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Ravi Ranjan Goswami

Fantasy

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Ravi Ranjan Goswami

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भुतहा बंगला

भुतहा बंगला

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होली के आसपास का दिन था। वल्की शाम थी। मुन्ना भैया ने मुझसे पूछा, “घूमने चलोगे?”

मुन्ना भैया मुझसे बड़े थे। मैं अगर चौदह वर्ष का था तो वे सोलह के रहे होंगे। मैंने पूछा,”कहाँ?” “मैं साइकिल से एक दोस्त के घर जा रहा हूँ। चलना है तो चल,” वे बोले।

प्रस्ताव आकर्षक था; साइकिल पे घूमने जाना था और ये भी संभावना थी साइकिल चलाने को मिल जाये। मुन्ना भैया ने घर से साइकिल निकाली,मुझे आगे डंडे पर बिठाया और एक पैडल पर पैर रखकर साइकिल को थोड़ा गति दी और दूसरी टांग उठाकर सीट पर बैठ गए और दूसरा पैर दूसरी तरफ के पैडल पर रख दिया और दोनों पैरों से पैडल मारने लगे। थोड़ा हैंडल डगमगाया फिर नियंत्रित हो गया। साइकिल सड़क पर दौड़ने लगी।

हमारा घर बस्ती के एक छोर पर था। हम लोग बस्ती के बाहर निकल गये। सड़क खाली थी। मुन्ना भैया की साइकिल तेज गति से बढ़ रही थी। मैं हवा का आनंद ले रहा था। मुझे इससे ज्यादा सरोकार नहीं था कि कहाँ जा रहे और क्यूँ जा रहे। मैं साइकिल की सवारी और घूमने का आनंद ले रहा था। आखिरकार पेड़ों से घिरे एक हवेली जैसे मकान पर जाकर मुन्ना भैया ने साइकिल रोक दी। दर असल मुन्ना भैया के दोस्त के पिताजी फॉरेस्ट ऑफिसर थे और ये उनका सरकारी बंगला था जो अग्रेजों के जमाने में बना था।

भैया ने आवाज दी, “राकेश”।

राकेश तुरंत दौड़ते हुए बाहर आये। मैं उन्हें शक्ल से पहचानता था। नाम नहीं पता था।

राकेश भैया हमें अंदर ले गये। घर में उनकी दीदी, मम्मी पापा और एक बड़ी मूंछ वाले अंकल थे। एक नौकर रम्मू और एक नौकरानी शकीला भी थी।

राकेश के पापा का नाम बोर्ड पे पढ़ लिया था। उनका नाम था सुंदर सिंह। अंकल का नाम बर्मन था।

सुंदर सिंह अंकल उन्हें, “मिस्टर बर्मन कह कर संबोधित कर रहे थे।”

बैठक में दोनों अंकल बात कर रहे थे। शायद इसलिए राकेश भैया हमें अपने कमरे में ले गये। मुझे उनकी किताबों की रेक में चाचा चौधरी वाली कमिक्स मिल गयी। मैं उठा कर उसे पढ़ने लगा। दोनों भैया लोग पता नहीं क्या गप करके हँसते रहे। थोड़ी देर बाद रम्मू एक ट्रे में रख एक प्लेट में गुझियां और दूसरी मिठाइयाँ ,नमकीन और तीन ग्लास दूध ले आया और मेज पे रखके चला गया। दूध ठंडे बादाम मिल्क जैसा था किन्तु उससे अधिक स्वादिष्ट था। भैया लोग तो गपबाजी करते हुए धीरे धीरे खा रहे थे आधी प्लेट तो मैंने ही खतम कर दी और दूध का गिलास भी जल्दी ही खाली कर दिया। राकेश भैया ने कहा, “रवि मिठाई और ले लो।”

मैंने कहा, “बस भैया पेट भर गया।”

खा पी के मुझे लगा जैसे मैं इसी के लिए गया था । मेरा काम तो खत्म हो चुका था। मैंने मुन्ना भैया से कहा, “मुन्ना भैया अब घर चलें। वे बोले, “अभी चलते हैं।“

