बढ़े हाथ

बढ़े हाथ

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सुबह के छह बजे चुके हैं. बच्चे उठ गए हैं। घर के बगीचे में घूम खेल कर अपनी सुस्ती भगा रहे थे। बगीचे के एक कोने में जली हुई लकड़ी उठा कर कब उन्होंने हाथ काले कर लिए, उन्हें भी पता नहीं चला। 

"अब इससे पहले की माँ की डांट पड़े, अच्छी तरह से जाकर वाश बेसिन पर हाथ धो लो।" मैंने बच्चो के कोयले से काले हुए हाथों को देखकर कहा।

"जी पापा।" कहकर वे फटाफट हाथ धोने भागे। पत्नी अभी रसोई में व्यस्त थी, इसलिए वो इस कालिख से बेखबर थी वरना बेकार में डांट पड़ जाती बच्चों को।

मैं मन ही मन इस घटना और उस पर अपनी पत्नी की संभावित प्रतिक्रिया के बारे में सोचकर हँसने लगा, तभी मोबाइल की घण्टी बजी। शर्मा का फ़ोन था, शर्मा मेरे साथ ही मेरे सरकारी स्कूल में अध्यापक था।

"हां भई, शर्मा जी, नमस्कार,सुप्रभात , ...हां हां ..अरे यार याद है...ठीक है..सात बजे झुग्गी झोपड़ी... ठीक ठीक...हां कुछ बच्चे हैं ...अच्छा....मिलते हैं .. ।" मैंने कहकर अपनी बात खत्म की।

आज मुझे और शर्मा को सरकारी स्कूल में उन बच्चों को दाखिल करवाने की मुहिम पर जाना था जो किसी कारण से स्कूल नहीं जाते थे। सरकार की ओर से शिक्षा के अधिकार के तहत छह से चौदह साल के हर बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना जरूरी था। मुफ्त किताबें, मुफ्त यूनिफार्म, मुफ्त दोपहर का भोजन और वजीफा आदि की सुविधाएं सरकार की तरफ से दी जा रही थी। नतीजा अच्छा था पर फिर भी सड़कों पर, दुकानों पर, कचरे के ढेर के आस पास अक्सर बहुत से बच्चे काम करते दिख जाते। उन्हें लेबर इंस्पेक्टर की मदद से स्कूलों में लाया गया था। अब झुग्गी झोपड़ी में भी अधयापकों और अधिकारियों की मुहिम शुरू की जा रही थी जिसमे ऐसे बच्चों के माँ बाप तक सरकार की सुविधाओं के बारे में जानकारी दी जा सके और अधिक से अधिक बच्चों को सरकारी स्कूल में एनरोल किया जा सके।

सही सात बजे मैं और शर्मा स्कूटर से शहर के बाहरी तरफ बनी झुग्गियों के पास पहुंच गए। चीथड़ों और टूटे फूटे बांस की झोपड़ियां, कूड़े करकट से भरा रास्ता, खाली प्लास्टिक की बोतलों और पीपियों के यहां तहाँ टंगे ढेर। नङ्गे, गद बदे, नाक बहती वाले मैले कुचैले बच्चे। ईंट के चूल्हे पर ट्वेन के ऊपर सिकटी मोटी रोटियां। सब कुछ चीकट मैला, गंदा। इनमें से कई तो पूरे शहर के घरों की सफाई करने वाले दिहाड़ी मजदूर और काम वाली बाई तक शामिल थे। सबके पास वोटर कार्ड था। बदबू और धुंए से भरे इस कूड़े के जंगल मे हम अपने कपड़ों को संभालते हुए दायें बाये देख पैर बढ़ाते एक घर मे घुस गए। इस झोपड़ी के एक कोने में बैठा बूढ़ा बीड़ी फूंक रहा था तो दूसरी तरफ एक औरत चूल्हा। 

"जी हम सरकारी स्कूल से आये हैं, आपके बच्चे स्कूल जाते हैं।" हमने सकुचाते हुए खड़े खड़े पूछा। बैठने के लिए कोई संभावना वह थी ही नहीं।

बूढ़ा बिना कोई ध्यान दिए अपनी बीड़ी पिता रहा और फिर वो चूल्हे की आग को सुलगाती औरत वही बैठे बैठे बोली।

"बाबू ,बच्चे है पर अपने बाप के साथ कोयले के डिपो में काम करने गए हैं रात से, अभी आने वाले हैं फिर रद्दी इकट्ठी करने जाएंगे। स्कूल, विस्कूल जाने का टंटा कौन पाले, न कपड़ा न लत्ता, पान खाये अलबत्ता।"

