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Prabodh Govil

Comedy

4  

Prabodh Govil

Comedy

बैंगन - 3

बैंगन - 3

3 mins
374

( 3 )

महिला के भीतर जाते ही मैं भाई पर लगभग बिफर ही पड़ा। भाई चुपचाप मुंह नीचे किए मेरी गुस्से में कही गई बात सुनता रहा।मैंने कहा- "वहां जाकर ये दूसरी शादी कर ली और यहां किसी को भनक तक नहीं लगने दी। भाभी और बच्चे कहां हैं? कहां छोड़ा उन्हें? ऐसे प्यारे - प्यारे बच्चे आख़िर किस बात की सज़ा पा रहे हैं? और वो हैं कहां?"

भाई उसी तरह सिर झुकाए बोला- "चाय पीकर फ्रेश हो ले... फ़िर सब बताऊंगा तुझे आराम से, इसीलिए तो बुलाया है तुझे!"

मैं गुस्से से तमतमा उठा। लगभग चीख कर बोला- "नहीं पीनी है चाय मुझे। मैं अभी की अभी वापस जा रहा हूं।"

भाई ने निरीहता से मुझे देखा, फ़िर धीरे से बोला- "मेरी बात तो सुनले पूरी। फ़िर अगर तुझे लगे कि गलती मेरी है तो चला जाना.. "

मैं कुछ संयत हुआ और कंपकंपाते हाथों से चाय का कप उठा लिया।बुझे मन से मैं नहा कर तैयार होकर जब वापस ड्राइंग रूम में आया तो भाई ऐसे बैठा था मानो कुछ हुआ ही न हो। मुझे देखते ही बोला- "चल, तुझे घर दिखा दूं।"

मैं सिर झुकाए उसके पीछे पीछे चल पड़ा।भीतर के कमरे में अब उस महिला को देख कर मैं शर्मिंदगी महसूस कर रहा था कि मैंने चाय लाते वक़्त उसके नमस्कार का जवाब तक नहीं दिया था।मैंने फ़िर से अब ख़ुद उसे नमस्ते की। यद्यपि अभी तक मुझे ये नहीं मालूम पड़ा था कि मेरे बड़े भाई ने किन हालात के मद्देनजर अपने हंसते- खेलते परिवार को दर बदर करके ये दूसरी शादी कर ली थी।गुस्सा शांत हो जाने के बाद मैं भाई के साथ उसका नया शानदार घर और उसके साथ ही लगा बड़ा सा शोरूम देखने चल पड़ा था।जो होना था वो तो हो ही चुका था। अब तो केवल मुझे अपने भाई से उसकी राम कहानी ही सुननी थी। इसलिए मैं भी अपना उतावलापन छोड़ कर भाई के साथ चल पड़ा था।

एक कमरे से दूसरे में जाते हुए मैं यही सोचता रहा कि जब बच्चे यहां से चले ही गए तो अब ये मियां बीवी इतने बड़े मकान का करेंगे क्या?मैं रह- रह कर बच्चों को याद कर रहा था। बड़े प्यारे बच्चे थे, न जाने अब कहां होंगे, कैसे होंगे!तभी भाई की आवाज़ आई- आ तुझे बिल्डिंग मैटेरियल का अपना शोरूम भी दिखा दूं, पीछे ही है, पीछे मेन रोड है।

हम पीछे वाले गलियारे से निकल कर चल पड़े।सचमुच मकान और शोरूम बड़ा भव्य था। शोरूम के शीशे के दरवाजे को ठेलकर जब हम अंदर दाखिल हुए तो मैं भीतर की भव्यता देख कर दंग रह गया। सचमुच विदेश जाकर चार साल में भाई कोई कारूं का खज़ाना ही कमा लाया था जो इतना आलीशान मकान ख़रीद लिया।मेरी आंखों की चमक देख कर भाई को भी गर्व हो रहा था।पर मेरा मन अब भी रह रह कर भीतर से मुझे कचोटता था- क्या फ़ायदा ऐसी दौलत का? जब अपने फूल से बच्चे ही अपने साथ न रहें। अब मुझे बेचैनी सी हो रही थी कि जल्दी से हम कमरे में लौटें और भाई मुझे पूरी बात बताए।

शोरूम से निकल कर हम वापस घर आ गए।तब तक डायनिंग टेबल पर खाना लग चुका था। चाय लाने वाली महिला, मेरी नई भाभी रसोई के भीतर से जगमगाती हुई क्रॉकरी ला लाकर सजाती जा रही थी।टेबल देख कर मैंने धीरे से भाई से कहा- "किसी मेहमान को खाने पर बुलाया है क्या? इतनी प्लेटें किसके लिए?"

मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि पोर्च में एक कार के रुकने की आवाज़ आई।तभी दौड़ते हुए मेरे भतीजा- भतीजी भीतर आए , और मुझसे लिपट गए। दोनों एक साथ बोले- "नमस्ते चाचू!"

मैं हैरान रह गया। पीछे पीछे भाभी जी भी कार की चाबी घुमाती चली आ रही थीं।आते ही बोलीं- "नए घर में स्वागत भाईसाहब !"

मेरा भाई अब भी नीचे मुंह किए मुस्करा रहा था।



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