बेबे का आंचल
बेबे का आंचल
सुबह का भूला
यूं ही चले आऐ हैं,
हम उन राहों को छोड़ आए
कभी बेबे की पुकार, कभी दाजी
की डांट, कभी छोटे भाई का लाड,
कभी बहना की मदद मांगती गुहार,
हम उन राहों को छोड़ आए।
हम छोड आए, अपने पीछे,
हसीन रिश्तों का ताना-बाना,
10 साल पहले कबीर अपने घर से बहुत ही छोटी सी बात पर गुस्सा हो कर घर छोड़ कर निकल गया था। घर वालों ने बहुत ढ़ूढ़ा पर कबीर नहीं मिला, कबीर को कई परेशानियां आई उसने सड़क किनारे की टपरी के ढ़ाबों पर सफाई का काम किया, किसी ने काम दिया , किसी ने दुत्कार दिया मगर ऐसे मुश्किल हालात ने कबीर को बहुत मेहनती बना दिया जो भी करता बडे़ दिल से काम को अंजाम देता। पूना शहर को उसने अपना ठिकाना बना लिया, वहाँ के काफ़ी हाउस में परमानेन्ट ली काम करने लगा, वो एकाउंट्स का काम देखने लगा ,उसकी मेहनत से काफ़ी हाऊस बहुत तरक्की करने लगा, काफ़ी हाऊस में ही रंगमंच के लोगों से कबीर की मुलाकात हुई वो उनके साथ थिएटर की बारीकियाँ सीखने लगा।
काम के साथ बचे हुए वक़्त में वह एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गया रंगमंच के कलाकारों के साथ जुड़ कर वो एक अच्छा रंगमंच का कलाकार बन गया। उनके जगह-जगह नाटकों का मंचन होते, एक बार कबीर का ग्रुप ऊंचाइयों पर था।
एक नाटक की प्रस्तुति के लिए उस शहर में गए, जहाँ का कबीर रहने वाला था। उसको अपने घर की याद सताने लगी, उसको बचपन की यादें ताजा हो गई, वो भाई-बहन, बेबे का दुलार, बेबे के आंचल की ख़ुशबू,बाबा की डांट, समझाईश यादें ताजा होने से बार-बार आंखें नम हो रही थी, कबीर की दोस्त सोहनी ये सब जानती थी, उस हालात को जान कर ,वो कबीर से कहती है.... !
नाटक का मंचन हो जाए हम दोनों चल कर, तुम्हारे घर के लोगों को तलाश करतें हैं, कबीर झिझकता है तो सोहनी कबीर को कहती सुबह का भुला लोट आए तो उसे भूला नहीं कहते।