Preeti Agrawal

Inspirational

4.2  

Preeti Agrawal

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भोली सी मां

भोली सी मां

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"मैडम आपके लिए कुछ लाऊं क्या" - वेटर ने बड़े अदब से सरला जी पूछा।

" बेटा हरा भरा कबाब बचा है क्या? अगर दूसरों को नहीं चाहिए तो वो ला दो" - सरला जी के ये कहते ही डाइनिंग हॉल में खुसर फुसर होने लगी और लोग मुस्कुरा दिए।

उनकी बात सुनकर उनका बेटा राकेश तेजी से उनके पास आया और बोला - "वेटर! मम्मी को हरा भरा कबाब लाकर दो और उनका पूरा ध्यान रखो। " 

"जी सर"- कहते हुए वेटर चला गया। 

" मेरी भोली मां! आप बिल्कुल चिंता मत करो। यहां सब अनलिमिटेड है। आपको जो चाहिए वो अच्छे से लेे लो। यहां मैंने आपकी पसंद का ही मेनू रखवाया है और मुझे बहुत अच्छे से मालूम है कि यह आपकी प्रिय डिश है "- उसने बहुत प्यार से सरला जी से कहा।

"हां बेटा। तू किसी भी बात की कोई कमी नहीं रखता है पर क्या करूं आदत…."- कहते कहते सरला जी की आवाज रूंध गई। 

"हां मम्मी कोई बात नहीं" - प्यार से उनका कंधा थपथपा कर राकेश मेहमानों के पास चला गया। 


आज सरला जी बहुत खुश थीं। क्यों ना हो आखिर उनके बेटे - बहू की शादी की पच्चीसवीं सालगिरह जो थी। घर मेहमानों से भरा हुआ था। बहुत उत्साह से वो खुद ही सारे इंतजाम देख रही थीं। सुबह से सरला जी सभी की एक एक चीज का ध्यान रख रहीं थीं। हर एक व्यक्ति से चाय, नाश्ते और खाने का पूछतीं। सारी रस्में बिल्कुल वैसी ही निभाई जा रहीं थीं जैसी शादी के वक्त निभाई जाती हैं। सत्यनारायण जी की कथा से शुरू हुए उत्सव में हल्दी, मेहंदी, माता पूजन जैसे सभी कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था। 

उनके पति सतीश जी के आकस्मिक अवसान को दो साल हो गए थे और उसके बाद घर में यह पहला इतना बड़ा उत्सव मनाया जा रहा था। सतीश जी के जाने के बाद बेटे - बहू ने जिस तरह उन्हें संभाला उन्हें इस बड़े सदमें से उबरने में बहुत मदद मिली। 

सतीश जी के आकस्मिक निधन के कारण राकेश का अपनी शादी की सालगिरह इतनी धूमधाम से मनाने का बिल्कुल भी मन नहीं था पर उन्होंने ही उसे समझाया कि सतीश जी के बहुत सपने थे इस अवसर को लेकर इसीलिए उत्सव मनाना चाहिए। इसी अवसर पर शाम को मुख्य पार्टी एक बड़े से होटल में रखी गई थी जहां उस समय डिनर चल रहा था।


सरला जी अपने नाम के अनुरूप बहुत ही सरल स्वभाव की, मृदुभाषी, व्यावहारिक और सभी को साथ लेकर चलने वाली महिला थीं। घर की सबसे बड़ी बहू होने के नाते उन्होंने सारी जिम्मेदारियां बखूबी निभाई थी। उनके घर मेहमानों का तांता लगा रहता और वो सभी का स्वागत सत्कार बहुत प्रेम से करतीं और खाने में उनकी प्रिय डिश जरूर बनातीं जिससे सभी लोग उनसे बहुत खुश रहते और उनके बनाए स्वादिष्ट खाने की बहुत तारीफ करते। 

जैसे अक्सर महिलाओं की आदत होती है वो भी सबको खिलाकर फिर खुद  खाती। बहुत स्वादिष्ट पकवान बने होते तो सभी को बहुत आग्रह कर करके खिलाती जिससे अक्सर उनके लिए बच ही नहीं पाता था। फिर जो भी बचा हुआ खाना रहता बड़े प्रेम से खा लेती और हंसकर कहती कि "तुम लोगों ने इतने प्रेम से खाया तो मेरा पेट ऐसे ही भर गया"। 

 इतने सालों में उनकी ऐसी ही आदत हो गई थी इसलिए वो अपनी थाली में लेने से पहले जरूर पूछतीं कि किसी और को तो नहीं चाहिए।

दोस्तों हम महिलाएं हमेशा ऐसा ही करती हैं। खुद ही खाना बनाती हैं फिर सभी को प्रेम से खिलाकर अपने लिए सोचती ही नहीं है। वृद्धावस्था में इसी आदत को घरवाले कभी बहुत सहज रूप में लेते हैं और कई बार नासमझी के कारण यही बात क्लेश का कारण बनती है। कई बार घरवाले इसी बात को अपमान कि तरह भी ले लेते हैं कि "इतने लोगों के सामने यह कहकर बेइज्जती करवा दी जैसे हम तुम्हें खाने को नहीं देते"

मेरा यह मानना है कि सारी जिंदगी दूसरों के लिए ही जीने वाली महिलाओं की वृद्धावस्था में ऐसी ही अन्य बातों को सहज रूप में ही लेकर उन्हें वो सभी सुख देने चाहिए जिनके बारे उन्होंने खुद अपने लिए कभी सोचे ही नहीं। 

आपकी क्या राय है?



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