कर्तव्यपथ
कर्तव्यपथ
गाँव के एक किनारे बहुत ही पुराना सा मकान था वह । जीर्ण हो चुका कमरा , एक जीर्ण हो चुका बैठकखाना और कुछ पुराने से फर्नीचर , बस , कुल मिलाकर यही कुछ होंगे उसमें । मकान की दीवारें , फर्श और जर्जर हो चुकी छत अपनी कहानी खुद बयान करते थे ।
दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद थकाहारा महेसर अपने घर लौटा । उसकी पत्नी ने हाथ - पाँव धोने के लिये पानी लाकर रख दिया । महेसर ने कुल्ला करते हुए पूछा - और , आज भी गुड़िया का बुखार कम हुआ कि नहीं ? नहीं - उसकी पत्नी ने उत्तर दिया । गुड़िया उसकी इकलौती बच्ची थी , कुछ दिनों से उसे बुखार हो आया था । महेसर ने अपनी आमदनी के हिसाब से उसकी दवा आदि का प्रबन्ध कर दिया था । उसने अपनी पत्नी की ओर मुस्कुराते हुए देखा और बोला - कोई बात नहीं , दवा समय से देते रहो । डॉक्टर साहब ने कहा है , ठीक हो जाएगा ।
रात का खाना खा लेने के बाद आराम करते वक़्त महेसर की पत्नी ने उससे कहा - कुछ पूछूँ ? क्या पूछना है - महेसर ने कहा । उसकी पत्नी ने कुछ चिन्तित भाव से कहा - तुम कभी निराश नहीं होते , ऊबते नहीं हो हमारी इस जिंदगी से । ये टूटा सा घर , बेहद कम आमदनी , रोज - रोज की परेशानियाँ ,,,।महेसर बोला - हाँ , कभी - कभी मैं भी निराश होता हूँ । लगता है मानो बस , अब टूट ही जाऊँगा अन्दर से । मगर फिर अपने आप को समझता हूँ - मेरे हाथ - पाँव सलामत हैं , तुम्हारे जैसी समझदार जीवनसंगिनी है । आमदनी कम है तो क्या हुआ ।
सुबह मुँह- अँधेरे ही वह उठा । उसकी पत्नी उससे पहले ही जग चुकी थी । उसने अपनी सोती हुई बेटी के सर पर प्यार से हाथ फेरा और तैयार होने में लग गया । आखिर आज उसे फिर से जो जाना था , रोज की तरह ही , एक नई उम्मीद , एक नए हौसले के साथ - अपने " कर्तव्य - पथ " पर ।
