असली सोना
असली सोना
दूर -दूर तक हरी मखमली चादर सी फ़ैली हुयी थी -लहलहाती फसल। बस कुछ दिन में पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाएगी। फिर -- इस फिर से माखन सालों से डरता आया है। पहले तो उपज का दो तिहाई हिस्सा जमींदार को देना पड़ेगा जिसकी ज़मीन वो पुश्तों से जोतता आया है, बिना मालिकाना हक़ के ! फिर बची हुयी फसल मंडी में जाने किस भाव में बिकेगी। सरकार तय तो कर देती है समर्थन मूल्य पर वास्तव में तो मंडी में व्यापारियों की ही चलती है।
"पिताजी आ जाइये, माँ ने खाना भेजा है !"
बड़े बेटे की आवाज़ से माखन मानो नींद से जागा।
भाग्यशाली है माखन। पत्नी ऐसी जो थोड़े से पैसे में भी घर में कोई कमी नहीं होने देती। मजाल है कभी अन्न का एक दाना भी बर्बाद होने दिया हो। खुद ही सबके कपड़े सीती। बिना साबुन के भी जाने कैसे कपड़े बिलकुल उजले धो देती। सबसे बड़ी बात की इतने अभाव में रहते हुए भी कभी चेहरे पर एक शिकन नहीं आने दी। बच्चों को भी अपना सा बना लिया। वो भी न तो दूसरे बच्चों की तरह फ़ालतू की ज़िद करते और न ही यहाँ से वहां आवारागर्दी। बड़ा बेटा श्याम तो अब तेरह वर्ष का हो गया। अगले वर्ष दसवीं की बोर्ड की परीक्षा देगा। मास्टर जी जब भी माखन से कहीं भी टकराते, श्याम की तारीफों के इतने ऊँचे ऊँचे पुल बाँध देते की माखन डर सा जाता। यदि सच में दसवीं में बेहद अच्छे अंक आ गए तो आगे पढ़ने के लिए शहर भेजना पड़ेगा। पर इसके लिए पैसे कहाँ से आएंगे- ये चिंता दिन पर दिन विकराल रूप धारण कर रही थी।
खाना खा कर वो फिर खेत से खरपतवार हटाने में लग गया। कितना ही हटाओ , फिर खरपतवार आ ही जाती है। ठीक वैसे ही जैसे एक ग़रीब के जीवन में एक के बाद एक उपजती जाती समस्याओं की बाढ़ कभी नहीं थमती।
सांझ ढले घर पहुंचा तो महुआ उसी का इंतज़ार कर रही थी। उसे देखते ही प्रफुल्लित हो कर समाचार सुनाया -
"सुनो जी सरकार हमें ज़मीन का टुकड़ा देने वाली है !"
सुन कर पहले तो खुशी हुयी पर जल्द ही खुशी का उफान हकीक़त की परछाईं से अंधेरे में समा गया।
उपजाऊ ज़मीन तो सारी की सारी जमींदार और बड़े किसानों के पास है। सरकारी ज़मीन तो बंजर है। पथरीली। बबूल और कीकर ही उगे हैं उस भूमि पर।
महुआ उसका उदास चेहरा देख सब समझ गयी। बड़े प्यार से बोली :
"अरे विमला के बापू काहे परेशान हो रहे हो। कुछ मिल ही रहा है न कुछ छिन तो नहीं रहा। चलो अब सोचना बंद करो। हाथ मुंह धो लो। आज साग -रोटी संग आमले की चटनी बनाई है। जल्दी से खाना खा लो। "
खाना खाने के बाद तो बस दस बरस की विमला बिटिया को कहानी सुनाते सुनाते रात घिर आयी।
अगले कुछ दिन बेहद परेशानी वाले रहे। ज़मीन के छोटे से टुकड़े के लिए कितनी जगह कागज़ भरे और कितनी जगह पेन उधार ले अपने टेढ़े मेढ़े दस्तख़त किये। आखिर में एक बड़े समारोह में दो घंटे लाइन में लग बड़े नेताजी के हाथ ज़मीन के कागज़ मिले।
रात को महुआ से खेत से कीकर -बबूल काट कर हटाने की बात कर रहा था तो श्याम बीच में आ गया। जब श्याम ने बताया की शहर में कीकर और बबूल से भी कई दवाइयाँ तैयार होती हैं तो माखन की ऑंखें आश्चर्य से खुली रह गयी। तय हुआ की श्याम के साथ शहर जा कर माखन कीकर और बबूल से आय होने का ज़रिया ढूंढेगा। श्याम ने चहकते हुए बताया कि मास्टर जी ने उसे अपने एक मित्र का पता दिया है जो कीकर और बबूल से दवाई बनाता है। बस उस से मिल कर क्या कैसे करना है ये समझ लें तो उसकी जरूरत के हिसाब से कीकर और बबूल दे कर कुछ आय हो जाएगी।
अगले दिन से खेत से पत्थर हटाने का काम भी चारों मिल-जुल कर करने लगे। कभी कभी गाँव वाले उनकी खिल्ली भी उड़ाते। पत्थर से पानी निकालोगे क्या ? ये कह ठहाका लगाते। अरे भाई बंजर से सोना न उपजेगा - ये सीख देने वाले गाँव वाले कुछ दिन में ही चुप हो गए जब कड़ी मेहनत के बाद वो बंजर खेत अब मामूली खेत सा दिखने लगा। हाँ बबूल और कीकर के पेड़ अभी भी उस पर उगे थे -क्योंकि मास्टर जी के दोस्त को अब बबूल और कीकर की पत्तियां , छाल, बीज, टहनियां -बेचे जाने की बाद तय थी।
अगला एक साल बेहद परिश्रम का रहा। माखन के चेहरे से पसीना टपकता रहा और वही पसीना साल भर बाद लहलहाती फसल बन सुनहरा सोना बन गयी। श्याम ने भी मेहनत से जी नहीं चुराया। दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में पूरे प्रदेश में अव्वल आया। वजीफा भी जीता।
जो गाँव के लोग पहले ताने देते थे अब वो माखन और उसके घर के सदस्यों की तारीफ करते नहीं थकते थे।
यूँ ही साल पर साल बीते और माखन की गिनती धीरे -धीरे अच्छे संपन्न किसानों में होने लगी। कुछ और ज़मीन भी उस ने ख़रीद ली थी। उसकी देखादेखी अब और गाँव वाले भी अपनी बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना चुके थे।
पर देश की धरती से असली सोना उस दिन उगा जिस दिन माखन के बेटे श्याम ने एग्रीकल्चरल मार्केटिंग में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद गाँव में खाद्य प्रसंस्करण इकाई खोल गाँव के नवयुवकों को रोज़गार उपलब्ध कराया और बेटी विमला ने डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पति के साथ गाँव के पास वाले कस्बे में अस्पताल खोला।
सच यही है, कि देश की धरती सोना ज़रूर उगलती है। बस जरूरत होती है कठिन परिश्रम, लगन और उपयुक्त सरकारी योजनाओं की।