तभी रम्मू तीन ग्लास दूध और लेकर आ गया। रम्मू राकेश से बोला, “भैया जी एक एक और ठंडाई लीजिये।“

वो लोग फिर गप्पें मारते हुए धीरे धीरे ठंडा दूध पीने लगे। मैंने अपना गिलास दो मिनट में ख़लास कर दिया। और कामिक्स पढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद मुझे नींद सी आने लगी। मैंने मुन्ना भैया से कहा, “मुन्ना भैया रात हो गयी घर चलिये।”

वे बोले, “अभी थोड़ी देर में चलते है।“

नींद भगाने के लिए मैं बैठक में चला गया। मैं बिना इधर उधर देखे एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।

जब अंकल ने पूछा, “नाश्ता किया।“ तो मैंने नजरें उठायी। तो चौंक गया। दोनों अंकल के सर पर सींग उगे थे जैसे चित्रों में राक्षसों के सर पर होते हैं।

फिर भी मैंने जवाब दे दिया, “कर लिया अंकल।”

कुछ देर बाद बैठक धीमेधीमे घूमने लगी। कमरे की छत ऊंची थी और बीच में एक झूमर लटका था। झूमर हिलने लगा।

तभी दोनों अंकल किसी बात पर ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। एक दम ऐसे अट्टहास कर रहे थे कि लगा कि वे राक्षस ही हैं।

मैंने सोचा ये बहुत पुराना बंगला है। हो न हो भुतहा बंगला है। पहले भुतहा मकानों के बारे सुन रखा था आज देख लिया।

मुझे ज्यादा डर नहीं लगा क्योंकि वहाँ और भी लोग थे। सबसे बड़ी बात थी कि मुन्ना भैया भी तो वहीं थे। हनुमानजी का नाम मैं मन में जप ही रहा था।

अब मैंने मुन्ना भैया के पास जाकर ज़ोर देकर कहा, “मुन्ना भैया चलिये रात को देर से घर पहुंचेंगे तो डांट पड़ेगी।”

अब वे चलने को तैयार थे।

हम दोनों सबसे नमस्ते करके बाहर आ गये। राकेश भैया बाहर छोडने आये। उनसे टा टा करके हमलोग साइकिल पर सवार होकर वापस अपने घर की ओर चल दिये।

बाहर अंधेरा हो चुका था। सड़क के बिजली के खंबों की लाइट जल चुकी थी। बीच में एक आध खंबे का बल्ब नहीं जला था। थोड़ा अंधेरा पड़ते ही मुझे रहस्यमयी छायाएँ दिखने लगती।

अपने घर के नजदीक पहुँचकर मैं थोड़ा निश्चिंत हुआ। मैंने मुन्ना भैया से कहा, “तुम्हें पता है, राकेश भैया का बंगला भुतहा है?”

मुन्ना भैया ने मुझे पूछा, “तुझसे किसने कहा।”

मैंने उन्हें बंगले में हुए अनुभव बताये।

मुन्ना भैया हँसे और ऐसा हँसे जैसे हंसी का दौरा पड़ा हो।

थोड़ी देर में हंसी रुकी तो मुझे प्रश्न किया, “तुमने दो गिलास ठंडाई क्यों गटक ली?”

“क्यों?” मैंने पूछा।

वो भांग की ठंडाई थी।

इस जानकारी के साथ सारे रहस्य से पर्दा उठ गया था।

फिर वे बोले, “तुम सीधे छत पर जाकर सो जाना। बाकी हम संभाल लेंगे।

घर पहुँच कर मैं सीधा छत पे जाकर सो गया।

उन्होंने क्या कैसे संभाला सो पता नहीं। बाद में सबको पता चल गया।

मैं तब से अब तक जहां कहीं ठंडाई पीने की बात आती है,खासकर होली के आसपास पूछ लेता हूँ , “ठंडाई कैसी है ?सादा या ...?

मुझे सादा ही रास आती है।



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