जैसे उसने हमें कोई बेकार के आदमी समझा हो, इस तरह से जवाब दिया। खैर हमे अपना मिशन पूरा करना था। शिक्षा सचिव का दबाव जो था। कम से कम दस प्रतिशत एनरोलमेंट बढ़ाने का सख्त आदेश था, वरना जाओ बेटा हेड आफिस, बीसियों बातें सुनो।

"देखिये कपड़ा लत्ता सब सरकार देगी, दोपहर का खाना भी, बिल्कुल मुफ्त और किताबें भी। आप को बस बच्चों को स्कूल भेजने हैं।" शर्मा जी ने सकुचाते हुए कहा।

"अरे भैया ये मुफ्त के बात वाली नेतागिरी मत झाड़ो यहाँ.... लो वो बच्चे और उनके बाप चले आ रहे हैं, उन्हीं से बात कर लो।" औरत ने फिर झोपड़ी के बाहर की तरफ इशारा करते हुए कहा।

दो बच्चे थे, दोनों आठ से दस साल के बीच की उम्र के। उनके साथ उनका पिता, तीनों के धूल और कालिख से खिचड़ी हुए उलझे बाल, मैले कपड़े और मैली शक्लें। मेरा मन किया कि पहले इनको नहलाया जाए, ताकि इनकी असली सूरत देखी जा सके।

"हाँ बाबू जी, कैसे आना हुआ ?" बच्चों के बसपा ने आते ही पूछा।

"जी ऐसा है भाई साहब, हम सरकारी स्कूल से आये हैं और सरकार चाहती है कि चौदह साल तक का हर बच्चा स्कूल जाए, ज्ञान प्राप्त करे, सभी सुविधाएं मुफ्त में मिलेगी। यह तक कि बच्चे की कोई बीमारी भी हो तो उसका इलाज भी फ्री करवाया जाएगा।" मैंने संक्षिप्त में अपनी बात रखी।

"मुफ्त वाले जुमले बहुत सुन चुके है बाबू जी, अभी हम तीनों काम पर जाते हैं तो दो जून की रोटी मिल रही है, ये स्कूल जायेगे तो कमाने वाला भी एक रह जायेगा।"

"भाई क्या आप चाहते हैं कि आपके बच्चे अनपढ़ रह जाये और इसी तरह के मेले कुचैले काम करें। क्या आप नहीं चाहते कि वो पढ़ लिखकर कोई अच्छे काम के लायक बन सके और आपका बुढापा भी सुधर जाए। स्कूल जायेगें, पढ़ेगें लिखेंगे तो क्या पता कोई अच्छा काम धंधा पा जाए। आमदनी तो वैसे ही बढ़ जाएगी।" 

मेरी बात सुनकर बाप मुस्कुराने लगा और कुछ सोचकर बोला,"और फिर भी अगर हम न भेजना चाहे तो, हमारे बच्चे भी नहीं जाना चाहते, अब ये इसी काम मे खुश है।" 

"बच्चो क्या आप स्कूल नहीं जाना चाहते, अच्छा खाना नहीं खाना चाहते, अच्छे बच्चों के साथ खेलना नहीं चाहते ?" मैंने बच्चों की मर्जी जाननी चाही।

बच्चे चुप रहे पर उनकी आंखों में जैसे चमक थी।

"बच्चो को क्या पता इन बातों का, ये सब जुमले है, आजकल यही सब हो रहा है। राशन कार्ड है, अनाज नहीं है, बैंक खाता है, पैसा नहीं है। सब झूठ।" बाप ने बेफिक्री से कहा।

"नहीं ऐसा नहीं है, आप इन बच्चों को एक बार स्कूल भेज कर देखिये, यदि हमारी बाते सच न हुई तो आप का फैसला जो होगा हमें मंजूर होगा।' शर्मा जी ने फिर मिन्नत की।

"चलिए ठीक है, बाबू तुमहारे कहने से भेज रहे हैं, हफ्ता भर की मजूरी का नुकसान ही सही।" बाप ने अनचाहे मन से कहा।

हम खुश थे। शर्मा जी ने अपने बैग से कुछ बिस्कुट के पैकेट और टॉफी निकाली और बच्चों की तरफ बढ़ दी।

बच्चो और उनके पिता ने आगे बढ़कर हाथ फैला दिए।

काले, मटमैले हाथो को देखकर मुझे अपने बच्चों के सुबह वाले हाथ याद आये।

उनके चेहरों पर मुस्कुराहट देखकर मन खुश हो गया।


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