बस भागते रहो जी
बस भागते रहो जी
सच कहें भाइयों, तो ऐसा लगता है मानो बेचारे नंदनलाल तो पूरे जीवन भागते ही रहे हैं। होश संभाला तो माता -पिता और अध्यापक सब ने उनके दिमाग में ठूँस दिया की पढ़ने लिखने में अव्वल ही रहना होगा। बस अच्छे से पढ़ लें फिर क्या जिंदगी में आराम ही आराम।
उन्होंने भी अपना चश्मा कस पढ़ने की दौड़ में इतना ध्यान लगाया की कभी दो -तीन नंबर भी इधर उधर हो जाते थे दिनों दुखी रहते थे। कोई उन से ज्यादा नंबर न लाये बस इसी दौड़ में उनका बचपन कब ख़त्म हो गया पता ही नहीं चला।
अब कॉलेज जाने का समय था पर अचानक ही उन्होंने अपने आप को एक नई दौड़ में खड़ा पाया, नौकरी ढूंढने की। पिता की तबीयत अचानक ही ख़राब हो गयी तो उनकी बरसों पुरानी नौकरी छूट गयी। अब घर की जिम्मेदारियां नंदनलाल जी के कमजोर कन्धों पर आ गयी। मेहनती थे सो जल्द ही उन्होंने नौकरी पकड़ ली। कॉलेज की जगह पत्राचार से पढ़ाई जारी थी। अब वो दो दौड़ों में एक साथ भागने लगे। पढ़ाई में अव्वल बने रहने की और नौकरी में भी आगे बने रहने की।
उन्हें अक्सर छोटी मोटी जीतें मिलती ही रहती थी। कभी एक इन्क्रीमेंट ज्यादा तो कभी पढाई में अच्छे अंक लाने का इनाम। पल भर को मन करता था कि थोड़ा थम कर अब जिंदगी का मजा भी लें पर ऐसा करने पर दौड़ में पिछड़ भी तो जाते न। तो बस जी अच्छे दिनों के स्वप्न देखते हुए वो दौड़ते ही रहे।
पढ़ाई की दौर किसी तरह ख़त्म हुयी ही थी की घरपरिवार की दौड़ में उन्हें धकेल दिया गया। पत्नी आ गयी और फिर बच्चे भी। बस फिर तो "सब पड़ोसियों के पास है बस हमारे पास ही नहीं है " और "पापा क्लास में सबके पास है बस मेरे पास नहीं " इन दो वाक्यों में छुपी अनगिनत मांगें पूरी करते करते दिन रात का भी होश नहीं रहा।
अब नंदनलाल जी को समझ आने लगा है कि उनकी दौड़ कभी ख़त्म नहीं होगी। किसी न किसी बहाने परिवार और समाज उन्हें दौड़ाता ही रहेगा।
वो इन दौड़ों के मकड़जाल से बाहर निकलना चाहते थे। पर अफ़सोस ये मुमकिन नहीं था।
अब पचास के हो चलें हैं तो डॉक्टर ने उन्हें सुबह शाम सेहत के लिए दौड़ने को भी कह दिया है। पैसा , परिवार, स्टेटस और अब स्वास्थ्य -सब उन्हें दौड़ाते ही जा रहे हैं।
अब कभी कभी वो हाँफते हैं। मन करता है की सब दौड़ें छोड़ बस आराम करें।
पर कहाँ अभी तो उन्हें अगले प्रमोशन के लिए दौड़ना है, फिर बच्चों की शादी के लिए फिर बच्चों के बच्चों के एडमिशन के लिए।
कभी कभी लगता है की उनकी दौड़ उनकी मौत पर ही ख़त्म होगी। पर क्या पता मरने के बाद स्वर्ग पहुँचने पर भी उन्हें कहीं कोई किसी दुसरे बहाने से दौड़ाने न लगे। सच में ये दौड़ें कभी ख़त्म होंगी या नहीं इस का जवाब शायद भगवान् दे पाएं।
फिलहाल तो नंदन लाल जी बस दौड़े जा रहे हैं। दर्द और दुःख के चाबुक से बचने और धन -दौलत और ऐशो-आराम की गाजर के पीछे। बस हांफते -हांफते लगे हैं अपनी राह को, एक कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ में।