Yogesh Kanava Litkan2020

Abstract Inspirational

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Yogesh Kanava Litkan2020

Abstract Inspirational

और मैं वही का ककनूस हूं

और मैं वही का ककनूस हूं

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बुझते हुए उजालों में दूर तक केवल धूल का ही राज लगता है दूर जहां आसमान धरती से आलिंगन करता जान पड़ रहा है और लाज की मारी धरती बस सुरमई हो गई सी लगती है पर यह गुबार उसे किस कदर मटमैला किए है। इन्हीं गर्दो गुबार से निकलता कब रात का आलम पसर सा गया और नन्हे नन्हे टिमटिमाते तारे मानो कह रहे हों - यूं अंधेरों से ना डर कोई एक जुगनू तो अपने दिल में जला तो फिर देख रोशनियों के कितने सैलाब आते हैं। पर यह कहां मुमकिन था यादों के लिहाफ में लिपटा मैं कितनी ही रातों से बस यूं ही बिस्तर पर घूमता रहता आया हूं। एक-एक कर यादों के पैरहन उतरते गए और मैं बेलिबास सा अपने ही सामने खड़ा, रिश्तों के लिहाफ को तार तार होते देखता रहा, समय के सर्द थपेड़ों के साथ रिश्तों के ये लिहाफ एज एज कर उड़ते रहे, और बचे थे कुछ यादों के लिहाफ वो भी आज इस कदर इस सियाह रात में पैरहन की तरह उतर गये।  बेलिबास मैं जा पाऊंगा किसी और पैरहन के लिए?

  तमाम रातें यूं ही गुजरती गयी, बस हर रात एक साया सामने आता है उसका चेहरा नहीं दिखता, वह आता है सुर्ख दहकते अंगारों सी आंखों से घूरता है और बस घूरता ही रहता है। कभी-कभी साँप सीने पर लौट जाता है अपना फन फैलाकर लप- लपाती जीभ मेरे होंठों के ठीक सामने, मैं डर कर कर पहले तो आंखें मूंद लेता था लेकिन अब आंखें खुली रखता हूं देखना चाहता हूं वो मुझे कहां से डसता है, डसता है भी या नहीं, कितनी ही रातें गुजर गई ना डसता है और ना मैं डरता हूं और वह साया बस यूं ही घूरता रहता है ना कुछ कहता ना कुछ करता है। सर्द रात, पर मेरे पास चंद तार तार यादों के लिहाफ जिनको पैरहन बना मैंने वो ओढ रखी है। कभी-कभी लगता है रूह के ग़म सुलग रहे हैं। तारतार रिश्ते कहीं ना कहीं दिल के किसी कोने में धड़क रहे हैं, एहसास अभी जी रहा है तभी तो इस लिहाफ को, जो तारतार है फिर भी मैं छोड़ नहीं पा रहा हूं। आज भी पैरहन बना ओढ़े हूं इस सर्द रात में भी मैं इसको।

सच का सामना करना बहुत मुश्किल होता है अगर इंसान के हाथ में होता तो वह कभी भी सच की खेती नहीं करता लेकिन सच तो आकड़े के बीज की तरह है, रूई के फाहे के पंख लगा वह उड़ जाता है और जहां भी गिर गया वहीं उग जाता है। बिना पानी की जरूरत ना देखभाल की। मेरे मन पर भी जाने कब ये सच का बीज अपने रूई के फाहे के पंख लगा गिर पड़ा था और बिना पानी ही कैसे उग गया मालूम नहीं। पानी कहां बचा था मेरे पास ? जो था वह आंसुओं संग बह गया था, अब पानी कहां बचा है अब रिश्तों का वह आब कहां रहा है मेरे पास। एक रात यूं ही एक और साया आया, धीरे धीरे उसका अक्स वह उभरा वह जुलाहा था कुछ बोल रहा था अचानक उसका ताना टूट गया वह कुछ नहीं बोला बस उठा फिर से एक डोरी से टूटे हुए ताने को जोड़ दिया और बुनने लगा। मैंने देखा जहां ताना टूटा था अब वहां गांठ भी नहीं दिख रही थी। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उस जुलाहे से पूछ ही लिया यह कौन सी तरकीब थी मेरे भाई, टूटे हुए तार फिर से जोड़ दिए और गांठ भी कहीं दिखाई नहीं दे रही, मैंने तो बहुत जतन किए रिश्तो के ताने को जोड़े रखने के लिए। पर नाकाम काम ही रहा, मुझको भी यह तरकीब सिखा दे मेरे भाई। वह हंसकर बोला अपने मन के धागों से बांधों प्रीत की डोर को पकड़े रखो और फिर देखो कोई गिरह नजर नहीं आएगी। मैं कुछ समझ नहीं पाया और वह ना जाने कहां अंतर्ध्यान हो गया। मैं आज भी उस जुलाहे को ढूंढता हूं।

