बेटी
बेटी
"इस बार भी बेटी ही हुई।" ये तीसरी बेटी हुई थी इस घर में और उसके होते ही ये एक पंक्ति पता नहीं कितनों के मुँह से निकली होगी। क्या मर्द, और क्या औरत, सभी बस इसी एक वाक्य को दुहरा रहे थे। पता नहीं, पोते का मुँह देख भी पाऊँगी या नहीं, या ऐसे ही भगवान के पास चली जाऊँगी बोलते - बोलते ही। ये बोलते हुए दादी मानो भूल ही गई थी, कि वो भी एक बेटी ही थी।
आस - पड़ोस वाले भी तो मानो कितने बड़े शुभचिंतक हो जाते हैं कभी - कभी अचानक ही। हाँ भैया, एक बेटा तो होना ही चाहिये, नहीं तो बुढ़ापे में मुक्ति कैसे मिलेगी। चर्चाओं का दौर यहाँ - वहाँ गर्म रहा कुछ दिनों तक। फिर धीरे - धीरे सब शान्त हो गया।
इन सब बातों के बीच शायद सब भूल ही गए थे कि बच्ची के माँ के दिल पर क्या बीत रही होगी ये सब सुनकर। खैर, समय धीरे - धीरे और आगे बढ़ा और लगभग एक साल बीत गया। अनीता अब इन सब तानों को सुन - सुनकर इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि अब कुछ भी सुनकर उसे बुरा नहीं लगता था। जीवन धीरे - धीरे एक बार फिर से सामान्य हो चला था। समय के साथ उसके मन के घाव भी भर चले थे।
सुनो, हम इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। मतलब, उसके पति ने उससे पूछा - रिस्क नहीं लेना चाहते का क्या मतलब हुआ ? अनीता ने जवाब दिया - मतलब कि इस बार बेटी नहीं चाहिये। इस बार हम पहले ही जाँच करवा लेंगे कि कोख में क्या है, बेटा, या बेटी। और अगर बेटी निकली, तो उसे किसी नर्सिंग होम या किसी डॉक्टर के पास जाकर गिरवा देंगे। लेकिन, उसके पति ने कहा - ये गलत है और गैर कानूनी भी। लेकिन - वेकिन कुछ नहीं यही करेंगे इस बार, अनीता ने जवाब दिया।
और हुआ भी यही। थोड़े ही समय बाद दोनों पति - पत्नी किसी डॉक्टर से मिले। इस बार भी बेटी ही होती। वही हुआ, जो पहले से तय था। साथ ही साथ इस बार अनीता ने और ज्यादा बच्चा नहीं होने का ऑपरेशन भी करवा लिया था। अब सब निश्चिन्त हो चुका था जीवन में।
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। एक दिन अनीता ने अपने पति से कहा, सुनो न, नॉन - वेज खाए कितने दिन हो गए न, आज खाते हैं। ठीक है, उसके पति ने कहा। आज ऑफिस से वापस आते समय लेते आऊँगा। शाम हुई, खाना बना और सब खाने बैठे। अनीता का ध्यान अचानक ही अपनी थाली में पड़े माँस के टुकड़ों की तरफ गया, उसने गौर से अपनी थाली की तरफ देखा। लगा कि जैसे उसकी तरफ कोई देख रहा हो। " माँ " ये एक आवाज सी मानो उसके कानों में गूँज गई। उसने अपनी बेटियों से पूछा - क्या तुम लोग मुझे आवाज दे रही हो। नहीं, हमने नहीं दिया। उसकी बेटियों ने जवाब दिया। क्या हुआ, तुम कहाँ खो गई, खाना खाओ, उसके पति ने कहा। उसे बड़ी अजीब सी एक आहट फिर महसूस हुई अपने मन में। वह मानो जैसे खो गई थी किसी ख्याल में। ऑपरेशन रूम की वो बात जो डॉक्टर से उसने की थी मानो आज अचानक ही उसके जेहन में ताजा हो आई थी।
" डॉक्टर मेम, एक बात पूछूँ ? हाँ, पूछो डॉक्टर बोली। आप मेरी कोख की भ्रूण को कैसे हटाएंगी, अनीता ने पूछा। क्यूँ, तुम जानकर क्या करोगी, डॉक्टर ने पूछा। बस, ऐसे ही, अनीता बोली। बस ज्यादा कुछ नहीं, हमारे पास जो औजार हैं इससे उस भ्रूण को टुकड़ों में काट देते हैं और बाहर निकाल देते हैं। फिर तुम्हें कुछ दिन की दवाइयाँ देंगे। फिर सब ठीक हो जाएगा। "
अनीता का ध्यान टूटा। अचानक से ही लगा जैसे उसका कलेजा मुँह को आ जाएगा। वह खाना छोड़ मुँह पर हाथ रखकर अपने कमरे की तरफ भागी। क्या हुआ, पीछे ही उसका पति भी भागता आया। कुछ नहीं, तबीयत ठीक नहीं लग रही। तुम लोग खाओ, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही। उसका पति खाने की मेज पर चला गया। अनीता अपनी दोनों हाथों से अपने तकिए को मुँह से लगाए रो रही थी।