बाबा मैं भी बरगद का पेड़
बाबा मैं भी बरगद का पेड़
ज़िम्मेदारियों ने समय से पहले ही रिया को बड़ा बना दिया था।
बचपन से ही रिया को बरगद का पेड़ बड़ा डरावना सा लगता। उसे उसके पास से गुजरते हुए लगता उसकी ज़डें उसे अपने में लपेट लेंगी इसलिए वह हमेशा बरगद के पास से गुजरते हुए एक हाथ की दूरी बनाकर ही चलती थी।
कई बार ज़ब उससे गोविंदजी पूछते कि,
"बिटिया तुम बरगद के पेड़ से इतना डरती क्यों हो?"तो रिया कहती...
"बाबा! मुझे बरगद की बड़ी बड़ी जटाओं से बड़ा डर लगता है। ऐसा लगता है ये मुझे पकड़ लेंगी फिर मुझे अपनी जड़ों में जकड़कर कभी नहीं छोडेंगी!"
बाबा समझाते हुए कहते,"बेटा! ये बरगद के पेड़ की खासियत है कि अपनी जड़ों को कभी ना तो छोड़ता है और ना ही कमज़ोर होने देता है बल्कि अपनी शीतल और घनेरी छाया से सबको धूप, बताश और मेघ की बूंदो से बचाता है। आसान नहीं है बरगद का पेड़ बनना।
स्त्रियां अक्सर सदा सुहागन रहने के लिए इसकी पूजा करके आशीर्वाद लेती हैं!"फिर बाबा यानि गोविंदजी रिया के सर पर हाथ फेरते हुए कहते,
"रिया बेटा! ज़ब जडें मज़बूत होती है तो कोई भी आँधी बरगद के विशालकाय पेड़ का कुछ नहीं बिगाड़ सकती!"रिया बड़े ध्यान से बाबा की बात सुनती पर बरगद की जटाओं का डर उसके मन से जाता ही नहीं था।
एक बार उसने छोटी बहन प्रिया को कहा भी था ज़ब वह अपनी पढ़ाई कर रही थी।
"दिस बरगद ट्री इज वेरी डेंज़र, मुझे तो इसके पास से गुजरते हुए बहुत डर लगता है!"
तब इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाली प्रिया ने उसकी गलती सुधारते हुए कहा था,
डेंज़र नहीं स्केरी कहते हैं और बरगद को बनियान ट्री समझी। दीदी तुम इंग्लिश की तो टांग तोड़ देती हो "
बोलते हुए प्रिया हँसी तो समर ने भी उसका खूब साथ दिया। सिर्फ नन्हा गुड्डू खामोश होकर अपना होमवर्क करता रहा। उसकी प्यारी रिया दीदी पर कोई हँसे यह उसे बिल्कुल पसंद नहीं आता था। पर वह अभी छोटा था इसलिए इनसे पंगा नहीं ले सकता था। इसके अलावा वो तीनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए इनका साथ ना देने पर हो सकता है वो लोग उसे स्कूल बस से उतरकर घर आनेवाले बड़े पार्क के रास्ते में अकेले छोड़ देते जहाँ कुत्तों के दौड़ाने से गुड्डू बहुत डर जाता था। इसलिए चुप रहकर सोचने लगा कि ऐसा क्या बोले कि सब दीदी को और ना चिढ़ाएं।
"मेरी पेंसिल की नोंक बार बार टूट रही है। कृपया कोई एक्स्ट्रा पेंसिल दे दो। बदले में प्रिया ने अपने स्टॉक में से एक पेंसिल दिया और साथ ही सबका ध्यान रिया पर से हट गया। यही टी गुड्डू चाहता था।
गोविंदजी के चार बच्चों में रिया सबसे बड़ी थी और समझदार भी। बिन माँ की इस बच्ची ने जबसे होश संभाला तबसे ज़िम्मेदारी ही तो देखी है। उस पर भी ना जाने कैसा जिगर था रिया का कि सबके ताने सुनकर भी हँसती मुस्कुराती रहती और दौड़ दौड़कर सबके काम किया करती थी।
रिया के जन्म के कुछ घंटो बाद ज़ब गर्भावस्था में कुछ गड़बड़ी और जन्म के समय अत्यधिक रक्तश्राव की वजह से डॉक्टर रिया की माँ माधुरी को नहीं बचा पाए तो गोविंदजी के सामने सबसे बड़ी समस्या दूधमूँही बच्ची रिया के पालन पोषण की आ पड़ी।
