बोझ

बोझ

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आज शशांक इतना हताश हो गया था बॉस की डांट से कि उसने सोच लिया बहुत हो गया, अब नहीं होना और ज़लील, कितना भी करो, काम का "बोझ" खत्म ही नहीं होता।


नौकरी छोड़ने से बेहतर है कि जीना ही छोड़ दूं क्योंकि घर के हालात नौकरी छोड़ने नहीं देंगे और हताशा से अतिक्रांत होकर वो पहुंच गया एक कंस्ट्रक्शन साइट पर, काम लगभग खत्म पर था, उसने सोचा कि काम खत्म हो जाये, फिर ऊपर जाकर कूद जाएगा नीचे!


थोड़ी देर वो वहीं रुक कर देखता रहा मज़दूरों को बोझ लाद लादकर आते हुए, जाते हुए।


काम खत्म हुआ सब लोग धीरे धीरे चले गए, वो ऊपर से छलांग लगाने ही वाला था कि पीछे से किसी ने पकड़ कर खींच लिया। देखा तो एक मजदूर था अधेड़ उम्र का, उसने कहा, "plz मुझे मर जाने दीजिए, किसी काम का नही मैं और रौ में अपनी हर असफलता, ज़िल्लत की सारी कहानी कह गया।"


मज़दूर मुस्कुराकर बोला, “कमाल है साहब, हम इतना बोझ उठा लेते हैं और आप काम के बोझ से ही घबरा गए। एक बार इस काम के बोझ को अपना बनाकर देखिए, ज़िन्दगी आपको कोई बोझ महसूस होने ही नहीं देगी! हम दिन भर जब मेहनत करते हैं तब रात को ज़िन्दगी अपनी गोद में इतनी मीठी नींद सुलाती है कि पूछिये ही मत!”


सुन के शशांक की आंखें ही खुल गईं। आज वो कामयाब है और लगभग रोज ही उस बन चुकी बिल्डिंग को आकर निहारता रहता है।


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