कभी कभी मेरे सामने ये तमाम रवायतॆं, परंपराएं चट्टानों से खड़ी हो जाती हैं और मैं दूध के दांतो से चट्टानों को तोड़ने की चाह लिए उन पर झपटना चाहता हूं। एक पैरहन और भी है जो टाट सी चुभती तो है पर मखमली एहसास के साथ पीड़ा भी देती है पर मीठी सी ।

दाद को खुजलाने जैसी, जिसमें मीठा सा एहसास तो होता है पर खून निकलने की पीड़ा भी झेलनी होती है। बस इसी तरह की एक पैरहन है मेरे मन पर जिसे लपेटे रखना तो चाहता हूं पर वह चुभती बहुत है। रात की आड़ी तिरछी लकीरों के बीच ये साए आते हैं, बस सोने नहीं देते। एक साया जो ज़नाना है बहुत बार आता है और कहता है - तुम अपने दूध के दांतों से इन सायों को नहीं नौच पाओगे, जानते हो यह तुम्हारे अपने ही साए हैं तुम्हारे किए हुए अपने ही कर्म । जिन्हें तुम जमाने से सदा छुपाते रहे हो वो एक-एक पल का हिसाब मांग रहे हैं तुमसे। तुमने सोचा था ना तुम बच जाओगे, नहीं ये साए तेरा पीछा करते रहेंगे ताउम्र। तुम यूं ही अपने तार-तार हुए रिश्ते की पैरहन को अपने से अलग नहीं कर पाओगे। मुझे जानते हो मैं तुम्हारी हमराज हूं एक काम करो मुझे अपना साथी बना लो। ज़रा गौर से सुनो क्या मैं तेरी है आवाज़ नहीं हूं,

और इस तरह वह साया आता रहता है मेरी रातों में और मैं लाचार सब सुनने को सब रातों में देखने को। एक रात वही साया जो मेरी हमराज बताती है फिर आया बोली क्या सोचा तुमने ? मुझे अपना साथ ही बनाओगे ना। मैंने कोई जवाब नहीं दिया वह फिर बोली ककनूस का नाम सुना है तुमने, हां हां वही फिनिक्स वो हर बार जलता है और फिर अपनी ही राख से फिर पैदा होता है। तुम भी हर रात ककनूस की तरह जलते हो और अगली सुबह अपनी ही राख से पैदा हो फिर चलने लगते हो। यह तुम्हारी अपनी शक्ति है यह राज़ तुम्हें मालूम नहीं है। यह तो मैं ही जानती हूं इसलिए कि मैं तुम्हारी हमराज हूं। और मैं सोचता रहा कितना सच है यह, मैं सचमुच हर रोज मरता हूं अपनी यादों में अपने ही यादों के पैरहन उतारता हूं बेलिबास हो ककनूस की तरह जलता हूं और सुबह के साथ फिर से पैदा हो उन्हीं यादों के लिबास को ओढ़ लेता हूं। आज मुझे भान हो गया है यह साए कोई और नहीं मेरी ही राख के ढेर हैं और मैं वही का ककनूस हूं जो हर सुबह फिर पैदा हो जाता है अपनी‌ ही राख से।


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