निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

5.0  

निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

भीख नहीं भूख !

भीख नहीं भूख !

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अक्सर राह चलते भीख मांगने वाले बच्चों के समूह से एक कुंठा सी बैठ गयी थी मेरे मन में ! बाल श्रम का विरोधी होने के साथ साथ इस बात से बहुत तकलीफ होती थी जब बच्चों के समूह को राह चलते सड़कों पर या ट्रेन में अक्सर भूखे होने की मुखाकृति बनाकर लोगों से पैसे मांगता देखता था।

व्यथा होती थी मन में और फिर उन गुटों पर गुस्सा आता था जो गैंग इन अनाथ बेसहारा बच्चों का इस्तेमाल अपने स्वार्थ हेतु करते थे। अक्सर ऐसा पता चला मुझे कि इन बच्चों को सार्वजनिक स्थलों पर भेज भीख मंगवाने का कार्य ऐसे कुछ समूह करवाया करते थे जो नन्हें गरीब बालकों को इस्तेमाल करते थे और उन्हें भोजन और आश्रय देने के बदले उनसे भिक्षा मंगवा कर धनागोह का कार्य करते थे।

इसी वजह से मुझे कभी ऐसे बच्चों के भिक्षा मांगने से चिढ़ होती थी और लगता था जैसे भूख का बहाना कर और ये कह कर की '3 दिनों से भूखा हूँ', ये बच्चे लोगों से पैसे मांगते और बाद में जाकर अपने "उस्ताद" को पैसे दे आते और फिर से भीख मांगना शुरू।

अक्सर इसी वजह से मैं उन बच्चों को पैसे देना उचित नहीं समझता था। उन्हें भीख मांगना छोड़ इस उम्र में पढ़ाई करने की नसीहत दे डालता था।

उस दिन शाम को कार्यालय से जब बाहर निकला तो भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ, बाहर सड़क पर "ओला कैब "के आने का इन्तजार कर रहा था, बाजू में रोज की तरह 'वड़ा पाव' वाला अपने स्टॉल पर बड़ी तल्लीनता से वड़ा तल रहा था, 2-4 ग्राहक भी चाव से वड़े पाव का तली हुई मिर्च के साथ आनंद ले रहे थे की अचानक एक नन्हा दुबला सा बालक चिथड़े कपड़ों में, साँवला रंग, चेहरे पर एक चमक किन्तु माथे पर दु:खद हावभाव लेकर सामने प्रकट हुआ और अपना पेट जो कि चिपक कर पीठ से जा मिली थी सहलाते हुए भीख मांगने वाली मुखाकृति बनाकर इशारे के साथ ठेठ मराठी में बोल पड़ा -"साहेब, कुछ पैसे दे दो, 2 दिनों से कुछ खाया नहींं ! बड़ी जोरों की भूख लगी है साहेब"!

जैसा की पहले से ही मन में कुंठा थी, इस भिक्षा वृत्ति के प्रति, उसे देख कर एक बार फिर मन ही मन गुस्सा आया कि, लो फिर आ गए ये मांगने वाले बच्चे, भूख तो बहाना है, पैसे ले जा कर अपने 'उस्ताद' को थमाने होंगे। जैसे की दिन का टारगेट पूरा करना हो।

फिर भी मानवता की खातिर ऊपरी मन से एक 10 रुपये का पुराना सा नोट जेब से निकाल अधूरे मन से उसकी तरफ बढ़ा दिया।

बच्चे ने एक सन्तुष्टिपूर्ण मुस्कान के साथ पैसे लिए और आगे बढ़ा। चूंकि कैब आने में अभी भी समय था मैं उसे ही देखता रहा और मन ही मन सोच रहा था अब ये पैसे ले कर नदारद होगा और जा कर पैसे अपने उस्ताद के हाथों में सौंप देगा।

अचानक से ख्याल आया कि बच्चे को पैसे देने के बजाय उसे पास के वड़ा पाव स्टाल से कुछ खिला देता तो ज्यादा अच्छा होता। वैसे भी पैसे देने की प्रवृति के खिलाफ ही था, इसलिए उसे इशारे से पास बुलाया और वड़े पाव वाले को 10 रूपये थमाकर एक वड़ा पाव बच्चे को देने को कहा।

बच्चे के मुखमंडल पर मानो चमक सी छा गयी, आराम से वड़े का सुस्वादु आनंद लेने में जुट गया। उसकी संतुष्टि देख मेरे मन की व्यथा भी कुछ कम हुई, फिर भी मन में एक खलिश थी कि। इसे पैसे नहींं देने चाहिए थे। पहले ही वड़ा पाव खिला देना था। पैसे तो उसके गैंग के पास चले जाएंगे।

इसी उधेड़बुन में मोबाइल स्क्रीन ओर देखा तो 1 मिनट में ओला कैब आने ही वाली थी। मैं सड़क की ओर पलट गया, बच्चा अभी भी वड़ा पाव के साथ व्यस्त था।

अचानक पीछे से किसी ने मेरी शर्ट खींची, मुड़कर देखा तो वही लड़का सामने खड़ा वड़ा पाव निपटा चुका था। मैंने हैरत भरी निगाह से पूछा "अब क्या?"

बालक ने मुस्कुराते हुए मेरी तरफ वो 10 रुपये का पुराना नोट वापस कर दिया और अपनी तोतली मराठी जुबान में बोला -"भीख नहींं भूख थी, इसलिये पैसे माँग रहा था, अब भूख मिट गयी तो भीख की जरूरत नहींं।" इतना कह कर नोट मेरी हथेली पर रख कर इतराता हुआ आगे बढ़ चला।

मैं हतप्रभ कभी लड़के को जाता, तो कभी हाथ में रखे उस नोट को देख रहा था, मेरी कुंठा पर कुठाराघात हुआ था, ये "भीख नहींं भूख" थी।


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