बड़ी बहू
बड़ी बहू
सबसे बड़े बेटे की बहू होनें के कारण उन्हे घर में बड़ी बहू का दर्जा प्राप्त था। सर पर पल्लू और पल्लू के कोने में बँधा चाभी का गुच्छा जो कन्धे पर पड़ा रहता था। होंठों पर पान की सदा रहनें वाली लाली, माँग में दमकता सिंदूर और माथे पर सिन्दूर की ही बड़ी सी लाल बिन्दिया, उनके देदीप्यमान स्वरूप की पहचान थी। देवर और नन्द पर तो वह सौ-सौ बार बलिहारी ऐसी प्यारी भाभी थी। उनको कुछ चाहिये होता और माँ से बात नहीं बनती तो भाभी से कह कर मन का करा लेते। समय गुज़रा एक दिन घर में शंखध्वनि के साथ छोटी बहू ने घर में कदम रखा सबने मिल कर उसका स्वागत किया।
छोटी बहू नें माँ के दिये संस्कारों के चलते बड़ी बहू को बड़ी बहन का दर्जा देते हुये हर कार्य में उसका साथ देने की कोशिश करनें लगी। अब सब बड़ी के साथ घर में छोटी बहू की भी तारीफ करनें लगे। पर इससे बड़ी बहू को लगनें लगा कि उसकी सत्ता में तो सेंधमारी हो गयी और वह छोटी से ईर्ष्या भाव रखनें लगी।
कहतें हैं जहाँ ईर्ष्या द्वेष का वास होता वहाँ कुमति के प्रवेश को कोई रोक नहीं सकता। जिस घर में पहले शान्ति का वास था अब वहाँ हर पल मन मुटाव पलनें लगा जहाँ एक चूल्हे पर सारा भोजन प्रेम से पकता था वहीँ दो चूल्हे होने पर भी अशान्ति की वजह से भूखे रहनें की नौबत आने लगी।