रेलवे स्टेशन

रेलवे स्टेशन

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रात के कोई नौ बजे होंगे। बहुत डरी - सहमी सी वो इधर-उधर देख रही थी। भीड़ के हर एक चेहरे में मानो कुछ ढूँढ रही थी वो। प्लेटफार्म पर आते-जाते हर लोगों की तरफ वो एक सवाल भरी निगाहों से देखती, शायद कुछ कहना चाह रही थी पर फिर चुप ही रह जाती। थोड़ी देर बाद उसने एक युवक की तरफ देखते हुए पूछा बाबू, एक बात सुनोगे। युवक ने उसकी तरफ हिकारत भरी नज़रों से देखा, फिर झटकते हुए कहा नहीं, किसी और को सुनाओ। वो डर कर चुप हो गई। तभी ट्रेन आ गई। लोग अपने-अपने डब्बों की तरफ भागने लगे। वो बुढ़िया भी अचानक ही उठकर जोर-जोर से आवाज़ लगाने लगी-दिवेश, दिवेश। वो अपनी हर सम्भव शक्ति से अपना बैग उठाए हुए हर डब्बे के पास जाकर जोर-जोर से आवाज़ लगाती- दिवेश, ओ बेटा, दिवेश। थोड़ी देर पहले जिस युवक ने उसे भगा दिया था, वो चुपचाप बैठकर उसको देख रहा था।

ट्रेन के चले जाने के बाद प्लेटफार्म फिर धीर-धीरे पहले की तरह शांत होने लगा। वो बुढ़िया परेशान, थकी-हारी सी कदमों से धीरे-धीरे एक जगह जाकर बैठ गई। वो युवक उठकर उसके पास गया और पूछा क्या हुआ है ? बुढ़िया ने उसकी तरफ डरी सी नज़र से देखा, फिर बोली हाँ बेटा। मेरी बात सुन लो। युवक उसके पास बैठ गया और बोला, बताओ। मेरा बेटा उस तरफ जाने वाली गाड़ी से गाँव का टिकट लेने गया है। उसने एक तरफ इशारा करते हुए कहा। युवक ने आश्चर्य से पूछा, गाड़ी से कहाँ का टिकट लेने गया है तुम्हारा बेटा, टिकट तो स्टेशन के बाहर टिकट खिड़की पे मिलता है। बुढ़िया ने उत्तर दिया ना बेटा उसने कहा है कि आगे स्टेशन पे गाँव का टिकट मिलता है।फिर उसने पूछा- आगे का स्टेशन क्या ज्यादा दूर है ? चार घंटे हो गए, अब तक वो वापस नहीं आया है। अब युवक के मन में कुछ संदेह हुआ। उसने सहानुभूति भरे स्वर में पूछा तुम्हारा बेटा क्या करता है अम्मा, बुढ़िया बोली बहुत बड़ा बाबू है। अभी एक महीने से उसी के साथ तो रह रही थी। युवक ने पूछा तुम्हारा गाँव कहाँ है ? बुढ़िया बोली काफी दूर है। दो दिन लग गए थे यहाँ रेल से आने में। युवक ने फिर पूछा घर में और कौन-कौन हैं ? बुढ़िया बोली मैं, मेरा बेटा और बहू। ' वो ' तो रहे नहीं। हम काफी गरीब थे बेटा, बहुत मेहनत की है अपने बेटे को लिखाने-पढ़ाने में। फिर उस बुढ़िया ने पूछा तुमको कहाँ जाना है बेटा ? युवक ने कहा मैं यहीं नौकरी करता हूँ। छुट्टी में अपने गाँव जा रहा हूँ। बुढ़िया ने फिर कुछ चिंतित स्वर में कहा रात भी कितनी हो गई, देखो ना वो खाना भी यहीं मेरे ही पास रख गया है। पता नहीं, कितनी देर में आएगा भूख भी लग गई होगी उसको। उसने फिर युवक को कुछ खाने का सामान निकाल कर दिखाया। चार या पाँच रोटियां थी, लपेटी हुई और एक बंद डब्बे में थोड़ी सब्जी।

अब युवक की समझ में सारी बात आ गई। उसने बुढ़िया की तरफ दया भरी नज़रों से देखा, जो अपने बेटे के आने की राह देख रही थी। उस बेचारी को अब तक ये पता नहीं था कि उसका बेटा उसको इस भीड़ भरे अनजान जगह में छोड़कर भाग गया है। उस युवक के ट्रेन को आने में अभी भी करीब एक घंटा था। उसने उस बुढ़िया को कहा खाना खा लो अम्मा, रात के दस बज रहे हैं। बुढ़िया बोली नहीं बेटा, पहले दिवेश आ जाए। वो खा लेगा, फिर मैं भी खा लूँगी।

तभी गाड़ी की सीटी सुनाई पड़ी। बुढ़िया अपना बैग उठाकर फिर खड़ी हो गई। लोगों ने कहा कहाँ जा रही हो अम्मा, ये गाड़ी यहाँ नहीं रूकती है।

दिवेश,ओ बेटा, दिवेश अरे, रोको उसको, मगर शायद तब तक देर हो चुकी थी। लोग भाग कर आए। उस बुढ़िया का क्षत- विक्षत शरीर पटरी पर बिखरा पड़ा था। उसका सामान और वो खाना भी, जो उसने अपने कभी ना लौट कर आने वाले बेटे के लिये हिफाजत से रखा था। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे।

थोड़ी देर में उस युवक के ट्रेन के आने की घोषणा हो गई। गाड़ी रात के सन्नाटे को चीरती हुई तेजी से भागी जा रही थी। वो युवक चुपचाप अपने बर्थ पर बैठा हुआ था। डब्बे में कहीं 'मन्नाडे' का गया हुआ बहुत ही मशहूर गीत बज रहा था। " तुझे सूरज कहूँ या चँदा, तुझे दीप कहूँ या तारा।"


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