लघुकथा-नज़रिया
लघुकथा-नज़रिया
आज अस्मिता की शादी है, पूरा घर मेहमानों से भरा है, बन्ना बन्नी के स्वर गूंज रहे हैं, उसका धर्म का भाई 'मानव'अभी अभी कोई काम निपटा के घर आया है,देखा तो सामने अस्मिता को दुल्हन के जोड़े में पाया।
एक क्षण के लिए देखता ही रह गया, कहाँ उन्मुक्त चिड़िया सी उसकी बहन, आज इतने आभूषणों से लदी हुई, अपना भारी परिधान सम्भाले हुए कमरे से बाहर आ रही है।
फिर उसने सोचा कि कोई न ये भी एक रीत ही है, आगे बढ़ने को ही था कि अस्मिता ने आवाज़ दी "सुन मानव, तेरे से एक काम है।
मानव बोला, अब नहीं यार, तू हमेशा बिल्कुल मौके पर मुझे किसी न किसी काम में उलझा देती है, मुझे सब याद है, कितनी बार बिल्कुल तेरे इम्तिहानों के समय तूने छोटी छोटी चीजों के लिए दौड़ाया मुझे। छोड़ किसी और को बोल दे बहन,"अस्मिता ने दृढ़ स्वर में कहा नहीं मानव, ये काम सिर्फ तू कर सकता है। ये हमारी आखिरी मुलाकात है, अब मैं तुझसे कभी नहीं मिलूंगी, वजह ये है कि पराग किसी धर्म के रिश्ते पर विश्वास नहीं करते।"
एक पल को तो मानव के पैरों तले ज़मीन निकल गयी, पर उसने सम्भाला खुद को और फ़ीकी सी हँसी के साथ बोला,"हमारा रिश्ता किसी धागे का मोहताज़ नहीं, न किसी मुलाकात का, बस तू खुश रहना, और अपने दिल पर कोई बोझ मत रखना, जो नजरिया पराग का है, वो मेरी मंगेतर चेतना का भी हो सकता है, चल अलविदा।"
बोझिल कदमों से आखिरी बार अपनी जिम्मेदारी निभाने मानव पंडाल की ओर बढ़ गया।