अविस्मृत स्मृतियाँ
अविस्मृत स्मृतियाँ
[ कथनी और करनी में भेद - है भी, नहीं भी। ]
बचपन की स्मृतियाँ अनायास ही तरोताज़ा हो उठी। मैं कथनी और करनी के भेद की बढ़ती गहराई पर पुनः सोचने लगी।
आज भी याद है वो भिलाई का गाइड केम्प जब हम लोग अपने घर लौट रहे थे।
हम सभी बस में मस्ती में डूबे हुए थे, कि अचानक ही बस के एक तरफ़ से नीचे होने का अहसास हुआ, जब खिड़की से झाँककर नीचे देखा, तो पता चला टायर गड्ढे में फँस गया है।
सभी परेशान हो उठे सिवाय एक के, वो अध्यापिका बिना विचार किए तुरंत लकड़ियाँ लेकर नीचे उतरी ( जो वो तंबू बनाने के लिए अपने शहर से लाई थीं ) और ड्राइवर व कंडक्टर के साथ जुट गई, जिनके पास गाड़ी को गड्ढे में से निकालने के औजार थे। देखते ही देखते गाड़ी पाँच मिनट में गड्ढे से बाहर निकल आई।
जब सब कुछ अच्छा चल रहा था, तभी पीछे से हमारी गाइड अध्यापिका के कहने की आवाज आई, वे उन अध्यापिका पर छींटाकशी कर रहीं थीं । आश्चर्य और दुःख का मिलाजुला भाव लिए जब मैंने उन्हें देखा तो लगा कि कितनी ओछी सोच है उनकी ! जहाँ उन्हें स्वयं मदद के लिए जाना चाहिए था अथवा मदद न कर पाने की स्थिति में चुपचाप बैठना चाहिए था, वो अपना खलनायक रूप दिखा रहीं थी। वैसे भी वो अपने स्वार्थीपन का परिचय कैंप के दौरान भी कई बार दे चुकी थीं । लगा कथनी और करनी में भेद है भी और नहीं भी। कल ही हमें गाइड केंप में उच्च संस्कारों, त्याग और तपस्या की बातें बताई गई थी, जिसे उन अध्यापिका ने चरितार्थ कर हम सभी छात्राओं के सामने एक आदर्श खड़ा किया, हमारे लिए वो एक मार्गदर्शक बनीं। जब वो बस में पुनः चढ़ी, तो हम सभी विद्यार्थियों ने खड़े होकर उनके लिए तालियाँ बजाई।
तब उन्होंने मुस्कराते हुए बहुत ही विनम्रता से कहा,
"ये तो मेरा कर्तव्य था। मैंने वही किया जो इस परिस्थिति की माँग थी और मैं आप सभी से यही अपेक्षा रखती भी हूँ।"
उस समय लगा कि काश ! ये ही हमारी अध्यापिका होती तो हमें उनका अधिक समय तक सानिध्य प्राप्त हो पाता और हमें उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता, वो अध्यापिका अपने ट्रूप के साथ अगले पड़ाव पर उतर गईं और अपने साथ सकारत्मकता के प्रवाह को भी लेकर चली गई। अब बस में एक-एक पल भारी लग रहा था। जैसे ही हमारा पड़ाव आया हम सभी बस से उतरकर अपने-अपने घर चले दिए।
घर पहुँचते ही माँ ने उत्सुकतावश सवाल किया,
"इस बार तुम क्या लाई हो? क्योंकि मैं आदतानुसार हर नई जगह से वहाँ की विशेष वस्तु लाती थी।"
लेकिन इस बार मेरा जवाब था,
"वो स्मृतियाँ लाई हूँ जो इससे पहले मैं कभी नहीं लाई थी और ये स्मृतियाँ ताउम्र मेरे साथ ही रहेंगी"।