बहती नदियां
बहती नदियां
मैं नदी हूं। जाने कितने युग बीत गए पर मैं अनवरत बहती जा रही हूं। हां समय के साथ मेरा बहाव कम होता जा रहा है। अब मैं पहले जितनी पावन नहीं रही। हर कोई पाप कर चला आता है मुझमें धोने! और फिर से बनाता है पापों की एक अनवरत श्रृंखला!ताकि वह फिर से आ सके अपने तथाकथित पापों को धोने।
मैंने कृष्ण को गोपियों के संग अठखेलियां करते देखा है। श्रवण कुमार को दशरथ के हाथों मरते देखा है। महान बाजीराव पेशवा को मेरे किनारे ही गति प्राप्त हुई थी।
प्रदूषण की तो पराकाष्ठा पार कर चुका है ये इंसान।
कारखानों का ज़हरीला पानी मुझ में छोड़ा जा रहा है। धोबी आकर शहर भर की गन्दगी मुझ में घोल कर चला जाता है। जानवरों को नहलाया जाता है। और गंदी नालियों का पानी मुझ में आ के मिलता है। फिर भी बहती जा रही हूं मैं अनवरत।