अस्तित्व
अस्तित्व
रेनू ! अरी ओ रेनू, ये क्या अभी तक सो रही है ! दिन कितना चढ आया है हे राम ! आजकल के बच्चे तो पूरा दोपहर करके ही उठते हैं (रेनू की दादी बड़बड़ाते हुए रसोई घर की ओर चली गई)
सुधा, देख कहे देती हूँ लड़की को सिर पर बैठाना अच्छी बात नहीं तेरी वजह से ही बिगड़ रही है, कुछ कहती भी नहीं उससे। बेटी है, कल को पराए घर भी तो जाना है। हमारी नाक कटवाएगी बस (दादी ने रेनू की माँ को चेतावनी देते हुए कहा)
ये सब इसी की गलती है, बिगाड़ के रखा है छोरी को माँ सिखाएगी तभी तो बच्ची सीखेगी (सुधा के पति ने भी अपनी माँ का साथ देते हुए कहा )।
रेनू को रात में देर तक पढ़ने की आदत थी। दिन में पढ़े भी तो कैसे ? घर में जितने लोग उतने ही उनके काम
रेनू ये लिया, वो कर दे, यहाँ जा, वहाँ जाबस दिन भर फिरकी की तरह घूमती रहती थी। वैसे तो जब कॉलेज जाना होता था तो वो खुद ही जल्दी उठ जाती थी, पर छुट्टी वाले दिन आराम से उठती थी। ये बात सुधा के सिवाय घर में कोई नहीं समझता था।
घर के सभी लोग उसी पर ही आश्रित थे। न केवल वो सबका ध्यान रखती थी अपितु पढ़ाई के साथ-साथ सिलाई बुनाई चित्रकारी में भी निपुण थी।
किसी के मुख से पराए घर वाली बात उसे तीर की तरह चुभ जाती थी। एक सवाल उसके मन में सदैव कौंधता रहता था कि सबका इतना ख्याल रखने के बाद भी, मुझे इतना प्यार करने के बाद भी सब मुझे पराया धन क्यों कहते हैं ?
बात -बात पर टोका टाकी ऐसा मत करो, वैसा मत करो। अगले घर जाकर भी क्या ऐसा ही करेगी !
"चाय, गरम चाय "की आवाज सुनकर मानो उसकी गहन तंद्रा टूट चुकी थी, और वह पल में अतीत से वर्तमान में आ गई थी।
तभी उसने देखा गाड़ी अलीगढ़ स्टेशन पर रूकी हुई थी।
इतनी जल्दीअलीगढ़ स्टेशन भी आ गया, पता भी नहीं चला ! (वह मन ही मन सोचने लगी।) खैर , उसने एक कप चाय खरीदी और फिर सोचने लगी
"क्या माँ के घर से यही सीख कर आई है" ! सोचा था कि बड़े घर की बेटी है, कुछ तो संस्कार होंगे और फिर दहेज भी तो अच्छा खासा मिलेगा। हमें तो धोखे में रखा सबने तेरे अपने घर में चलता होगा ऐसे, हमारे यहाँ नहीं चलेगा।
माँ इसमें भाभी की क्या गलती है ? जो दिया सो दिया इनके माँ -बाप ने , अपनी बेटी को ही तो दिया है जब तुम एक ही बात को बार -बार दोहराओगी तो गुस्सा किसे न आएगा।( रेनू की ननद ने अपनी माँ को थोड़ा सा गुस्से के लहजे में कहा)।ऐसे में संस्कार बीच में क्यों ला रही हो ?भाभी ने क्या नहीं किया इस घर के लिए, भईया की नौकरी नहीं थी मेरी पढ़ाई, घर खर्च की जिम्मेदारी सब कुछ तो वहन किया है अपने कंधे पर। रात-रात भर बैठ कर कपड़े सिले हैं। तुम्हारे बीमार पड़ने पर इसी ने तो सारी टहल की है !
हाँ -हाँ सारा कसूर मेरा ही तो है। उल्टा जबाब देने की भी मेरी ही आदत है। पूरा घर दिन भर बिखरा पड़ा रहता
है मैं बूढी जान, भला कब सारे काम यूँही करती रहूंगी। (रेनू की सास ने झुंझलाते हुए कहा)
रोज घर में किसी न किसी बात को लेकर अक्सर झगडा़
छिड़ जाया करता था। अपना घर-अपना घर बात सुन सुनकर एक मानसिक तनाव का घेरा उसके इर्द-गिर्द बनने लगा। अब तो धीरे -धीरे उससे कोई न कोई गलती हो ही जाती थी। फिर वही शिकायतों का पुलिंदा रोज रोज की चिक -चिक से उसका पति भी तंग आ चुका था इसलिए उसने उसे कुछ दिनों के लिये रेनू को उसके मायके भेज देने का फैसला किया।
घर पहुँचने पर खबर कर देना, पति ने उसे गाड़ी में बैठाते हुए कहा।
कहाँ जा रही हो बेटी, आवाज को सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक वृद्ध महिला को मुस्कुराते हुए पाया।
"अपने घर" कहते -कहते सहसा वह रूक गई
कौन सा घर ? आखिर मेरा अपना घर कौन सा है !
वो जहाँ मुझे यह अहसास कराया गया कि अपने घर जाना है, बेटियाँ तो पराई होती हैं या फिर वो जहाँ से यह कह दिया गया कि इसे अपने घर छोड़ आओ। क्या बेटियों का अपना कोई घर नहीं होता ? एक बेटी अपना सर्वस्व लगा देती है हर रिश्ता निभाने में, अपने कष्ट की भी परवाह नहीं करती फिर क्यों उसे हर पल पराए होने का अहसास कराया जाता है ? क्या वो सिर्फ त्याग के लिए ही बनी है ! क्या उसका अपना कोई अस्तित्व है भी या नहीं ?