अस्पताल से घर लाते ही तेरहवीं तक तो माधुरी की माँ ने रिया को संभाला फिर उनको भी जाना पड़ा आखिर उनकी अपनी गृहस्थी थी।गोविंदजी के माता पिता का तो पहले ही देहांत हो चुका था।कुछ दिन रिश्ते की एक बुआ आकर रहीं।उन्होंने ही पुष्पा का नाम सुझाया था। गरीब घर की तेज़ तर्रार पुष्पा ने शादी के बाद से ही गोविंदजी और पूरे घर की सम्पति पर अपने शिकंज़े कस लिए थे।
उस वक़्त गोविंदजी की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी।ऊपर से पहली पत्नी माधुरी को वह बहुत प्यार करते थे सो उसके जाने के बाद एकदम विक्षिप्त से हो गए थे जिसकाअसर उनकी सेहत पर भी पड़ रहा था।
गोविंदजी एक सरकारी स्कूल में पी. टी. टीचर थे। वैसे उनकी तनख्वाह एक माध्यमवर्गीय परिवार को चलाने के लिए बहुत ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं थी। पर पुष्पा की फिज़ूलखर्ची और अनाप शनाप खर्चे की वजह से घर का खर्च चलाने के लिए गोविंदजी को अतिरिक्त काम भी करना पड़ता था। फिर एक एक करके जो उनके और पुष्पा के तीन बच्चे हुए उन्हें पुष्पा की ज़िद पर प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की ज़िद की वजह से कई बार रिया के साथ बेइंसाफी हो जाती थी।
काम की अधिकता और बीवी की चक चक से गोविंदजी अक्सर बीमार रहने लगे। शरीर तो उतना बीमार नहीं था पर मन की बीमारी ऐसी कि उनमें अब जीवन जीने की जैसे ललक ही खत्म हो गई थी। हल्की सी फिसलन उनके शरीर के बाएं तरफ को पक्षाघात का आघात दे गई।
तब रिया ने बारहवीं पास करके कोलेज़ में दाखिला लिया ही था कि घर में होती आर्थिक तंगी ने उसे पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने के लिए मज़बूर कर दिया।
गोविंदजी चल फिर तो सकते नहीं थे। किसी तरह स्कूल के प्रिंसिपल और अन्य गणमान्य लोगों से बात करके उनहोने रिया को कोई काम देने की गुजारिश की। रिया ने उसी स्कूल से पास किया था।वह बहुत अच्छी स्टूडेंट थी। पढ़ाई के साथ उसने ट्यूशन पढ़ाकर अपने कंप्यूटर कोर्स का खर्चा भी निकाल लिया था। अतः उसे सरकारी स्कूल में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी।
रिया के नौकरी करने से घर का खर्चा सुचारु रूप से चलने लगा था। पर छोटी सी उम्र में रिया के सर पर ज़िम्मेदारी का बोझ देखकर गोविंदजी को बहुत अफ़सोस होता था कि वह अपना बचपन नहीं जी पाई थी।कभी कभी गोविंदजी रिया को अपने पास बैठाकर उसके सर पर हाथ फेरते हुए जैसे कह रहे होते कि बेटा! मुझे माफ कर दो। मैं एक पिता का फर्ज़ भलीभान्ति नहीं निभा पाया।
रिया अपने बाबा का हाथ पकड़कर कहती,"बाबा! मैं उस बरगद के पेड़ की तरह हूँ जिसकी जडें मज़बूत होती हैँ और जिसके छाया में कितने लोग सुस्ताते हैँ!"
फिर दीर्घ निःस्वास खींचकर कहती रिया,"बाबा मैं बरगद का पेड़ हूँ। पूरे घर को संभालूंगी भी और अपनी छाया में रखकर किसीको कुछ नहीं होने दूँगी!"
सुनकर बाबा ऊपर से मुस्कुराते पर अंदर से एकदम टूट जाते। हाथ जोड़कर माधुरी की तस्वीर आँखों के समक्ष रख जैसे क्षमा माँग रहे होते कि उनके ज़िन्दा रहते रिया को इतना कष्ट सहना पड़ रहा है।
