बेला का फूल
बेला का फूल
उस दिन मौसम खुशगवार था। मैं अपने छोटे से लॉन में टहल रही थी जिसके चारों ओर बेला के पौधे लगे हुए थे। बेला के फूलों की ख़ुशबू फैल रही थी। अप्रैल का महीना था ,फूलों से पौधे भरे हुए थे। मुझे याद आ रहा था कि जब हम छोटे थे कैसे इन फूलों के गजरे बनाया करते थे । कभी मंदिर में भगवान जी को गजरे चढ़ाते, कभी अपनी नई नई आयी भाभी की वेणी में गजरा सजाते, और वे ख़ुश होतीं।
इन्हीं यादों में खोई खोई उद्यान में टहलते टहलते मैं फूलों की सुंदरता और ख़ुशबू में डूबी थी कि मेरा मोबाइल बज उठा। जीजी का फ़ोन था । पूछा कहॉं हो , क्या कर रही हो?
मैंने कहा कि फूलों के बीच टहल रही हूँ। पूछा “कौन से फूल।”
मैं चहकी “अनगिनत बेला के फूल खिले हैं। पौधे फूलों से भर गए हैं।”
जवाब आया,” मेरे पास भी फूल भिजवा दो”
उन्होंने ऐसे ही हँसी में कहा था और मैं इतनी दूर से फूल भिजवा भी कैसे सकती थी। फिर भी मैंने कहा,” ठीक है ,’आपके लिए कुछ पौधों की कटिंग भेजूंगी, उन्हें लगवा लेना।” बात आयी गयी हो गयी।
कुछ दिनों बाद मौक़ा आ ही गया। एक व्यक्ति का उस समय घर जाना हुआ, तो उसके हाथ मैंने जीजी के लिए फूलों की पाँच - छह टहनियॉं जो रोपकर तैयार की थीं, भिजवा दीं। और कहा कि कुछ आप रख लेना, कुछ मॉं के लिए छोड़ देना। इन्हें रोप देने के बाद इनमें से फूल निकलेंगे।
जीजी जब गईं कुछ टहनी अपने साथ लेती गईं, कुछ मॉं के लिए छोड़ गईं। जीजी ने टहनियों को अपने यहॉं रोप लिया, इधर माँ ने भी गमले में दो तीन टहनी लगवा लीं।
मॉं ने जो टहनी लगवाई थी उसमें बेला का एक सुन्दर सा फूल खिला। देखकर माँ ख़ुश हुईं। बोलीं, ”पहला फूल है, मैं भगवान जी को चढ़ाऊँगी“ वे फूल तोड़ना चाहती थीं, पर भाभी जी ने मना किया। और बोलीं कि अभी मत तोड़िये, और फूल आने दीजिए, यह पहला फूल खिला है। मॉं ने कुछ नहीं कहा चुपचाप चली गईं।
फिर ऐसा हुआ कि कुछ बंदर आए, एक बंदर नीचे उतरा और वह फूल तोड़कर चला गया।
कुछ दिन बाद जब मैं घर गई तो मुझे सारी बात पता चली। भाभी जी ने स्वयं बताया कि अम्माजी को फूल तोड़ने से मना किया था, पर बंदर ने वह फूल तोड़ डाला, शायद उसने कोई खाने की चीज़ समझी थी, ऐसे ही तहत नहस कर दिया। इससे अच्छा तो फूल तोड़ने देती, भगवान जी को अर्पित हो जाता।
बात आयी गयी हो गई। पर मेरे मन में कसक रह गई, बड़ों की बात काटनी नहीं चाहिए। उनकी छोटी सी भी इच्छा पूरी नहीं होने दी। साधारण सी बात थी पर कितना कुछ सिखा गयी।
समय बीत गया। एक बार जीजी के यहॉं जाना हुआ। अप्रैल का महीना था, बेला के छोटे छोटे पौधे लगे थे। पर अभी कलियॉं नहीं आयी थीं। जब मैं वहाँ से चलने वाली थी तो देखा एक पौधे में नन्हा सा बेला का फूल खिला। सुन्दर फूल पत्तों के बीच खिल खिल कर रहा था। मैं वह सौंदर्य देखती रह गई।
मुझे वह पहले की घटना स्मरण हो आई। अकेला फूल तब खिला था, जो माँ भगवानजी पर चढ़ाना चाहती थीं। बाद में वह फूल न पेड़ का रहा न मंदिर का। बंदर ने आकर सब उखाड़ डाला।
वह कोमल सद्य खिला फूल मैं तोड़ना नहीं चाहती थी। अब न मॉं थीं न भाभीजी थीं, केवल वे बातें मेरे स्मृति पटल में थीं।
मॉं की याद में मैंने वह पुष्प धीरे से तोड़ लिया और जाकर भगवान जी की मूर्ति पर चढ़ा दिया। मॉं जहाँ कहीं हों देख लें, उनकी इच्छा कुछ तो पूरी हुई।
दूसरे दिन देखा उस पौधे में बहुत सी नन्ही कलियाँ फूट गईं और दिन चढ़ते चढ़ते ही कुछ फूल और खिल गए। लगता था कि भगवान ने वह फूल का समर्पण स्वीकार कर लिया। ईश्वर भावना देखते हैं कर्म नहीं।