Aarti Ayachit

Inspirational

5.0  

Aarti Ayachit

Inspirational

बचपन की सखी सिखा गई पाठ

बचपन की सखी सिखा गई पाठ

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हम लोग बचपन में सब एक ही ब्‍लॉक में रहते थे, बिल्‍कूल एक परिवार की तरह और छोटे बच्‍चों को तो पड़ोसी लगते ही नहीं थें, ऐसा लगता मानो घर के सदस्‍य ही है। आज भी इस चीज का मन में अहसास है मुझे और आजकल इसी का अभाव भी देखा जा रहा है। प्राय: देखा जा रहा है कि रिश्‍तेदार ही अब अपने ना रहे, फिर पड़ोसी। “अभी भी वहॉं रहनेवाली सखियाँ मिलती हैं, तो हम अपने बचपन को बहुत याद करते हुए सोचते हैं कि काश वह वापिस आ जाए।"

इन्‍हीं सब बचपन की वादियों को याद करते-करते अक्‍सर याद आ जाते हैं, ऐसे लोग जो भले ही बहुत कम समय के लिये ही मिले हो, "लेकिन उनकी आत्‍मीयता दिल पर ऐसी गहन छाप छोड़ती है कि हम उनको भुलाए नहीं भूल सकते दोस्‍तों।"

 

मैं कक्षा छटवी में पढ़ रही थी दोस्‍तों, तब वह चंचल खुशमिजाज लड़की हमारी कॉलोनी में नयी-नयी आई, नाम था उसका सुषमा। उसके चाचा-चाची के यहां पढ़ने आई थी वो, मूलताई की रहने वाली, माता-पिता उसके वही रहते। उन्‍होंने सोचा, शहर जाएगी सुषमा अच्‍छा पढ़ लिख जाएगी। उसके चाचाजी एम.पी.ई.बी. में कनिष्‍ठ अभियंता के पद पर कार्यरत थे, पर मिलनसार इतने कि पूछो मत। जी हॉं आजकल तो हम इसका अभाव महसूस करते हैं। बचपन की वो मसखरी भरी शरारतें बस हमारी यादों में समाकर रह गयीं है, ऐसी ही कुछ अलग ही स्‍वभाव की थी, सुषमा और मुझे लगा ही नहीं था कि पहली मुलाकात में ही हम लोग इतने घुल-मिल जाएंगे ।

 मैं रोजाना की ही तरह स्‍कूल जाने की तैयारी कर रही थी कि चहल कदमी करते हुए आयी, और जी हाँ दोस्‍तों वो आती न, तो पूरे ब्‍लॉक में तहलका मच जाता, हँसती-खिलखिलाती छुई-मुई बन आई मेरे घर। “मॉं से तपाक से बोली आंटी जी मेरी टिफिन भी साथ ही में पैक कर देना और मुझे भी तभी मालूम चला कि मेरे ही स्‍कूल में उसे प्रवेश मिला है।" मोहल्‍ले में किसी से जान-पहचान नहीं थी उसकी ज्‍यादा और उनके गाँव में ऐसा माहौल था नहीं सो हम एक ही स्‍कूल में होने के कारण मुझसे दोस्‍ती बढ़ाना चाहती थी क्योंकि "बहुत दिनों बाद उसे कोई बराबरी का साथी जो मिला था।"

 

फिर क्‍या था दोस्‍तों, शुरू हो चला दोस्‍ती का कारवां, रोजाना साथ स्‍कूल जाना, साथ में पढ़ाई करना, घूमने जाना, खेलने जाना इत्‍यादि ।

और “ऐसी दोस्‍ती हो गई दोस्‍तों कि एक दिन मिले बगैर रह नहीं पाते।" एक दिन हमारे भोपाल में हो रही थी, झमाझम बारिश और ऐसी बारिश कि आज हम वैसी बारिश को तरस रहे हैं। “जी हाँ दोस्‍तों बारिश के मौसम का कुछ अंदाज़ ही निराला होता है, और ऐसे में जब अपेक्षा से ज्‍यादा बारिश हो जाती थी, तो भदभदा के सारे गेट खुल जाते, और उस सौंदर्यपूर्ण नजारे को देखने का आकर्षण ही अलग था।"

 “पहले के जमाने में इतने संसाधन उपलब्‍ध नहीं थे और पापाजी की अकेले की कमाई में ही गुजारा होता घर का, साथ ही हम दो बहनों की पढ़ाई-लिखाई भी।" पापा चलाते थे केवल साईकल, और हम ऐसे झमाझम बारिश में बाहर जाने का सोच भी नहीं सकते थे। “इतने में सुषमा दौड़ी-दौड़ी आई और माँ से कहने लगी, आंटी जी आप सब लोग चलो न, मेरे साथ, अब हम लोग एकदम से हक्‍के-बक्‍के रह गए कि इतनी बारिश में कहॉं बोल रही है, चलने को ?” फिर वह बोली, अरे भाई इतना सोचने की जरूरत नहीं है, मेरे चाचाजी के विद्युत ऑफीस की गाड़ी आई है और हम भदभदा का नजारा देखने चलेंगे। जी हॉं सोचने तक को समय भी ना दिया उसने और हम सब चल दिये, बाहरी मौसम का नजारा साथ-साथ भदभदा का नजारा। कैसा लगे साथियों कि आपने कोई योजना नहीं बनाई हो और आपका खास दोस्‍त आपके मन की बात जानता हो, वह एकदम से आकर कहे कि मौसम का लुत्‍फ उठाना है तो दिन बन जाता है ।

