अख़लाक़ अहमद ज़ई

Fantasy

4.5  

अख़लाक़ अहमद ज़ई

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बड़ा पेट

बड़ा पेट

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आज ही एक नयी फिल्म रिलीज होकर सीधे राजे टाकीज में लगी थी। टिकट घर की खिड़की खुलने से पहले ही टिकट ख़त्म हो गया और बाहर " हाऊस फुल " का बोर्ड लग गया। 

 दर्शकों को फिल्म देखनी थी इसलिए सिनेमा हॉल के बाहर पान की ढाबलियों, चाट या मूंगफली के ठेलों से टेक लगाये, बीड़ी सुटकाते व्यक्तियों से पांच का टिकट पचास रुपये में खरीदने लगे। तभी एक दरोगा आ पहुंचा और उसने पान की ढाबली से टेक लगाये व्यक्ति को टिकट ब्लैक करते देख लिया। इंस्पेक्टर की भृकुंडियां तन गयीं। 

"इन्हीं स्सालों ने तो देश को बेचकर खा लिया, बर्बाद कर दिया है, भिखमंगा बना दिया है और अब भी मुनाफ़ाख़ोरी, चोरबाज़ारी, कालाबाज़ारी से बाज़ नहीं आते।…. इन स्सालों का कितना बड़ा पेट हो गया है?…… आज मैं एक-एक का तोंद फोड़कर ही दम लूंगा।" और वह ग़ुस्से से आगबबूला, सोंटा ताने पान की ढाबली के पास पहुंच गया। 

 " क्यों बे, टिकट ब्लैक करता है? "

 उस आदमी ने नज़र उठाकर इंस्पेक्टर को देखा। देखते ही उसकी त्यौरियां चढ़ गयीं। 

" अभी सुबह ही पांच सौ रुपये फ्लां इंस्पेक्टर को देकर आया हूं। उसमें तुम्हारा भी तो हिस्सा है! …… तुम लोगों का न मालूम कितना बड़ा पेट है। अभी पूरा दिन भी नहीं बीता और पहुँच गये जेब गरम करने।" 

इंस्पेक्टर का ग़ुस्सा काफूर हो गया और पूरा चेहरा खिसयानी हंसी में डूब गया। 

" अच्छा…. अच्छा। " और वह जल्दी से मुड़कर गरीब देश की अर्थव्यवस्था का भाषण झाड़ने दूसरे के पास चला गया। 

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