बालमन का हठ

बालमन का हठ

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सर्वप्रथम बालमनोविज्ञान की मेरी कविता में परिभाषा:-

चलो चलायें एक अभियान ।

नवगुणों से सबका हो कल्याण

हुई थी जिस प्रकार शिक्षकों की शिक्षा।

बाल मन को समझने की सुन्दर दीक्षा।।

सोचता क्या है एक बालक।

है चाहता क्या एक बालक।।

था लिया शिक्षकों ने इसका प्रशिक्षण।

करने को उनका सुन्दर मार्गदर्शन।

अब प्रस्तुत है मेरी एक सुंदर व प्रेरणादायिनी कहानी:-

एक बार की बात है किसी "सदाबहार" नाम के गाँव में एक बालक रहता था, जिसका नाम प्रसन्नमुख था। वह गाँव अपने नाम के अनुरूप ही सर्वदा खुश हाल रहने वाला गाँव था। वहाँ विभिन्न धर्मों के लोग रहते थे, परन्तु उनमें तनिक भी भेदभाव या वैमनस्यता नहीं थी। बड़ा ही अद्भुत गाँव था वह।


एक बार की बात है प्रसन्नचित्त के माता-पिता उसकी एक ज़िद से बहुत परेशान हो गए कि वह अध्ययन करने के लिए विद्यालय तो अवश्य जाएगा, परन्तु घर पर उसको अध्ययन कराने के लिए चार विशेष गुरू आएंगे।

मित्रों क्या आप बता सकते हैं कि किनसे सीखना चाहता था वह ?? क्या आप अनुमान लगा सकते हैं, नहीं कोई बात नहीं मैं बतलाता हूँ। वह अपने नाम के अनुरूप प्रसन्न चित यानि सर्वदा प्रसन्न ही रहता था, परन्तु वह अपने अध्ययन को पूर्ण करने के लिए चिन्तित था और उसकी चिन्ता से चिन्तित थे उसके घरवाले। होने का कारण भी गंभीर था क्योंकि प्रसन्नचित्त जिनसे पढ़ना चाहता था वो कोई इन्सान नहीं सर्वशक्तिमान थे।


लोग....परेशान थे कि उनके इस लाडले की परेशानी कैसे दूर हो क्योंकि इन्सान की बात होती तो उपाय हो सकता था पर सर्वशक्तिमान जिन्हें हम गाॅड, अल्लाह, नानक जी और भगवान के नाम से जानते हैं।


इस तरह से तीन दिन बीत गए और प्रसन्नचित्त ने न खाया न पीया। उसकी हालत देखकर घरवाले तो चिन्तित तो थे ही, साथ ही पूरा गाँव भी चिन्तित था। उस गाँव का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी समुदाय का हो हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या ईसाइ। सभी अपने गाँव के इस प्यारे बच्चे के लिए परेशान थे। कोई अल्लाह की इबादत करके उसके लिए उन्हें मनाने में लगा था, कोई ईश्वर से दर्शन के लिए प्रार्थना कर रहा था ताकि अपने इस बेटे के कष्ट का निवारण करवाया जाय, तो कोई गाॅड को पुकार रहा था, तो कहीं कोई अरदास कर रहा था। कहीं शंख बज रहे थे, कहीं अजान दी जा रही थी, कहीं गुरूवाणी गाए जा रहे थे। सारा सदाबहार गाँव कुरान-ऐ-पाक, गीता, गुरू ग्रन्थ साहिब और बाईबल के सम्मिलीत स्वर से गुँजायमान था। ऐसा लग रहा था मानो चार बेटे अपने रूठे पिता को अपने-अपने ढँग और सामर्थय से सम्मिलीत रूप से लौटाकर घर लाने का प्रयत्न कर रहे हों और वो करते भी क्यों न उनके लाडले बेटे प्रसन्नचित्त के चित्त को प्रसन्न करने का विषय था यह।

और .....ईश्वर का कोई भी रूप प्रसन्न न हो ऐसा भला कैसे हो। फिर हुआ एक ऐतिहासिक चमत्कार ,आ गए हमारे सर्वशक्तिमान सम्मिलीत रूप से और आकर वो अपने यथोचित्त भक्तों से भेंटकर अपने को पुकारने का मूल कारण जान गए। यहाँ पाठकों कि जिज्ञासा हो सकती है कि सर्वशक्तिमान तो सर्वव्यापी हैं, सबकुछ जानते हैं तो भी उन्होंने जानने की इच्छा क्यों रखी।तो सम्भवतः मेरा जवाब यह होगा कि वो अपने भक्तों के मुँह से सुनना चाहते हैं और इसमें उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है।

अतएव वे सभी जानकर मिलने चल पड़े अपने इस भक्त से मिलने जिसने इनको अपने भाव से बाँधकर भूखा कर दिया था, वहाँ प्रसन्नचित्त के पास जाते ही उन्होंने उससे पूछा कि बताओ बच्चे क्या पढ़ना चाओगे तुम और किससे ??। उसकी जवाब से ये सर्वशक्तिमान भी चकित रह गए, क्योंकि उसने इच्छा ही बड़ी विचित्र रखी थी....


उसने कहा कि आप सभी सम्मिलीत रूप से मुझे पढ़ा दें। कुछ पल को सर्वशक्तिमान भी चकित रह गए,पर प्रसन्नचित्त ने उनकी परेशानी ये कह समाप्त कर दी कि मुझे आप स्वरूचि से दुनिया की वो किताब पढ़ा दें जो, मुझे एक सच्चा और अच्छा इन्सान बना दे। मुझे जाति-पाति के गणित पर आधारित गणित नहीं सीखनी, वो पशु-पक्षी को चोट पहुँचाने वाले शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देने वाला विज्ञान न सीखना। न ही मुझे वो व्याकरण ही सीखना जो मनुष्य को वैमनस्यता का पाठ पढ़ाये। मुझे वो चित्र बनाने न सीखनी है जो महिलाओं के अपमान से सम्बन्धित हो और न ही मुझे वो मुद्रा ज्ञान ही चाहिए जो लोगों को एक दायरे में बाँट दे। आप सभी तो सम्मिलीत रूप से मुझे शाश्वत प्रेम की शिक्षा दें बस....

ये सुन सर्वशक्तिमान ने उसे पूरी तन्मयता से उसे उसके मनोरूप शिक्षा देकर सम्मिलीत रूप से आशीर्वाद दे उससे विदा ली।

शायद आज हमें ऐसी ही शिक्षा की आवश्यकता है मित्रों...



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