“फिर उस दिन मस्‍त नजारों का आनंद उठाया हम सबने, साथ ही साथ उसके चाचा-चाची से पहचान भी बढ़ी।" माँ मेरी हमेशा की ही तरह भोजन की चिंता करने लगी, इतने में सुषमा बोली "अरे आंटीजी अपन बाहर घूमने आए हैं तो यह सब फिक्र नहीं करने का क्‍या ? मौज-मस्‍ती करने का साथ में", उस दिन हम सबने मिलकर एक रेस्‍टॉरेंट में खाना खाया और ऐसे सरप्राईज खाना साथ में खाने का मजा ही कुछ और है दोस्‍तों ।

और तो और उस सरप्राईज खाने के साथ ही साथ सरप्राईज गिफ्ट भी, वह गिफ्ट जानकर आप हैरान जरूर होंगे, उस समय हम भी हो गए थे। मन ही मन मैं सोचा कि क्‍या लड़की है सुषमा, माता-पिता के बिना भी चाचा-चाची के साथ ही एकदम खुश, ख्‍यालों में खोई हुई थी मैं कि वह बोली, हम सब नाटिका देखने जा रहे हैं। माँ ने कहा "अरे ऐसे कैसे जा सकते हैं हम लोग, पहले से कुछ मालूम नहीं" तपाक से बोली सुषमा, सभी लोग सुन लो रे, एम.पी.ई.बी. (विद्युत) को 25 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में कुछ कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और चाचाजी को पास मिले हैं, तो हमने सोचा क्‍यों न यह खुशी का अवसर आपके साथ बिताया जाए। पलछिन-पलछिन समय हो चला था, “नाटिका का, नाम था संय्या भये कोतवाल और उसमें मुख्‍य रूप से अभिनय कर रहे थे, महान गायक, फिल्‍म कलाकार एवं स्‍टेज संचालक श्री रघुवीर यादव जी।" "उनके इस नाटक को देखकर महान अभिनय की मेरे अंतःकरण तक छाप पड़ी।"

 

“श्री रघुवीर यादव जी जबलपुर-मध्‍यप्रदेश के निवासी हैं, जिन्‍होंने राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय से डिग्री प्राप्त  कर ख्‍याति हासिल की है और मुंगेरीलाल के हसीन सपने में भी भूमिका निभाई।" फिल्‍म लगान, मेस्‍सी साहब, वाटर, सलाम मुबंई आदि। इनका एक गाना जो काफी फेमस हुआ, वह है महंगाई डायन खाये जात है। यह प्रथम भारतीय नायक हैं, जिन्‍हें सिल्‍वर पिकॉक बेस्‍ट एक्‍टर अवार्ड मिला। इस महान कलाकर को सदा ही हमारा नमन है।

आप लोग सोच रहे होंगे शायद, यह सब मैं आपको क्‍यों बता रहीं हूँ, जी हॉं दोस्‍तों सुषमा जैसे दोस्‍त मिलते हैं और मिलते रहेंगे और मालूम है, वह ज्‍यादा दिन रही नहीं अपने चाचा के पास, “पर एक सबक जरूर सिखा गई कि जिंदगी में जहां भी रहो खुश होकर जीयो”, हर तरफ फूलों सी खुशियॉं बिखेरो और जिस समय जो मौका जिंदगी आपको दे रही है, उस मौके का लुत्‍फ उठाओ, उसको हाथ से जाने मत दो। “मेरी यादों के बसेरे में एक बात अवश्‍य ही जुड़ गई दोस्‍तों, जिंदगी जीने का नाम है, मुर्दादिल क्‍या खाक जिया करते हैं।" जी हॉं दोस्‍तों हर हाल में जीने की आदत डालनी चाहिए।

और रघुवीर यादव जी का जिक्र मैने इसलिये किया कि उस दिन से हम उन्‍हें जानने लगे, उस दिन न ही सुषमा आती और न ही हम उनको जान पाते और तब से उनसे ही प्रेरित होकर कवि सम्‍मेलन, नाटक मंचन देखने हम लोग जाने लगे और जिंदगी जीने के लिये कुछ न कुछ शौक तो होना ही चाहिए, यह सबक सिखा गई हमें सुषमा ।

 “उस दिन के बाद मेरे जीवन जीने का नजरिया ही बदल गया और पढ़ाई-लिखाई के साथ ही साथ कविताएं, कहानियां, नाटक बगैरह में रूचि जागृत हो गई।"

 “और हॉं साथियों जिंदगी में कभी भी कोई बात जो आपके मन को प्रभावित करती है, वह यादों के रूप में समायी रहती है, जिनके सहारे हम जिंदगी की तमाम कठिनाईयों को सफलतापूर्वक पार कर जाते हैं।" “ सुषमा ने इतने कम समय में मेरे दिल में वो जगह बनाई, जिसे मैं आज भी तहेदिल से याद करती हूं।" “ गर दिल में जज्‍बा हो कुछ कर गुजरने का तो आप देखिएगा, हम क्‍या से क्‍या कर सकते हैं, बस हौसला रखिए और आगे बढ़िए।"

 


 

 

 

 

 



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