकुर के दरवाजे पर बैठक बैठी लेकिन फिर होना क्या था सभी गलती इस मौसम में चलने वाली हवाओं पर और उसके संग उड़कर आने वाली बगल की बस्ती की आग पर डाल दिया गया। उस समय मंजरी ने साफ साफ कह दिया कि सब इस मुंशी जी की करनी है जो फसल सर्दी की मार सह गई उसे यह ...चुप हो जाओ कितनी बार बोला हूँ ठाकुर सबके मालिक हैं न्याय जरूर करेंगे बसंत ने समझाते हुए कहा लेकिन मंजरी एक नहीं सुनी और पुलिस तक जाने की बात बोल दी। अब तो ठाकुर ने भी हाथ खड़े कर दिए जाते जाते सिर्फ इतना हीं बोले बिना सबूत इल्जाम नहीं लगाना चाहिए। मंजरी – सबूत है ठाकुर। सभी अपने घर चले गए लेकिन अब बसंत को चिंता ना हीं खाने की थी ना हीं कर्ज की, चिंता थी तो मुंशी की कहर का ना जाने क्या करेगा छोटी सी बात पर क्या मंजरी के उलझने पर तो इतने दिनों के मेहनत को तबाह करते देर ना लगी अब तो सबूत वाले बात से क्या करे।

बसंत डर के मारे थरथर कांप रहा था लेकिन मंजरी अभी भी सत्य के लिए प्राण देने के लिए तैयार थी। बसंत से तो खाया भी नहीं गया मंजरी के मुख पर हाथ रखकर कंडे के घर [गोबर से बने जलावन ] में जाकर बैठ गया उसे आज की रात अजीब भयावह लग रही थी और वही हुआ रात के अँधेरे में लम्बे चौड़े दो आदमी ने उसके घर को आग के हवाले कर दिया मंजरी चिल्लाने की कोशिश की लेकिन अपने पति के प्राण की खातिर सिर्फ आँसू निकालती रही और अपने पति के साथ उस रात की कालिमा में मानो कहीं खो गई या निकल पड़ी अपने बसंत के साथ अपने जीवन की बसंत की खोज में। आज भी लोग बसंत और मंजरी को याद करके बातें करते हैं तो कोई उनकी दुःख भरे अंत पर आँसू बहाते हैं तो कोई मंजरी की साहस की बातें करते हैं। ऐसा लगता है मानो आज भी बसंत के गाए गीत पेड़ पौधे याद करके झूम उठते हैं। बसंत ऋतु तो प्रत्येक साल आता है और बसंत मंजरी की यादों को सभी के दिलों में जगाकर आगे निकल जाता है।


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